
भारतीय संविधान की 75वीं वर्षगांठ पर संसद में जो दृश्य सामने आए, वे डॉ. भीमराव अंबेडकर की आत्मा को व्यथित कर सकते हैं। संविधान निर्माता को हथियार बनाकर की जा रही राजनीति न केवल लोकतंत्र की मूल आत्मा के विपरीत है, बल्कि अंबेडकर के समतामूलक भारत के स्वप्न को भी कलंकित करती है। आज जरूरत है कि हम अंबेडकर को भगवान नहीं, विचार के रूप में आत्मसात करें—विवाद नहीं, विचारधारा अपनाएँ।
14 अप्रैल : अंबेडकर जयंती पर विशेष
भारतीय संविधान पर बहस होते-होते उस मुकाम पर हमारे देश के राजनेता सदन में पहुँच गए, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। डॉ. अंबेडकर की आत्मा दुखी होगी, यह सब देखकर कि देश के सांसद क्या कर रहे हैं? सांसदों ने डॉ. अंबेडकर को अपना हथियार बनाकर अपनी राजनीति शुरू कर दी, इससे तो कम से कम डॉ. अंबेडकर कभी खुश नहीं हो सकते। उनके लिए देश के सभी नागरिक ईमानदारी से समान थे, समान हैं और रहेंगे। डॉ. आंबेडकर ने संविधान के निर्माण में जितना भी सहयोग दिया वह उदाहरणीय है लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा कि संविधान पर चर्चा करते-करते संविधान स्वीकृति के 75वीं वर्षगांठ पर सदन में हंगामा करना।
भारतीय संसद में सत्ता पक्ष और विपक्ष डॉ. अंबेडकर के अपने-अपने मायने, अपने-अपने सरोकार, अपनी-अपनी डफली अपने-अपने राग के अनुसार समझना और व्याख्यायित करना शुरू कर दिया है। देश में डॉ. अंबेडकर को लेकर फैलाये जा रहे भ्रम और उनके नाम पर सेंकी जा रही रोटी कभी भी देश हित में नहीं है। भारत का यह दुर्भाग्य-काल चल रहा है कि संविधान की बहस के बीच नए तरह से डॉ. अंबेडकर पर केन्द्रित विभ्रम और युद्ध शुरू हो गए हैं। देश की 150 करोड़ की आबादी इसे सहने को मजबूर है। देश इसे सहने के लिए मजबूर है।
भारत में प्रतीकों की लड़ाई सदन में देखने को मिली। भारत में अध्यात्म और सनातन संस्कृति की अपनी आत्मशक्ति है। यदि इसे भारतीय तरह से कहा-सुना नहीं जाएगा तो किसी दूसरे पृथ्वी के हिस्से में वह नहीं कहा-सुना जा सकता है, इसे तो कम से कम भारतीयों को समझना चाहिए। सभी ने डॉ. अंबेडकर के चित्रों को हाथ में लेकर प्रदर्शन किया। सभी ने नीले वस्त्र पहने। सभी ने यह कहा कि आंबेडकर हमारे भगवान् हैं। डॉ. अंबेडकर ने कभी नहीं कहा कि हमें आप भगवान् मानो या भगवान् कहो। लेकिन खूब उन्हें अपना भगवान कहा जा रहा है। जब वे जीवित थे तो उन्हें उतनी इज्जत नहीं मिली। उन्होंने अपने लिए अपनी अजघ बनायीं और देश में खुद को उन्होंने स्थापित किया। यह भगवान्-भगवान् खेलने की जगह, डॉ. अंबेडकर के स्वप्न का भारत यदि देश के लोग गढ़ने की कोशिश करते तो देश का ज़रूर भला हो जाता।
सबसे पहले इसके लिए दो चीजें छोडनी होगी, डॉ. अंबेडकर के विषय में। एक यह कि डॉ. आंबेडकर को भगवान् बनाया जाए, दूसरी बात डॉ. अंबेडकर पर राजनीति करना भी छोड़ना ही होगा। यदि भारतीय नागरिकों के समानता और समरसता की बात डॉ. अंबेडकर ने की। यदि डॉ. अंबेडकर ने भारतीय जन के अधिकारों की बात की, वही सरकार और सत्ता पक्ष के लोग कृपा करके दे दें। उनके नाम पर कपर-फोरौउल करने से कुछ काम नहीं बनने बाला है और न ही देश का विकास होने वाला है। देश का विकास तो शांतिपूर्वक सदन में बैठकर देश हित में चिंतन और मनन के माध्यम से संभव है। सदन के भीतर बैठे लोग देश हित की बात की जगह अपने हितों को साधने में ज्यादा घुस चुके हैं। संविधान, देश, नागरिक और सभ्यतागत विकास की बातें गौण हो गयी हैं। हिंदुस्तान विश्व में अपनी भले महिमा मंडन कर रहा हो लेकिन सदन के भीतर के शोर और क्रंदन भारत की असलियत बताने के लिए काफी हैं।
लोक सभा सचिवालय ने एक मोनोग्राफ प्रकाशित किया था डॉ. अंबेडकर पर ‘डॉ. बी. आर. अंबेडकर’ शीर्षक से, उसे हर सांसद को पहले पढ़ना चाहिए। कम से कम डॉ. अंबेडकर की मूल बात को लोग समझ पाते। केवल पृष्ठ 67-75 यही नौ पृष्ठ पढ़ लें तो भी उन्हें समझ लेंगे। एक संघीय सरकार को समझने के लिए डॉ. अंबेडकर ने कुछ विचार ब्रूक के माध्यम से प्रकट की थी। यह आपसी युद्ध या हिंसा की दहलीज पर जो संसद के प्रवेश द्वार सांसद की छवि दो दिन में सामने आई है। ऐसी हालत उन दिनों भी बनी हुई थी। आपसी द्वंद्व बना हुआ था। डॉ. अंबेडकर ने कहा था, ‘सभापति जी, परिषद् के कुछ सदस्यों की ओर से मैं यह भी सुनता आ रहा हूं कि वे युद्ध के लिए तैयार है। मैं अवश्य यह स्वीकार करूंगा। मैं इस कल्पना से ही कांप उठता हूं कि इस देश का कोई भी व्यक्ति यह सोचे कि युद्ध द्वारा वह देश की राजनैतिक समस्या हल कर लेगा।’ आज जो द्वंद्व है, इसी बात की पड़ताल करने को कह रहा है।
ब्रूक को कोट करते हुए डॉ. अंबेडकर ने यह बहुत साफ़ साफ कहा था, बल-प्रयोग से सदा आतंक ही नहीं पैदा होता। अगर हम सदा शस्त्र ही उठाये रहें तो फिर यह विजय कैसी? बलप्रयोग में अगर आप असफल होते हैं तो फिर कोई साधन आपके पास नहीं रह जाता। अगर आप मीठे तरीके से सुलह करने में असफल होते हैं बलप्रयोग का साधन आपके हाथ में रहता है परन्तु बल प्रयोग में अगर आप हारे तो फिर समझौते की कोई और गुंजाइश नहीं रहती। दया दिखाने से अधिकार और शक्ति तो कभी-कभी प्राप्त हो जाते हैं पर बल प्रयोग में पराजित होने पर आप अधिकार की भीख नहीं मांग सकते।…बल-प्रयोग के विरूद्ध मेरी और आपत्ति यह है कि इसके द्वारा लक्ष्य प्राप्ति के प्रयास में आप अपने लक्ष्य को ही क्षीण और दुर्बल बना देते हैं। बल प्रयोग में विजयी होने पर आपको क्या मिलता है? जो भी आप पाते हैं, वह युद्ध के सिलसिले में प्रायः मूल्यहीन, जर्जरित और बर्बाद हो चुका रहता है।
ब्रूक के इस दार्शनिक बातों को डॉ. अंबेडकर उन दिनों समझाने का प्रयास किये हैं। आज जब शिष्टजन भारतीय संसद में द्वंद्व की स्थिति में आहें, तो यह बात सोचने की है कि वे डॉ. आंबेडकर के किस अवधारणा को आत्मसात करके ऐसा कर रहे हैं और वे डॉ. अंबेडकर के लिए भी खुद क्या करना चाहते हैं? भारतीय जनमानस को जो मिडिया द्वारा दिखाया जायेगा, जो समझाया जायेगा। जो परोसा जायेगा, वह तो वही जानती है। जो देश के नेतृत्व की जिम्मेदारी लिए हैं, सोचना उनको है कि वे आखिर किस तरह से भारत निर्मित करने को तैयार हैं युद्ध, संघर्ष और द्वेष के द्वंद्व के साथ या डॉ. अंबेडकर के मूल स्वभाव को समझकर? जब हम बहक जाते हैं तो हमारे दृष्टिकोण भी बदलने लगते हैं। जब हम बहकाने लगते हैं तो देश के विकास की दिशा भी बदलने लगती है। जब हम षड्यंत्र करके अपने हितों को प्राथमिकता देते हैं तो हम अपने मूल्यों के साथ खिलवाड़ करते हैं। भारतीय इतिहास ऐसे लोगों को कभी माफ़ नहीं करता। भारतीय इतिहास ऐसे लोगों को सदैव प्रश्नों के घेरे में खड़ा करता है।
डॉ. अंबेडकर की ही मान लें। उनके ही विचार मैं ज्यों का त्यों समझें। उन्होंने कहा था- इसलिए जहां तक हमारे लक्ष्य का संबंध है, हममें से किसी को भी कोई आशंका नहीं होनी चाहिए, कोई संदेह न होना चाहिए। हमारी कठिनाई यह नहीं है कि हमारा भविष्य क्या होगा। हमारी कठिनाई तो यह है कि अपनी आज की इस विशाल, पर बेमेल आबादी को किस तरह इस बात पर आमादा करें कि वह मिल-जुलकर एक फैसला करे और ऐसा पथ ग्रहण करें कि हम सब एक हो जाएं। हमारी कठिनाई इति को लेकर नहीं अथ को लेकर है। हमारा लक्ष्य क्या है, यह तो साफ है। पर परेशानी यह है कि काम शुरु कैसे करें। शायद उन दिनों डॉ. अंबेडकर द्वारा पूछे गए प्रश्न आज भी भारतीय राजनीति से उसी सवाल को पूछ रहे हैं। कदाचित हमारे मन के भीतर बैठी मैल हट जाए तो द्वंद्व की जगह लक्ष्य की ओर भारत बिना गतिरोध के आगे बढ़ चलता।