आजकल सरकारों के सालाना बजट में तरह-तरह के प्रयोग होने लगे हैं। हाल में विधानसभा में प्रस्तुत किए गए मध्यप्रदेश के बजट में ‘चाइल्ड बजट’ उसी तरह का एक प्रयोग है। इसे राज्य के अनेक विभागों को आवंटित राशि में से बच्चों पर खर्च की जाने वाली राशि को निकालकर बनाया गया है। लेकिन क्या इससे बच्चों का कोई भला हो सकेगा? यदि इस तरह का बजट थोडी गंभीरता के साथ, व्यापक नजरिए और संवाद के आधार पर बनाया जाता तो क्या बेहतर नहीं होता?
सरकारी बजट के उपयोग की उचित जवाबदेही शासन के महत्वपूर्ण लक्ष्यों में से एक माना जाता है। इस सबंध में, यह जांचना आवश्यक है कि दीर्घकालीन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सरकार बजट को कैसे और कहाँ खर्च करती है या किन मदों में कितना बजट आवंटित करती है। किसी देश और राज्य की समृद्धि और संभावनाओं का निर्धारण सरकारी बजट के आकार और प्राथमिक क्षेत्रों में आवंटन के द्वारा भी किया जा सकता है, जिसमें ध्यान दिया जाता है कि बजट के विभिन्न प्रावधान तैयार करते समय न्यायसंगत और समावेशी नजरिये को ध्यान में रखा गया है या नहीं। इसलिए सुनियोजित बजट सरकार के लिए दीर्घकालिक और टिकाऊ विकास के लक्ष्यों को हासिल करने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।
‘चाइल्ड बजट’ बच्चों के प्रति सरकार की जवाबदेही को पहचानने का एक महत्वपूर्ण जरिया हो सकता है। इसके माध्यम से, सरकार विशेष वित्तीय वर्ष के समग्र बजट में बाल केंद्रित योजनाओं, कार्यक्रमों और नीतियों पर आवंटित राशि प्रस्तुत करती है। इस प्रकार ‘चाइल्ड बजट’ के माध्यम से बच्चों के कल्याण और विकास पर सरकार की प्रतिबद्धता को मापा जा सकता है। ‘चाइल्ड बजट’ का अर्थ एक अलग बजट दस्तावेज नहीं है, बल्कि सामान्य सरकारी बजट का एक हिस्सा है।
भारत के संविधान का अनुच्छेद – 39(एफ) यह सुनिश्चित करता है कि बच्चों का समग्र विकास और उनको शोषण से बचाने के लिए अवसर और सुविधाएं दी जाएँ। अंतराष्ट्रीय स्तर पर ‘संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन 1989’ के अनुसार 18 वर्ष से कम आयु के इंसानों को ‘बच्चों’ के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसे भारत ने भी वर्ष 1992 में अंगीकार किया है। ‘कन्वेंशन’ के अनुसार बच्चों की परिभाषा में दुनिया भर के विभिन्न वर्ग, जाति, लिंग, नस्ल, क्षेत्र, संस्कृति और क्षमताओं वाले बच्चे शामिल हैं।
बाल अधिकारों को चार प्रमुख क्षेत्रों में विभाजित किया गया है, जिसमें विकास, जीविता ,सुरक्षा एवं सहभागिता शामिल है। सरल भाषा में कहें तो बच्चों से जुड़े ये चार अधिकार एक तरह के वैश्विक संकेतक हैं जिनके आधार पर किसी भी देश और प्रदेश के बच्चों की स्थिति को मापा जा सकता है। बच्चों को संवैधानिक अधिकार दिलाने के साथ-साथ अंतराष्ट्रीय समझौते को अमल में लाने के लिए ‘चाइल्ड बजट’ कारगर औजार साबित हो सकता है।
केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2008 से ‘चाइल्ड बजट स्टेटमेंट’ प्रस्तुत किया जा रहा है। मध्यप्रदेश के अलावा सात ऐसे राज्य हैं जहां ‘चाइल्ड बजट’ प्रस्तुत किया जा रहा है। इनमें बिहार (2013-14 से), केरल (2017-18 से), असम (2018-19 से), उड़ीसा (2019-20 से) और अरुणाचल प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र (तीनों 2020-21 से) शामिल हैं।
मध्यप्रदेश सरकार ने हाल ही में अपना पहला ‘चाइल्ड बजट – 2022-23’ प्रस्तुत किया है। अपने बजट भाषण में वित्तमंत्री ने कहा है कि “मुझे सदन को यह अवगत कराते हुए प्रसन्नता है कि हमारी सरकार इस बार पृथक ‘चाइल्ड बजट’ प्रस्तुत कर रही है, जिसमें 18 वर्ष से कम आयु के बालक, बालिकाओं के लिए योजनायें एवं प्रावधान एक दृष्टि में ज्ञात हो सकेंगे। साथ ही बालक–बालिकाओं पर केन्द्रित योजनाओं को और अधिक सार्थक तथा कारगर बनाए जाने में सरकार को सुविधा होगी।”
प्रदेश के ‘चाइल्ड बजट’ में कुल 17 विभागों की विभिन्न श्रेणियों और मदों की 216 योजनाओं, कार्यक्रमों और नीतियों को शामिल किया गया है। इनमें करीब 45 नई बजट मदों को जोड़ा है, जिसमें विभागों में योजनाओं के साथ, प्रशासनिक व्यय और कई नई योजनाएं शामिल हैं। हालांकि कुछ बजट मद या योजनाओं का आवंटन कम या बंद कर दिया गया है। कुल मिलकर प्रदेश का चाइल्ड बजट 57 हजार करोड़ के करीब है जिसमें प्रशासनिक व्यय, वेतन के साथ योजनाएं भी शामिल हैं।
जिन 17 विभागों की योजनाओं को बच्चों के लिए उपयोगी माना गया है उनमें से कुछ समझ से परे हैं, जैसे – नगरीय प्रशासन विभाग की ‘दीनदयाल रसोई योजना,’ ‘नगरीय जल-प्रदाय योजना,’ संस्कृति विभाग की स्मारकों, संग्रहालयों की स्थापना, अनुरक्षण एवं विकास और पर्यटन विभाग का ‘लाइट और साउंड शो।‘ पीएचई विभाग की ‘जल जीवन मिशन’ (जेजेएम), ‘नेशनल रूरल ड्रिंकिंग वाटर मिशन योजना’ में आवंटन को भी ‘चाइल्ड बजट’ की श्रेणी में रखा गया है। यह आश्चर्य की बात है कि गृह विभाग की किसी योजना और कार्यक्रमों के आवंटन को ‘चाइल्ड बजट’ की श्रेणी में नहीं रखा गया है।
इन तमाम तथ्यों को एक तरफ भी रख दें, क्योंकि यह एक नई शुरुआत है और इसमें सुधार हो सकता है। इससे संबंधित यह तथ्य भी सही है कि विभागों की बच्चों संबंधित योजनाओं और कार्यक्रमों की एक साथ निगरानी हो सकेगी जिससे दोहराव में कमी आयेगी एवं कार्यक्रमों में एकरूपता आयेगी, किंतु प्रश्न है कि क्या जमीनी स्तर पर बच्चों के हालातों में बदलाव आएँगे? और क्या वित्तमंत्री ने अपने बजट भाषण में ‘चाइल्ड बजट’ का जिक्र करते समय सरकार का बाल अधिकार सम्बंधित दृष्टिकोण, लक्ष्य और इसे पूरा करने की समयावधि का ध्यान रखा है?
मध्यप्रदेश, जो बच्चों पर अपराध की घटनाओं और बाल मृत्यु-दर में शीर्ष पर है, जहां बच्चों में कुपोषण की स्थिति चिंताजनक है और जहां बाल-मजदूरी, बाल-विवाह जैसी कई चुनौतियां हैं, जहां कोविड महामारी ने बच्चों के सामने ऑनलाइन अपराध तथा उनकी शिक्षा के क्षेत्र में कई चुनौतियों को प्रस्तुत किया है, केवल यह लक्ष्य कि बजट निगरानी एक कामन डेस्क बोर्ड पर हो सके, नाकाफी है। इससे यह महज एक दस्तावेज बनकर रह जाएगा।
‘चाइल्ड बजट’ के खर्च की जिला स्तर पर निगरानी एक बड़ी चुनौती है। सरकार के निचले स्तर के अमले तक इसकी समझ बनाने के लिए जरूरी है कि अधिकारियों का उन्मुखीकरण हो, जो न केवल ‘चाइल्ड बजट’ के सम्बन्ध में हो, बल्कि क्रियान्वयन के लिए लक्ष्यगत कार्य योजनाओं का निर्माण और नियमित आधार पर प्रगति की निगरानी करने में सक्षम बनाने के विषय शामिल हों। जिला स्तर पर एक सामान्य डेस्क बने जहाँ ‘चाइल्ड बजट’ के अंतर्गत आने वाले विभागों की योजनाओं और कार्यक्रमों की एक साथ नियमित समीक्षा की जा सके।
हालांकि ‘चाइल्ड बजटिंग’ बच्चों के सभी मुद्दों को हल करने के लिए जादू की गोली नहीं हो सकती, जिससे बच्चों से सम्बंधित सभी मुद्दों और समस्याओं का इलाज हो सके, लेकिन उनके अधिकारों को साकार करने और उनके समग्र विकास को सुनिश्चित करने का एक जरिया जरूर हो सकता है। अच्छा होता कि प्रशासनिक अधिकारी हड़बड़ी और जल्दबाजी न दिखाकर अपने अनुभवों का फायदा उठाकर ‘चाइल्ड बजट’ के लक्ष्य को पूरी तैयारी के साथ प्रस्तुत करने की सलाह देते। इससे प्रदेश के करोड़ों बच्चों को लाभ मिलता। (सप्रेस)
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