महाराष्ट्र में शिव सैनिकों के दलबदल की घटनाओं ने एक बार पुनः दलबदल कानून और उसके प्रावधानों की ओर आम जनता का ध्यान आकर्षित किया है। वे यह जानना चाहते हैं कि यह कानून इस मामले में कितना प्रभावी होगा। साथ ही महाराष्ट्र के राज्यपाल और विधानसभा के उपाध्यक्ष की भूमिका को भी देश की जनता ध्यानपूर्वक देख रही है।
सत्तारूढ़ शिवसेना पार्टी के बहुसंख्यक विधायक पार्टी के बागी नेता एकनाथ शिंदे के साथ चले गए हैं और गुवाहाटी में डेरा डाले हुए हैं। इसलिए शिवसेना उनके खिलाफ दलबदल विरोधी कानून के तहत कार्रवाई करने जा रही है। इस संबंध में 16 विधायकों के खिलाफ एक पत्र भी महाराष्ट्र विधानसभा के उप-सभापति को शिवसेना द्वारा दिया गया है। इस समय पर राज्यपाल कोविड से ग्रस्त होकर अस्पताल में है। ऐसी स्थिति में विधानसभा के उप-सभापति की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है क्योंकि अभी विधानसभा में कोई सभापति नहीं है। महाराष्ट्र में दलबदल विरोधी कानून क्या है, और क्या यह शिवसेना के बागियों पर लागू होगा अथवा नहीं, यह प्रश्न महत्वपूर्ण मुद्दा हो गया है।
दलबदल विरोधी कानून उन विधायकों को अयोग्य ठहराने का प्रावधान करता है, जो एक राजनीतिक दल के टिकट पर चुने जाने के बाद स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने व्यापक रूप से इसकी व्याख्या की है। एक विधायक के आचरण से ही यह संकेत मिल सकता है कि उन्होंने अपनी पार्टी छोड़ी या नहीं। यह कानून निर्दलीय विधायकों पर भी लागू होता है। उन्हें किसी राजनीतिक दल में शामिल होने से मना किया जाता है और यदि वे ऐसा करते हैं, तो वे विधायिका में अपनी सदस्यता भी खो सकते हैं। लेकिन दलबदल विरोधी कानून तब लागू नहीं होता है जब किसी राजनीतिक दल को छोड़ने वाले विधायकों की संख्या विधायिका में पार्टी की ताकत का दो तिहाई हो। ये विधायक किसी अन्य पार्टी में विलय कर सकते हैं अथवा विधायिका में एक अलग समूह बन सकते हैं।
महाराष्ट्र में मौजूदा हालात में दो तिहाई का नियम कैसे काम करेगा इस पर विचार आवश्यक है। समाचार रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि वे बहुसंख्यक विधायक एकनाथ शिंदे के साथ हैं। लेकिन यह महाराष्ट्र विधानसभा में शिवसेना के 55 विधायकों के दो-तिहाई है अथवा नहीं, यह प्रश्न अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। इसलिए, शिंदे और उनके समूह को दलबदल विरोधी कानून के तहत सुरक्षा उपलब्ध होगी अथवा नहीं, इसी प्रश्न का उत्तर उनकी सफलता अथवा असफलता को निर्धारित करेगा। विधानसभा अध्यक्ष (वर्तमान में उपाध्यक्ष) यह तय करेगा कि जिन विधायकों ने शिवसेना पार्टी या एक समूह छोड़ा है या वह पार्टी का दो-तिहाई हिस्सा है अथवा नहीं।
महाराष्ट्र राजनीतिक में इस अस्थिरता के कारण राज्यपाल की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। 1994 से पहले अलग-अलग राज्यों राज्यपालों ने राज्य सरकार को यह आरोप लगाते हुए बर्खास्त कर दिया गया था कि उसके पास विधायिका में बहुमत नहीं है और वे राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश करते हैं। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने 1994 में एस.आर.बोम्मई मामले में अपने फैसले में इस व्यवस्था को असंवैधानिक ठहराया। इस ऐतिहासिक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि सरकार ने अपना बहुमत खो दिया है या नहीं, यह विधानसभा में ही तय होगा। महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोष्यारी मुख्यमंत्री उद्वव ठाकरे से विधानसभा बुलाने और सदन के पटल पर बहुमत साबित करने के लिए कह सकते हैं। यह चर्चा भी हो रही है कि क्या महाराष्ट्र में आए इस राजनीतिक संकट में राज्यपाल की रिपोर्ट पर केन्द्र सरकार विधानसभा को भंग कर सकती है अथवा नहीं। किसी राज्य का मुख्यमंत्री राज्यपाल को उसके पांच साल के कार्यकाल के अंत से पहले विधायिका को भंग करने और चुनाव के लिए बुलाने की सिफारिश कर सकता है। यहां राज्यपाल का विवेक काम आता है। राज्यपाल विधायिका को भंग करने अथवा नहीं करने का विकल्प चुन सकता है।
हाल ही में उपराष्ट्रपति ने कहा कि देश में मौजूद दलबदल विरोधी कानून में व्याप्त कमियों को दूर करने के लिये इसमें संशोधन करने का समय आ गया है। इस संबंध में दलबदल कानून और इसके प्रावधानों पर हमें विचार करना होगा। दलबदल विरोधी कानून संसद/विधानसभा सदस्यों को एक पार्टी से दूसरी पार्टी में शामिल होने पर दंडित करता है। संसद ने इसे 1985 में दसवीं अनुसूची के रूप में संविधान में जोड़ा है। इसका उद्देश्य दल बदलने वाले विधायकों को हतोत्साहित कर सरकारों में स्थिरता लाना था। दसवीं अनुसूची जिसे दलबदल विरोधी अधिनियम के रूप में जाना जाता है, को 52वें संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से संविधान में शामिल किया गया था। यह किसी अन्य राजनीतिक दल में दलबदल के आधार पर निर्वाचित सदस्यों की अयोग्यता के लिये प्रावधान निर्धारित करता है। हालांकि यह सांसद/विधायकों के एक समूह को दलबदल के लिये दंड के बिना किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल होने (अर्थात विलय) की अनुमति देता है। इस प्रकार यह दलबदल करने वाले विधायकों को प्रोत्साहित करने या स्वीकार करने के लिये राजनीतिक दलों को दंडित नहीं करता है। 1985 के अधिनियम के अनुसार एक राजनीतिक दल के निर्वाचित सदस्यों के एक-तिहाई सदस्यों द्वारा दलबदल को विलय माना जाता था।
91 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 के अनुसार दलबदल विरोधी कानून में एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में या उसके साथ विलय करने की अनुमति दी गई है, बशर्तें कि उसके कम-से-कम दो-तिहाई सदस्य विलय के पक्ष में हो। इस कानून के तहत एक बार अयोग्य सदस्य उसी सदन की किसी सीट पर किसी भी राजनीतिक दल से चुनाव लड़ सकते हैं। दलबदल के आधार पर अयोग्यता संबंधी प्रश्नों पर निर्णय के लिये मामले को सदन के सभापति या अध्यक्ष के पास भेजा जाता है, जो कि न्यायिक समीक्षा के अधीन होता है। हालांकि कानून कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं करता है, जिसके भीतर पीठासीन अधिकारी को दलबदल के मामले का फैसला करना होता है। यह कानून अयोग्यता का आधार भी वर्णित करता है। इसके अनुसार यदि एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता को छोड़ देता है तो उसकी सदस्यता समाप्त मानी जाएगी। इसके अलावा यदि वह पूर्व अनुमति प्राप्त किये बिना अपने राजनीतिक दल या ऐसा करने के लिये अधिकृत किसी व्यक्ति द्वारा जारी किसी भी निर्देश के विपरित सदन में मतदान करता है या मतदान से दूर रहता है तो भी उसकी सदस्यता समाप्त मानी जाएगी। यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है तो भी सदस्यता समाप्त मानी जाएगी। यदि छह महीने की समाप्ति के बाद कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है तो भी सदस्यता समाप्त मानी जाएगी।
दलबदल विरोधी कानून से संबंधित सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि यह प्रतिनिधि और संसदीय लोकतंत्र को कमजोर करता है। दलबदल विरोधी कानून के लागू होने के पश्चात सांसद या विधायक को पार्टी के निर्देशों का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए। यह कानून विधायकों को किसी भी मुद्दे पर अपने निणर्य के अनुरूप वोद देने की स्वतंत्रता नहीं देता है जिससे प्रतिनिधि लोकतंत्र कमजोर होता है। ऐसे समय निश्चित ही अध्यक्ष की विवादास्पद भूमिका महत्वपूर्ण होती है। उसकी भूमिका विवादास्पद भी होती है। क्योंकि दलबदल विरोधी मामलों में सदन के अध्यक्ष या स्पीकर की कार्रवाई की समय सीमा से संबंधित कानून में कोई स्पष्टता नहीं है। साथ ही कुछ मामलों में छह महीने और कुछ में तीन वर्ष भी लग जाते हैं। कुछ ऐसे मामले भी हैं जो अवधि समाप्त होने के बाद निपटाए जाते हैं। इसका एकमात्र कारण अध्यक्ष का अपनी पार्टी विशेष के प्रति लगाव ही होता है। यह महत्वपूर्ण है कि कानून विभाजन को कोई मान्यता नहीं देता है। 91 वें संवैधानिक संशोधन 2004 के कारण दलबदल विरोधी कानून ने दलबदल विरोधी शासन को एक अपवाद बनाया। यह महत्वपूर्ण है कि यह संशोधन किसी पार्टी में विभाजन को मान्यता नहीं देता है बल्कि इसके स्थान पर विलय को मान्यता देता है। यह नैतिक रूप से पार्टी के विधायकों द्वारा दलबदल अथवा विभाजन स्पष्ट रूप से चुनावी जनादेश का उल्लंघन माना जाना चाहिए। (सप्रेस)
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