देश-प्रदेश के अलग-अलग शहरों की पटाखा फैक्ट्री मजदूरों की मौत का सिलसिला लगातार चलता रहता है। शासन की ओर से ऐसी घटनाओं को बचाव के लिए नीति नियम निर्देश भी लगातार जारी किए जाते हैं। इसके बाद भी मौतें होती रहती हैं। हादसे रुकते नहीं हैं। ऐसे में सवाल यह है कि बार-बार होने वाले इस इन हादसों की रोकथाम के लिए जिम्मेदारी किसकी और कब तय होगी?
आप पिछले 1 साल के पन्ने पलट लीजिए । साल भर में एक दो बार देश-प्रदेश कहीं ना कहीं आपको नीचे लिखी घटनाएं जरूर पढ़ने- सुनने को मिल जाएंगी। “जहरीली शराब से मौत” “बोरवेल में गिरने से बच्चे की मौत ” ” पटाखा फैक्ट्री में विस्फोट से कई लोगों की मौत” इस तरह की घटनाएं अक्सर समाचार पत्रों, टी वी चैनलों में पढ़ने-सुनने-देखने को मिलती रहती है ।
क्या आप बता सकते हैं कि जहरीली शराब से मरने वालों, बोरवेल में गिरने वालों, पटाखा फैक्ट्री के विस्फोट में अपनी जान गंवा देने वालों के बीच क्या समानता है ? आप इन घटनाओं पर ध्यान दीजिए, गौर कीजिएगा। इन सभी घटनाओं में जिनकी मौत हुई वे सभी निर्धन, गरीब, मजदूर वर्ग से हैं। ऐसी घटनाओं में करने वाले कमजोर वर्ग के लोग ही क्यों होते हैं ?
जब इस तरह की घटनाएं हो जाती हैं। तो प्रशासन की नींद खुलती है। बड़े-बड़े नेता और अधिकारी घटनास्थल की तरफ दौड़ पड़ते हैं। घटनास्थल के दौरे, जांच, बड़े नेताओं अफसरों के बयान, पक्ष – विपक्ष के आरोप, शोक संदेश, मुआवजे की घोषणा, घायलों को राहत के इंतजाम संबंधी बयान, घटना के लिए जांच समिति का गठन, दो चार कर्मचारियों को कारण बताओं नोटिस, और फिर छोटे-छोटे कर्मचारियों का निलंबन । इसके बाद कुछ नहीं करना।
मान लीजिए कि बस हो गई घटना की सारी खानापूर्ति। फिर होता यह है कि लोग ऐसी घटनाओं को धीरे-धीरे भूलने लगते हैं। सरकारी दफ्तरों से लेकर राजनीति के गलियारों तक सब कुछ धीरे-धीरे सामान्य होने लगता है । प्रशासन, अधिकारी, कर्मचारी वापस अपने दफ्तरों में इस तरह काम करने लगते हैं, जैसी उनकी आदत बनी है। घटना के बाद जो बचाव संबंधी निर्देश, नीति – नियम बनाने की बातें कही गई थी, वह सब फाइलों के देर में कहीं खो जाती हैं। इस तरह के मामले ठंडे बस्ते में चले जाते हैं।
अफसोस है कि कुछ महीनो बाद फिर कहीं ना कहीं ऐसी एक घटना फिर हो जाती है। जैसा कि हाल ही में मध्य प्रदेश के हरदा जिले में हुआ। वहां पटाखा फैक्ट्री में जो विस्फोट हुआ उसने 12 से ज्यादा लोगों की जान ले ली।
मध्यप्रदेश में ऐसा हादसा पहली बार नहीं हुआ है। इसके पहले 15 दिसंबर 2015 को झाबुआ जिले के पेटलावद में पटाखा विस्फोट के कारण 105 लोगों की मौत हो गई । इस मामले में जो जांच रिपोर्ट सामने आना थी, वह 9 साल बाद भी सार्वजनिक नहीं हो पाई । इसी तरह 18 अप्रैल 2017 को इंदौर के रानीपुरा बाजार में पटाखा बाजार में आग लगने से 7 लोग मारे गए । 20 अक्टूबर 2022 को मुरैना में पटाखा फैक्ट्री में विस्फोट में 4 लोगों की मौत हो गई। 21 अक्टूबर 2023 को दमोह की फटाका फैक्ट्री में विस्फोट से 6 लोग मारे गए ।
देश प्रदेश के अलग-अलग शहरों की पटाखा फैक्ट्री मजदूरों की मौत का सिलसिला लगातार चलता रहता है। शासन की ओर से ऐसी घटनाओं को बचाव के लिए नीति नियम निर्देश भी लगातार जारी किए जाते हैं। इसके बाद भी मौतें होती रहती हैं। हादसे रुकते नहीं हैं। ऐसे में सवाल यह है कि बार-बार होने वाले इस इन हादसों की रोकथाम के लिए जिम्मेदारी किसकी और कब तय होगी? जिन अधिकारियों कर्मचारियों पर नियमित निरीक्षण, नियमों के पालन की देखभाल संबंधी जिम्मेदारी है क्या वे अपनी जिम्मेदारी को अच्छी तरह से निभा रहे हैं? यदि ऐसा हो सके तो हादसे रोके जा सकते हैं। जिला और तहसील स्तर पर अधिकारी, कर्मचारियों को निरीक्षण करने और नियमों का सख्ती से पालन करवाने के लिए वरिष्ठ अधिकारियों को भी सख्त होना होगा।
राज्य मंत्रालय अधिकारी अपने वातानुकूलित चैंबर से निकलकर यदि समय-समय पर ऐसी संस्थाओं का, खतरनाक कारखाने का निरीक्षण करें तो हादसों पर जरूर रोक लगेगी । अब तक केवल गरीबों की ही मौत ऐसी घटनाओं में होती रही है इसलिए अधिकारी आकस्मिक निरीक्षण को लेकर गम्भीर नहीं है। शासन प्रशासन नियमों का सख्ती से पालन करवाने पर ध्यान नहीं देता । हादसे में यदि मौत हो जाती है तो मुआवजा देकर उसकी भरपाई करने का प्रयास होता है और यह माना जाता है कि सरकार ने अफसर ने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली। हाल ही में हरदा में जो पटाखा फैक्ट्री में विस्फोट की घटना हुई उसमें भी मृतकों को मुआवजा दिए जाने, घायलों का उपचार किए जाने, कुछ कर्मचारियों को निलंबित किए जाने के बाद ऐसा लगता है कि यह हादसा भी आने वाले दिनों में भुला दिया जाएगा । ऐसे कारखानों की सख्ती से निगरानी के दावे फाइलों में ही दबे रहेंगे।
यदि ऐसा ही चलता रहा तो निर्धन, कमजोर वर्ग के लोगों के साथ होने वाली ऐसी आकस्मिक घटनाओं को रोकना बहुत मुश्किल होगा । इसके लिए प्रशासन में जिस मजबूत इच्छा शक्ति की जरूरत है वह फिलहाल नजर नहीं आ रही है। यदि हादसे के बाद कारखानों में तालाबंदी से केवल मजदूर की रोजी रोटी बंद होगी जबकि बंद तो अव्यवस्था और सरकारी लापरवाही को होना चाहिए। (सप्रेस)
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