प्रशांत कुमार दुबे

पिछले कुछ दशकों से बच्चों के हित में राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक समझौते होते रहे हैं, लेकिन, ऐसे कई समझौतों की तरह उनका भी पालन नहीं हुआ है। करीब 33 साल पहले हुआ ‘अन्तर्राष्ट्रीय बाल अधिकार समझौता’ ऐसा ही एक समझौता है जिसमें बच्चों के हक में बातें तो बेहद जरूरी की गई हैं, लेकिन उनका क्रियान्वयन आज भी दूर की कौडी ही लगता है। क्या हैं, इस समझौते की मौजूदा हालत?

‘अन्तर्राष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते’ के तीन दशक पूरे होने पर भोपाल में “सेव द चिल्ड्रन” और ‘निवसिड’ द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित एक समीक्षा बैठक में बाल अधिकारों को समझने का एक मौका मिला था। दुनिया भर के बच्चों की स्थिति को ध्यान में रखते हुए लगभग सभी राष्ट्राध्यक्षों ने चिंता जाहिर की थी और बाल अधिकारों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर परिभाषित करते हुए 20 नवम्बर 1989 को ‘अन्तर्राष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते’ की नींव रखी थी। भारत ने 11 दिसम्बर 1992 को इस समझौते को अंगीकार किया था।   

ऐसा नहीं है कि इस समझौते के पहले हमारे देश में बच्चों की परवाह नहीं थी। हमारे संविधान में बच्चों के संरक्षण के संदर्भ में बहुत स्पष्ट प्रावधान हैं, लेकिन बच्चों को स्वतंत्र इकाई के रूप में परिभाषित करने और उनके मुद्दों को व्यापकता से इस समझौते ने ही देखा। समझौते में चार प्रमुख अधिकारों के इर्द-गिर्द बच्चों के मुद्दों को तरजीह देने की कोशिश की गई है।

यह समझौता सबसे पहले तो एक बच्चे को व्यक्ति के रूप में देखने का जतन करता है। इसके अलावा इस समझौते में बच्चे के जीवन, विकास, संरक्षण और सहभागिता के अधिकारों को सुपरिभाषित किया गया है। समझौते में बच्चों को स्वतंत्र इकाई के रूप में परिभाषित करने के अलावा उनके मुद्दों को व्यापकता से देखा गया है। भारत सहित दुनिया के सभी देशों ने इस समझौते में अपने बच्चों से वायदे किये कि वे उन्हें सुरक्षित वातावरण देंगे।

इस समझौते के तीन दशक पूरे होने पर हमें समझौते के क्रियान्यन पर ईमानदार विश्लेषण करने की आवश्यकता है। हमें इस मौके पर जश्न मनाने की आवश्यकता तो है क्योंकि इस समझौते के बहाने ही दुनिया भर में बच्चों के मुद्दों की बहस और बलवती हुई है, लेकिन हम यहाँ यह नहीं भूलें कि इस समझौते के तीस साल बाद भी बच्चों की स्थिति में वह बदलाव नहीं कर पाए हैं, जो अभी तक होना चाहिए था।

बच्चों से किए गए अपने वायदे में हमने बच्चों के सन्दर्भ में कुछ कानून तो बनाए हैं, नीतियाँ भी बनी हैं, इन सबसे बढ़कर हम बच्चों को स्वतंत्र इकाई के रूप में देखने भी लगे हैं। शहरी समूहों की पहल और दवाब के चलते ऐसे कई प्रयास हुए हैं जिन्होंने बच्चों की बेहतरी में सार्थक योगदान दिया है। इन समूहों ने देश में कई सवाल भी खड़े किये हैं, ताकि बच्चों के सर्वोत्तम हित में सरकार पहले से ज्यादा पहल करे और बच्चों के हक बुलंद हों।  

यदि हम कुछ ठोस आंकड़ों के साथ देश में बच्चों की स्थिति को देखें तो यह अभी उतनी अच्छी नहीं दिखती। भारत में हर साल लगभग 15 लाख शिशु अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते। आज भी माताओं को प्रसव पूर्व मिलने वाली तीन जांचों का प्रतिशत हम 70 के पार नहीं पहुंचा पाए हैं। आज भी सभी बच्चों का टीकाकरण सुनिश्चित नहीं हो सका है। देश में 6 वर्ष से कम उम्र के 30 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं।

‘शिक्षा का अधिकार कानून’ (2009) आने के बाद भी आज लाखों बच्चे स्कूल की परिधि से दूर हैं और ‘कोविड’ ने उस स्थिति को और खराब ही किया है। देश के लगभग आधे विद्यालयों में बच्चों को शौचालय और साफ़ पेयजल उपलब्ध नहीं है। पोषण की कमी के कारण बच्चे विद्यालयों में ध्यान नहीं लगा पाते और स्कूल छोड़ देते हैं। शिक्षा के लिए 6 फीसदी बजट आजाद भारत का एक ख्वाब था, जो आज भी अधूरा है। जनसंख्या का 6 फीसदी दिव्यांग हैं, लेकिन हम उनमें से अधिकांश को स्कूलों तक लाने में विफल रहे हैं।

बच्चों के संरक्षण की स्थिति को देखें तो हमारे देश में बच्चों के खिलाफ अपराध में पिछले डेढ़ दशक के दौरान जबरदस्त तेजी देखने को मिली है और यह आंकड़ा 1.8 फीसदी से बढ़कर 28.9 फीसदी तक जा पहुंच गया है। इसी प्रकार बाल-लिंगानुपात की बात करें तो देश में 0-6 वर्ष आयु समूह के बाल लिंगानुपात में 1961 से लगातार गिरावट जारी है। वर्ष 2001 की जनगणना में जहां छह वर्ष की उम्र के बच्चों में प्रति एक हजार बालक पर बालिकाओं की संख्या 927 थी, वहीं 2011 की जनगणना में यह अनुपात कम हो कर 914 हो गया है। आज भारत में पूरी दुनिया के सबसे ज्यादा बाल श्रमिक हैं।  

भारत में गुमशुदा बच्चों की तादाद दिनों-दिन बढ़ रही है। ‘राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग’ के अनुसार हर साल देश में तकरीबन 44 हजार बच्चे गायब हो रहे हैं जिनमें से 11 हजार बच्चों का कोई पता नहीं चल पाता है। अधिकांश बच्चे व्यापार का शिकार हो रहे हैं। लाखों बच्चे सड़कों पर रह रहे हैं। हम अभी भी बालविवाह की काली छाया से नहीं उबर पाए हैं। हाल ही में आई एक रिपोर्ट के अनुसार अभी भी विश्व की एक तिहाई बालिका-वधू भारत में ही हैं। ‘केंद्रीय गृह मंत्रालय’ की रिपोर्ट की मानें तो देश के 16 राज्यों में ‘आंतरिक संघर्ष’ चल रहे हैं और इससे पीडि़त बच्चे बहुत ही कठिन परिस्थितियों में जी रहे हैं। बच्चे सशस्त्र संघर्षों में खपाए जा रहे हैं।

‘संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौता’ कहता है कि बच्चों से जुड़े हर मामलों में उनकी राय ली जाना बहुत जरुरी है। इसके विपरीत देश में बन रही नीतियों व नियमों में बच्चों की सहभागिता सुनिश्चित नहीं की जाती। बच्चों को अपनी बात कहने और उनकी बात सुनने के लिए कोई मंच नहीं है। हम आज तक स्कूलों या किसी भी सार्वजनिक स्थल पर बच्चों के लिए पोडियम तक नहीं बना पाए हैं। स्कूलों में बालसभाएं और बाल-कैबिनेट जैसे प्रयास इस दिशा में बहुत सार्थक पहल तो हैं, लेकिन वे क्रियान्वयन में उतनी कारगर नहीं हैं।  

बाल अधिकारों के इस तरह मखौल उड़ने और बच्चों को लगातार हाशिये पर रखे जाने के संदर्भ में लगता है कि बच्चों को अधिकार जरूर दिए गए हैं, लेकिन उन्हें पाने के रास्ते अभी सुनिश्चित नहीं हैं। सवाल नज़रिए का भी है और जब तक इन अधिकारों को सुनिश्चित करने वाली मशीनरी बच्चों के नजरिये से काम नहीं करेगी, जब तक इन अधिकारों को सुनिश्चित कराने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं होगी, तब तक बच्चे यूँ ही उपेक्षित होते रहेंगे। क्‍या आबादी के इतने बड़े हि‍स्‍से को केवल इसलि‍ए उपेक्षि‍त रखा जाएगा, क्‍योंकि‍ एक मतदाता के रूप में उनकी राजनीति‍क भागीदारी नहीं है?

जबसे सरकारों ने कल्याणकारी राज्य की प्राथमिकताओं और अपनी जिम्मेदारियों को आंकड़ों में तब्दील करके देखना शुरू किया है, ऐसा लगता है कि तबसे बच्चे और पिछड़ गए हैं। विकास के इस पूरे चक्र में बच्चे बहुत ही निचले पायदान पर हैं। तमाम छोटे-बड़े, ऊल-जलूल मुद्दों पर बहस-मुबाहिसे करने वाला मीडिया भी बच्चों के पक्ष में आवाज बुलंद करने में कोताही बरतता है। कई अखबार कहते हैं कि बच्चे हमारा ‘टीजी’ (टार्गेट ग्रूप) नहीं हैं। क्या यह जरुरी नहीं था कि कोई मीडिया इस दिन, इस गंभीर मुद्दे पर बहस छेड़ता?

भारत को अभी भी ‘संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौते’ के तहत किये गये वादों को पूरा करने के लिए लम्बा सफर तय करना बाकी है, हालांकि इस सफ़र में कई कानूनी, प्रशासनिक एवं वित्तीय बाधाएँ हैं, जिन्हें दूर करना होगा। मशहूर नोबल पुरस्कार विजेता ग्रेबल मिस्ट्राल ने कहा था कि “हम अनेक भूलों और गलतियों के दोषी हैं, लेकिन हमारा सबसे गंभीर अपराध है, बच्चों को उपेक्षित छोड़ देना, जो कि जीवन का आधार होते हैं।” देखना होगा कि अब भारत अपनी इस भूल-सुधार के लिए किस तरह से जतन कर सकता है? (सप्रेस)

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