चैक अनादरण पर प्रस्तुत होने वाले फौजदारी प्रकरण वर्तमान में चिंता का विषय है। इन प्रकरणों के निराकरण में लगने वाले समय में इस कानून के प्रावधानों को प्रभावहीन बना दिया है। दिवानी प्रकरणों में लगने वाले समय के समान ही इन प्रकरणों में भी समय लग रहा है। कुछ न्यायालय तो छः-छः माह की तारीखें सुनवााई हेतु नियत कर रहे हैं। हाल ही में इस कानून के तहत प्रस्तुत मामलें का निराकरण सतरह बरसों बाद हुआ है। देश में इस प्रकार के कई प्रकरण हो सकते हैं। इस कानून में तत्काल सुधार की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
इन्दौर में हाल ही में एक चैक अनादरण (बाउंस) के मामले में सतरह साल के बाद फैसला आया है। इस प्रकरण में कुल अस्सी पेशियों में मात्र दो गवाहों के बयान हुए। एक छोटी सी रकम के चैक अनादरण के लिए परिवादी को कितनी त्रासदी झेलनी पड़ी होगी इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इसमें परिवादी को सन् 2005 में चैक दिया गया था।
परक्राम्य लिखत अधिनियम (Negotiable Instruments Act) 1881 में चैक अनादरण के प्रकरणों के निराकरण हेतु यह कानून लाने का मूल मकसद यह था कि जिस व्यक्ति ने चैक दिया है वह, उसका सम्मान करें। साथ ही यह भी भावना रही कि चैक प्राप्तकर्ता अपने भुगतान के प्रति आश्वस्त रहे। कानून लागू होने के कुछ सालों तक यह विश्वास कायम रहा, लेकिन धीरे-धीरे न्यायालयों में लगने वाले समय, न्यायशुल्क, कानून में संशोधनों ने इस कानून को लाने की मूल भावना को ही समाप्त कर दिया है। इन प्रावधानों एवं प्रक्रिया में ही वे सब कमियां सम्मिलित हो गई जो दिवानी कानूनों में है।
इस बात पर आम सहमति है कि इस कानून को प्रभावी बनाए जाने की आवश्यकता है। चैक से संबंधित परिवाद में चैक देने वाले व्यक्ति पर कोर्ट के नोटिस की तामिली एक अत्यंत ही गंभीर समस्या है। इनके समंस पुलिस के मार्फत तामिल किए जाने होते हैं। स्वाभाविक रूप से तामिली पुलिस की इच्छा पर निर्भर होती है। चैक देने वाला व्यक्ति बड़ी ही आसानी से इन नोटिसों की तामिली को टालता रहता है। न्यायालय से जारी समंस एवं वारंट की तामिली रिपोर्ट पुलिस से नहीं आती है। जमानती वारंट तामिल नहीं हो पाते हैं। औसत रूप से न्यायालय इस हेतु कुछ अवसर प्रदान करता है। इन अवसरों के बाद न्यायालय द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 87 के प्रावधानों के अंतर्गत गिरफ्तारी वारंट जारी किया जाता है। इस प्रक्रिया में लगभग तीन वर्ष का समय लग जाता है। न्यायालयों की प्रक्रिया में लगने वाला समय कुछ कम/कुछ अधिक संभव है। प्रकरणों की अधिकता के कारण कुछ न्यायालय इस हेतु छः माह की तारीखें भी लगा रहे हैं। इसके अलावा प्रकरणों में गवाही में भी काफी समय लगता है। न्यायशुल्क भी एक बड़ी समस्या है। यह चैक प्राप्तकर्ता पर एक अनावश्यक भार है।
जिस प्रकार भाड़ा नियंत्रण कानून अप्रभावी सिद्ध हो रहा है, उसी प्रकार यह कानून भी आम जनता के मन में निराशा एवं हताशा का भाव उत्पन्न कर रहा है। चैक लेने वाले व्यक्ति के मन में यह धारणा उत्पन्न होती है कि कहीं उसने चैक स्वीकार कर कोई बड़ी गलती तो नहीं की। यही भावना आज इस कानून की सबसे बड़ी असफलता है। इस कानून का मूल मकसद ही चैक प्राप्तकर्ता को चैक की राशि शीघ्र दिलाना था।
इस कानून का मूल मकसद लेन-देन की प्रक्रिया को आसान बनाते हुए लोगों में विश्वास पैदा करना था। चैक के रूप में भुगतान का एक व्यापक माध्यम प्राप्त होता है। इस कानून का मकसद यह भी रहा कि चैक देने वाला व्यक्ति कानून का दुरूपयोग न करें। चैक से संबंधित कानून की धारा 13 (1) भुगतान के विभिन्न माध्यमों और तरीकों को बताती है। चैक, विनिमय बिल, वचन पत्र आदि का इसमें उल्लेख है। इस कानून का मूल मकसद इनके उपयोग को सुरक्षित रखता था। चैक के रूप में भुगतान का एक व्यापक माध्यम है। आगे की तारीखों पर किए जाने वाले भुगतान के लिए पोस्ट डेटेड चैक भी है। चैक के रूप में भुगतान के तरीके का सम्मान करना इस कानून की धारा 138 को लाने का मूल कारण है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में धारा 138 का उद्देश्य बैंकों के कामकाज की दक्षता बढ़ाने और चैक के माध्यम से व्यावसायिक लेने-देन में विश्वसनीयता को स्थापित करने के लिए एक माध्यम बताया है। यह कानून के माध्यम से नागरिक दायित्व के मामले में न्यायालय का हस्तक्षेप है। इस कानून में चैक की निर्धारित राशिका दोगुना जुर्माना वसूलने एवं 2 साल की सजा का प्रावधान भी है। इस कानून में प्रस्तुत प्रकरणों को मूलतः फौजदारी प्रकरण माना जाता है लेकिन इन कानूनों में प्रस्तुत प्रकरण अन्य आपराधिक अपराधों से अलग है। इसलिए इन्हें अलग तरीकों से तेजी से चलाए जाने को प्राथमिकता दी जाना आवश्यक है। दुर्भाग्य से यही नहीं हो पा रहा है।
यह सही है कि, इस अधिनियम की धारा 138 भुगतान की चूक के लिए कठोर दायित्व लागू करती है। इसलिए चैक के मामले में अधिनियम के प्रावधान एक आवश्यक हथियार है। सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के अनुसार चार्ज लगने के बाद चैक देने वाले व्यक्ति को साक्ष्य के पहले चैक की रकम की 20 प्रतिशत राशि परिवादी को दिए जाने का आदेश न्यायालय कर सकती है। लेकिन दुर्भाग्य से अधिकांश न्यायालय द्वारा इस प्रकार के आदेश नहीं किए जा रहे हैं। इस कारण चैक प्राप्त करने वाले व्यक्ति को लंबा इंतजार करना पड़ता है।
आज इस कानून में अनेक महत्वपूर्ण सुधार किए जाना एक महती आवश्यक है। चैक अनादरण के मामले कम से कम छः माह एवं अधिकतम एक वर्ष में अनिवार्य रूप से निपटाए जाना आवश्यक है। इस समयावधि का न्यायालय द्वारा कठोरता से पालन किया जाना चाहिए। पेशी तारीखे इसी समयावधि के हिसाब से दी जाना अनिवार्य की जाना चाहिए। इन प्रकरणों में न्यायालय द्वारा पहले अभियुक्त को समंस भेजा जाता है। समंस की तामिली होने पर भी उपस्थित न होने पर वारंट जाता है। जमानती वारंट तामिल होने पर भी उपस्थित न होने पर गिरफ्तारी वारंट जारी किया जाता है। इस प्रक्रिया को संक्षिप्त किया जाना चाहिए।
इस कानून में प्रकरण (परिवाद) प्रस्तुत करने के पूर्व चैक प्राप्तकर्ता द्वारा विधिक नोटिस दिया जाता है। इससे चैक देने वाले व्यक्ति को यह जानकारी प्राप्त हो जाती है कि उसके द्वारा दिया गया चैक अनादरित हो चुका है तथा चैक राशि नियत अवधि में भुगतान न करने की दशा में उसके विरूद्ध परिवाद प्रस्तुत हो सकती है। इस कारण अभियुक्त के विरूद्ध समंस की जगह सीधे ही जमानती वारंट और न आने पर गिरफ्तारी वारंट जारी किया जाना चाहिए। साथ ही पुलिस पर इस बात का दबाव होना चाहिए कि वह समंस वारंट की तामिली बगैर किसी विलंब के करें। इससे समय की बचत हो सकेगी। न्यायालय को भी पेशी तारीखें यथासंभव जल्दी की दी जानी चाहिए। साथ ही न्यायशुल्क भी समाप्त होना चाहिए। अभी मध्यप्रदेश में इन प्रकरणों पर लगने वाला शुल्क सर्वाधिक है। पूर्व में मात्र दस रूपये के आवेदन पर प्रकरण प्रस्तुत किया जा सकता था।
इसमें संदेह नहीं है कि परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1981 की धारा 138 उन लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण हथियार है जो भुगतान के लिए दिए गए अपने चैकों का सम्मान नहीं करते हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि इस कानून को और अधिक प्रभावी बनाया जाए ताकि लोगों का विश्वास इन प्रावधानों पर पुनः स्थापित हो सके।
ऐसा भी नहीं है कि सरकार को इस स्थिति की जानकारी न हो। चैक अनादरण के मामलों में लगने वाले समय और सजा के संबंध में इस कानून में संशोधन की आवश्यकता को सरकार भी महसूस कर रही है। इस हेतु सन् 2021 में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने मुंबई उच्च न्यायालय न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर.सी. च्वहाण की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया है जो इस पर विचार करेगी कि चैकों के प्रकरण का निराकरण इन प्रावधानों के अंतर्गत किस प्रकार किया जा सके। आज आवश्यकता इस बात की है समिति शीघ्रता से अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करें, ताकि इस संबंध में तेजी से कदम उठाए जा सके।
[block rendering halted]