बच्चों के विरूद्ध अपराधों के मामलों में कानूनी प्रावधान अत्यावश्याक है। लेकिन कानून के साथ ही सामाजिक जागरूकता भी अत्यावश्यक है। इसे कानून के साथ ही सामाजिक समस्या अधिक माना जाना चाहिए। इस हेतु सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता है जिससे समाज में जागरूकता आए तथा बच्चों के विरूद्ध अपराधों में कमी आ सके। सामाजिक संस्थाओं को इस दिशा में पहल करना होगी।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देशों के अंतर्गत अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के संबंध में कुछ सिफारिशें प्रदान की गयी हैं। क्योंकि ये यौन शोषण से पीड़ित व्यक्तियों के संपर्क में सबसे पहले आते हैं। इसके अतिरिक्त ये ही सर्वप्रथम निदान एवं उपचार के दौरान यौन शोषण की पहचान कर सकते हैं। ये सिफारिश बच्चे द्वारा किए गए प्रकटीकरण, चिकित्सा रिकॉर्ड प्राप्त करने एवं शारीरिक परीक्षणों तथा फोरेंसिक जांच से संबंधित हैं। एचआईवी के संक्रमण की जानकारी होने पर निवारक उपचार की प्रस्तुति एवं गर्भावस्था की रोकथाम भी सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त ये अनुशंसाएं यौन संचारित रोगों तथा मनोवैज्ञानिक एवं मानसिक स्वास्थ्य मध्यस्थता के संदर्भ में भी दिशा-निर्देश प्रस्तुत करती हैं। इनके अंतर्गत यह रेखांकित किया गया है कि बाल यौन-शोषण के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य पर अल्पावधिक तथा दीर्घावधिक प्रभाव पड़ते हैं। ये दिशा-निर्देश इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं ताकि परीक्षण के दौरान की जाने वाली ऐसी विभिन्न त्रुटियों में कमी लायी जा सके जिनसे पीड़ित को पुनः मानसिक आघात पहुंचता है। इन दिशा-निर्देशों में बाल दुराचार पुनरावृत्ति को रोकने से संबंधित अनुशंसाएं भी प्रदान की गयी हैं।
इन दिशा-निर्देशों के माध्यम से उन भावनात्मक और अन्य पहलुओं पर विचार किया गया है जिन पर सामान्यतः देश में लागू विभिन्न कानूनों में ध्यान नहीं दिया गया है। इन दिशा-निर्देशों का मूल मानवाधिकार मानकों और नैतिक सिद्धांतों में निहित है। इसके द्वारा विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्य राज्यों से यह अपेक्षा की गई है कि वे बच्चों और किशोरों के स्वास्थ्य तथा कल्याण में सहयोग करेंगे। इसके अतिरिक्त सदस्य देशों से यह भी अपेक्षित है कि वे महिलाओं एवं बालिकाओं तथा बच्चों के विरूद्ध हिंसा के प्रति स्वास्थ्य प्रणालियों की प्रतिक्रिया को सुदृढ़ किए जाने हेतु मई 2016 में विश्व स्वास्थ्य सभा द्वारा समर्थित वैश्विक कार्य योजना का अनुपालन करेंगे।
संसद द्वारा आपराधिक कानून (संशोधन) विधेयक, 2018 भी पारित किया गया है। यह विधेयक जो 12 वर्ष से कम आयु की बालिकाओं के बलात्कार के दोषी व्यक्तियों के लिए कठोर दंड सुनिश्चित करता है। इस अधिनियम के प्रावधानों के द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 376 में संशोधन किया गया है। इस संशोधित प्रावधान में बलात्कार की न्युनतम सजा 7 से बढ़ाकर 10 वर्ष की गई है। धारा 376 (3) को शामिल किया गया है जिसमें प्रावधान किया गया है कि 16 वर्ष से कम आयु की बालिका से बलात्कार के लिए सजा 20 वर्ष से कम नहीं हो सकती है। इसे आजीवन कारावास तक भी बढ़ाया जा सकता है।
धारा 376 AB को अंतःस्थापित किया गया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि 12 वर्ष से कम आयु की बालिकाओं से बलात्कार करने वाले को कठोर कारावास और अर्थदंड या मृत्यु दंड से दंडित किया जा सके। इसके अलावा भी अनेक कठोर प्रावधान जोडे़ गए हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो को कहा गया है कि वह यौन उत्पीड़िकों का एक राष्ट्रीय डाटाबेस और प्रोफाइल बनाए। इसके अलावा ट्रैकिंग, निगरानी तथा जांच के लिए इन्हें राज्यों और संघ शासित प्रदेशों के साथ साझा करेगा। पीड़ितों की सहायता के लिए ‘‘वन स्टॉप सेंटर‘‘ नामक वर्तमान योजना को देश के प्रत्येक जिले तक विस्तृत किया गया है। वर्तमान समय में विभिन्न कानून और अधिनियम विद्यमान हैं जो उपर्युक्त मामलों में कठोर सजा का प्रावधान करते हैं। हालांकि वर्तमान मौजूदा कानूनों को उचित तरीके से क्रियान्वित किया जाना आवष्यक है। बाल अपराधों के प्रति हमें संवेदनशील होना होगा।
भारतीय संविधान में सभी 6-14 आयु वर्ष के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने के साथ ही खतरनाक व्यवसायों में उनके नियोजन को प्रतिबंधित किया गया है। इसके अतिरिक्त संविधान में बच्चों को शोषण से बचाने वाली नीतियों को भी बढ़ावा दिया गया है। बच्चों को रोजगार में इसलिए नियोजित किया जाता है क्योंकि वे नियोक्ता की मांगों के अनुसार सस्ते पारिश्रमिक पर आसानी से सुलभ होते हैं तथा अपने अधिकारों से भी परिचित नहीं होते हैं। ये बच्चे जिन जोखिमों का सामना करते हैं उनका उनके विकास, स्वास्थ्य और कल्याण पर अपरिवर्तनीय शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और नैतिक प्रभाव पड़ सकता है।
बाल श्रमिकों के मामलों में यह एक चौंकाने वाला तथ्य है कि पचास प्रतिशत बाल श्रमिक पांच राज्यों बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में मौजूद हैं। उत्तरप्रदेश में इनका अनुपात बीस प्रतिशत से अधिक है। भारत में बाल श्रम कानूनों में बाल श्रम (निषेध और विनियमन) संशोधन अधिनियम, 2016 मुख्य है। हमारे यहां बाल श्रम पर सन् 1987 की राष्ट्रीय नीति है जो इस प्रकार के बच्चों (मुक्त कराये गये) के पुनर्वास पर केंद्रित हैं। किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2015 तथा भारत ने हाल ही में बाल श्रम पर दो अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन अभिसमयों की पुष्टि की है। बाल श्रम (निषेध और विनियमन) संशोधन अधिनियम, 2016 भी हमारे यहां है। यह बाल श्रम (निषेध और विनियमन) संशोधन अधिनिय, 1986 में संशोधन करता है। यह सभी क्षेत्रों में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों के रोजगार पर प्रतिबंध लगाता है। साथ ही यह 14-18 साल की आयु के किशोरों का खतरनाक व्यवसायों में नियोजन प्रतिबंधित भी करता है। साथ ही उल्लंघन करने वालों के लिए अत्यधिक कड़े कारावास एवं जुर्माने का प्रावधान भी करता हैं, इसमें छः महीने से दो वर्ष तक का कारावास और पचास हजार रूपये तक का जुर्माना सम्मिलित है। इसके अलावा भारत में बच्चों को उच्च माध्यमिक स्तर में शामिल करने के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार में संशोधन किया गया है। साथ ही लैंगिक समानता को विद्यालय प्रणाली का प्राथमिक लक्ष्य बनाने तथा गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों के लिए निःशुल्क माध्यमिक शिक्षा उपलब्ध कराना भी इसका उद्देश्य है।
राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना भी श्रम मंत्रालय की एक परियोजना है जिसका उद्देश्य बाल श्रम से मुक्त कराए गए बच्चों को पर्याप्त रूप से पुनर्वास करना है। जिससे पहचाने गए प्रमुख क्षेत्रों (जहां बाल श्रम अधिक है) में बाल श्रम की घटनाओं को कम किया जा सके। भारत जैसे देश में बाल श्रम समाप्त करना आवश्यक है। बाल श्रम को समाप्त करने के कई सकारात्मक परिणाम होंगे जैसे विद्यालय छोड़ने की दर में कमी, आर्थिक गतिविधियों के कारण बच्चों पर पड़ने वाले तनाम में कमी, सुरक्षित बचपन तथा खेलने के अधिकार की प्राप्ति आदि। लेकिन बच्चों के खिलाफ शोषण को खत्म करने में सफलता अंततः सामाजिक समानुभूति, राजनीतिक इच्छाशक्ति और बच्चों के विकास एवं संरक्षण में निवेश किए गए संसाधनों के कार्यान्वयन के स्तर पर निर्भर करती है। इस समस्या को केवल तभी हल किया जा सकता है जब बच्चों के शोषण को बढ़ावा देने वाले कारणों जैसे गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक सुरक्षा कवरेज की कमी, कानून के अपर्याप्त प्रवर्तन आदि में सुधार किया जाए। यह संतोष की बात है कि वर्ष 2001-2011 के मध्य बाल श्रमिकों की संख्या में 65 प्रतिशत की कमी आई है। यह मुख्य रूप से मनरेगा, मिड डे मील स्कीम जैसे कार्यक्रमों के कारण है। इसलिए यह आवश्यक है कि बाल श्रम की समस्या को पुनर्वास, समग्र विकास तथा देश में इस संबंध में माहोल बनाकर ही समाप्त किया जा सकता है। मात्र कानून बनाकर इस समस्या के समाधान संभव नहीं है। यदि कानूनों से इस प्रकार के सुधार संभव होते तो देश में अब तक सभी समस्याऐं हल हो चुकी होती। (सप्रेस)
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