
दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल में किशोरों के प्रेम करने के नैसर्गिक अधिकार की तरफदारी करते हुए एक बेहद जरूरी और सामयिक बहस छेड़ दी है। अब एक तरफ बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए 13 साल पहले बनाया गया ‘पॉक्सो’ कानून है और दूसरी तरफ प्रेम करने की उम्र में पहुंचते किशोर। क्या पेचीदगियां होंगी, इसमें? और इनसे कैसे निपटा जाना चाहिए?
लैंगिक शोषण से बच्चों को बचाने के लिए बना ‘पॉक्सो कानून’ (‘यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम-2012’) आज एक नई बहस के केंद्र में है। यह कानून 18 वर्ष से कम आयु के सभी व्यक्तियों को ‘बच्चा’ मानते हुए उनकी सहमति को अस्वीकार कर देता है, जिससे किशोरों के आपसी सहमति से बने प्रेम संबंध भी अपराध की श्रेणी में आ जाते हैं। हाल ही में विभिन्न न्यायालयों ने इस सवाल को फिर से जीवंत कर दिया है कि क्या यह कानून अपने मूल उद्देश्य से भटककर किशोरों के प्राकृतिक संबंधों को अपराधी बना रहा है? क्या इसमें बदलाव की आवश्यकता है या वर्तमान स्वरूप ही उचित है?
हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने ‘पॉक्सो कानून’ से जुड़े एक मामले में फैसला सुनाते हुए कहा है कि किशोर प्रेम से जुड़े आपराधिक मामलों में न्यायालय को सहानुभूति-पूर्वक निर्णय लेने की आवश्यकता है। न्यायालय ने कहा कि ऐसे संबंधों को समझने और स्वीकारने की आवश्यकता है जो बिना किसी दबाव के सहमति से बने हों, खासकर जब दोनों पक्ष 18 वर्ष से कम उम्र के हों। इसके साथ ही न्यायालय ने यह भी कहा कि प्रेम एक मौलिक अनुभव है और किशोरों को भावनात्मक संबंध बनाने का अधिकार है। ऐसे में किशोरों को यह स्वतंत्रता मिलनी चाहिए कि वे बिना इस डर के प्रेम संबंधों में भाग लें कि कानून उन्हें अपराधी बना देगा।
यह दृष्टिकोण इस महत्वपूर्ण सवाल को सामने लाता है कि समाज और कानून को किशोर उम्र के सहमति से बने प्रेम संबंधों को कैसे देखना चाहिए? 25 वर्ष के एक व्यक्ति को दोषमुक्त करते हुए उच्चतम न्यायालय ने भी टिप्पणी की थी कि 14 वर्षीय लड़की के साथ उसके ‘समझौते’ के आधार पर उसे अपराधी नहीं ठहराया जा सकता। हालांकि अदालत ने इस बात से असहमति जताई थी कि बड़े किशोरों के बीच ‘गैर-शोषणकारी’ लैंगिक कृत्यों के लिए अपवाद बनाया जाना चाहिए।
यह पूरी बहस ‘पॉक्सो अधिनियम’ के संदर्भ में हो रही है, जिसका मुख्य उद्देश्य बच्चों को लैंगिक शोषण और उत्पीड़न से बचाना है। इस कानून के तहत, सहमति की परवाह किए बिना,18 वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे के साथ लैंगिक संबंध अपराध माना जाता है। हालांकि इस अधिनियम ने कई बच्चों को न्याय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन समय के साथ यह भी स्पष्ट हो रहा है कि किशोरों के आपसी सहमति से बने संबंधों के मामलों में इस कानून का कठोर प्रावधान जटिलताओं का कारण बन रहा है। ऐसे किशोर जो प्रेम और सहमति के साथ, गैर-शोषणकारी लैंगिक संबंधों में थे, वे अचानक राज्य की नजरों में अपराधी बन गए।
इस अधिनियम के लागू होने के एक दशक में कई मामलों में यह देखा गया है कि किशोर केवल सहमति के साथ, गैर-शोषणकारी रोमांटिक संबंधों के कारण आपराधिक मुकदमों में फंसे हैं। विभिन्न राज्यों में किए गए अध्ययनों से यह सामने आया है कि ‘पॉक्सो’ के तहत दर्ज किए गए मामलों में से 20-25% ऐसे थे जिनमें सहमति के साथ रोमांटिक संबंध थे। इन मामलों में अधिकांश शिकायतें लड़की के परिवार द्वारा की गईं, जो जाति, धर्म के अंतर, लड़की के भाग जाने या गर्भवती हो जाने जैसी परिस्थितियों के कारण उस संबंध को अस्वीकार करते थे।
किशोरावस्था एक ऐसा दौर होता है जब स्वाभाविक रूप से आकर्षण, भावनात्मक जुड़ाव और रोमांटिक संबंध विकसित होते हैं। इस स्थिति में, ‘पॉक्सो’ के तहत दर्ज मामले न केवल किशोरों को अपराधी के रूप में प्रस्तुत करते हैं, बल्कि इसके कारण सामाजिक लांछन भी उत्पन्न होता है, जिससे किशोरों को स्कूल छोड़ने, दोस्तों और परिवार से कट जाने और आत्मविश्वास की कमी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा, उन्हें अपराधी की तरह माना जाता है और कानूनी प्रक्रिया के दौरान उन्हें अपराधी के रूप में प्रस्तुत भी किया जाता है।
विशेषज्ञों ने किशोरों की लैंगिक अभिव्यक्ति को अपराधी बनाने से जुड़ी तीन मुख्य चिंताओं को उजागर किया है। पहली चिंता यह है कि किशोरों को उस उम्र में सहमति देने की क्षमता से वंचित कर दिया जाता है, जब लैंगिक जिज्ञासा और अभिव्यक्ति उनके शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों का स्वाभाविक परिणाम होती है। दूसरी चिंता यह है कि सभी प्रकार की लैंगिक अभिव्यक्ति को बाल शोषण के रूप में वर्गीकृत करने से समाज में एक गलत धारणा बनती है, जिससे किशोर यह नहीं समझ पाते कि सहमति और बलात्कार में क्या अंतर है! तीसरी चिंता यह है कि ‘पॉक्सो’ के तहत किसी भी नाबालिग की लैंगिक गतिविधि की अनिवार्य रिपोर्टिंग के कारण आम व्यक्ति पर दंडात्मक कार्रवाई का खतरा मंडराता है, भले ही किशोर की इच्छा रिपोर्ट करने की न हो। इससे किशोरों के लिए सहायता प्राप्त करने के रास्ते बंद हो जाते हैं।
बाल अधिकार कार्यकर्ता इस प्रवृत्ति पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं और इस बात की मांग कर रहे हैं कि लैंगिक सहमति की उम्र को 18 वर्ष से घटाकर 16 वर्ष किया जाए। इस तरह की चिंताओं को कई हाईकोर्टों ने भी समर्थन दिया है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने भी ‘पॉक्सो’ के तहत सहमति की उम्र पर पुनर्विचार की आवश्यकता व्यक्त की थी। हालांकि, सरकार और 283वें ‘विधि आयोग’ की रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि मौजूदा सहमति की उम्र में कोई बदलाव करना ‘उचित’ नहीं होगा। इसके पीछे कई ठोस तर्क सामने आए हैं जैसे कि इससे बाल-विवाह की घटनाओं में वृद्धि होगी, मुकदमे के दौरान पीड़िता के आचरण पर जोर दिया जाएगा, जिससे पीड़िता को मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ सकता है। इसके अतिरिक्त, सहमति की व्याख्या व्यक्तिपरक होने के कारण पुलिस की जांच में उत्पीड़न की आशंका बढ़ सकती है, जिससे वास्तविक बलात्कार के मामलों में न्याय बाधित हो सकता है।
इस संदर्भ में यह भी ध्यान देने योग्य है कि किशोरों के मामले में दोहरे मानदंड अपनाए जाते हैं। ‘राष्ट्रीय बाल नीति, 2013’ में कहा गया है कि ‘बच्चे एक समान समूह नहीं हैं और उनकी अलग-अलग आवश्यकताओं के लिए अलग-अलग प्रतिक्रियाओं की आवश्यकता है।’ रोचक यह है कि भारत में ‘किशोर न्याय (देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015’ यह मानता है कि 16 से 18 वर्ष के बीच के व्यक्ति अपराध करने में सक्षम हैं और उन्हें वयस्कों की तरह मुकदमे का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन जब उनकी लैंगिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात आती है, तो ‘पॉक्सो कानून’ उन्हें बच्चा मानकर अपराधी ठहरा देता है। इस तरह, ‘पॉक्सो’ जैसे विशेष कानून का प्रावधान किशोर प्रेमियों के बीच एक दीवार खड़ी कर देता है और उनके ‘पसंदगी के अधिकार’ पर भी कुठाराघात करता है। यदि सहमति की उम्र को पूरी तरह से घटाना संभव नहीं है, तो कम-से-कम 16 से 18 वर्ष के किशोरों के लिए रोमांटिक संबंधों के मामलों में एक विशेष अपवाद बनाया जाना चाहिए। इस अपवाद को आयु अंतराल आवश्यकता के साथ जोड़ा जा सकता है, जैसे कि दोनों पक्षों के बीच आयु का अंतर 2-3 वर्ष से अधिक न हो। इससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि ‘पॉक्सो’ कानून बच्चों की सुरक्षा के उद्देश्य से लागू किया गया था, न कि किशोरों की यौनिकता को नियंत्रित करने के लिए। अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में इस प्रकार के प्रावधान लागू हैं। अब यह भी जरूरी है कि न्यायालय 16 से 18 वर्ष के किशोरों के मामलों में ‘विधि आयोग’ द्वारा निर्देशित ‘न्यायिक विवेक का सिद्धांत’ अपनाएं और उचित निर्णय लें। (सप्रेस)