रोहित कौशिक

लेखक और पर्यावरणविद् पंकज चतुर्वेदी पाठकों के लिए सुपरिचित नाम है। हाल में शहरों के जल संकट पर उनकी एक किताब आई है। रोहित कौशिक द्वारा ‘सप्रेस’ के लिए की गई इसी किताब की समीक्षा।

ज्यों-ज्यों जल संकट बढ़ रहा है, त्यों-त्यों जल संकट पर भाषण देने वाले फर्जी बुद्धिजीवियों की भीड़ भी बढ़ती जा रही है।दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जल संकट अभी भी आम आदमी की चिंता नहीं बन पाया है।यही कारण है कि एक तरफ जल संकट बढ़ता जा रहा है तो दूसरी तरफ जल संकट के नाम पर मलाई चाटने वाले लोगों का धंधा भी दिन दूनी, रात चौगुनी तरक्की कर रहा है।ऐसे माहौल में जल संकट पर गंभीरता से लिखने वाले लेखक कम ही नजर आते हैं।वरिष्ठ पत्रकार और लेखक पंकज चतुर्वेदी पिछले कई वर्षों से पर्यावरण और जल से जुड़े मुद्दों पर नियमित और गंभीरता के साथ लिख रहे हैं।हाल ही में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘डूबते हुए प्यासे शहर’ हमें आईना तो दिखाती ही है, जल प्रंबधन की सरकारी नीतियों को भी कठघरे में खड़ा करती है।

पंकज चतुर्वेदी का मानना है कि विकास के नाम पर पारंपरिक जल प्रणालियों के साथ की गई छेड़छाड़ का नतीजा यह हुआ कि हम किसी-न-किसी रूप में पूरे साल जल संकट से जूझने लगे।अगर हम जल संकट का वास्तविक समाधान करना चाहते हैं तो हमें स्थानीय समाज के सहयोग से पारंपरिक जल प्रणालियों को पुनर्जीवित करने की कोशिश करनी होगी।इस प्रक्रिया में सबसे पहले हमें बारिश की हर बूंद को सहेजने पर अपना ध्यान केन्द्रित करना होगा।

लेखक ने ग्यारह अध्यायों के माध्यम से जल संकट और भारत की विभिन्न नदियों की वर्तमान स्थिति पर विस्तार से चर्चा की है।दिल्ली के जल संकट का विश्लेषण करते हुए लेखक का मानना है कि दूर से पानी मंगवाकर दिल्ली का जल संकट दूर नहीं हो सकता। इस प्रक्रिया पर खर्च भी अधिक होता है।अगर दिल्ली के पारंपरिक जल संसाधनों को जिंदा कर दिया जाए तो इसमें खर्च भी कम होगा और स्थायी रूप से दिल्ली का जल संकट खत्म हो जाएगा।पहले दिल्ली में विभिन्न तालाब थे लेकिन आज उन तालाबों और यमुना की स्थिति किसी से छिपी नहीं है।

गुरुग्राम के जल संकट का विश्लेषण करते हुए लेखक का मानना है कि यहां हर साल जल स्तर डेढ़ से दो मीटर नीचे गिर रहा है।दूसरी तरफ यहां का पानी गंभीर रूप से रसायनयुक्त हो गया है। साहिबी नदी और अरावली के संरक्षण के माध्यम से ही स्थिति में सुधार संभव हो सकता है।हालांकि बरसात में डूबता गुरुग्राम कई सवाल भी खड़े करता है। अरावली पहाड़ियों में चल रहा अवैध खनन कई तरह की समस्याएं पैदा कर रहा है।

लेखक ने गाजियाबाद के जल संकट और हिंडन नदी की दुर्गति का गंभीरता से विश्लेषण किया है।हिंडन नदी के तट पर एक तरफ हजारों मकानों का दबाव है तो दूसरी तरफ विभिन्न तालाबों पर हुए अवैध कब्‍जों ने स्थिति को बद-से-बदतर बना दिया है।हिंडन नदी शहर की प्यास बुझा सकती थी, लेकिन वह कारखानों और घरों का गंदा पानी ले जाने का मार्ग बनकर रह गई है।

भोपाल के जल संकट और यहां के विभिन्न तालाबों का विश्लेषण करते हुए लेखक का मानना है कि बढ़ती आबादी के साथ बरसात में सारे शहर का दरिया बन जाना एक बड़ी त्रासदी है। भोपाल के कुछ महत्त्वपूर्ण तालाब अतिक्रमण, गंदगी और प्रबंधन-अभाव के कारण अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं।लेखक ने श्रीनगर व कश्मीर के जल संकट का अध्ययन भी किया है। मनुष्य के लोभ और बढ़ती जनसंख्या के कारण जम्मू और कश्मीर की कई आर्द्रभूमियां सिकुड़ रही हैं।करीब दो दशक पहले डल झील का दायरा 27 वर्ग कि.मी. था, जो अब सिकुड़कर करीब 12 वर्ग कि.मी. रह गया है। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ और प्रदूषण के कारण कश्मीर की झीलों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।

लेखक ने बेंगलुरू के ‘केपटाउन’ बनने के खतरे की तरफ भी संकेत किया है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि बीते दो दशकों में बेंगलुरू के तालाबों में मिट्टी भरकर कॉलोनी बनाने के साथ-साथ तालाबों की आवक व निकासी को पक्के निर्माणों से रोक दिया गया। जल निधियों में कूड़ा भरने के कारण चेन्नई भी जल संकट से जूझ रहा है।पुस्तक में तमिलनाडु के तालाबों यानी ‘एरी’ पर विस्तृत चर्चा की गई है।इसके अतिरिक्त लेखक ने हैदराबाद, मुंबई, पटना और छत्तीसगढ़ के जल संकट पर गंभीरता के साथ अध्ययन किया है।इस गंभीर और श्रमसाध्य कार्य के लिए पंकज चतुर्वेदी बधाई के पात्र हैं। (सप्रेस)

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