जंगल की कटाई की जगह वृक्ष-रोपड़ संस्कृति हमारे जीवन का हिस्सा हो। उनकी देखरेख की संस्कृति हमारे जीवन की संस्कृति बने। यह तभी होगा जब हमारी विश्वास की सघनता बढ़ेगी इस प्रकृति से, जल से और हमारे जलवायु से। यह तभी होगा जब हम अपनी नवोदित पीढ़ी में भी प्रकृति से प्रेम करने का बीज अंकुरित कर सकेंगे। ऐसा करने पर, एक अहिंसक सुखद यात्रा का मनुष्य तभी भागीदार बन सकेगा जब हमारे जीवन में हमारे जीवन के संबल होंगे।
‘‘आप नर्मदा को चाहने वाले हैं, और मैं भी नर्मदा को चाहने वाला हूँ। इसलिए हम भाई-भाई हैं।’’
यह कहने वाले लंबी सफे़द दाढ़ी, शैव तपस्वियों का केसरिया बाना पहने एक संन्यासी थे। यह वर्ष 1943 का साल था। नर्मदा नदी के उद्गम और मुहाने के लगभग बीच में हैं, ‘ओंकारजी’ जहाँ मैं अपनी गर्मी की छुट्टियाँ बिता रहा था। कुछ सप्ताह पहले एक दिन मैं अपने दोस्त खुशीलाल के साथ नदी में ऊपर की ओर पवित्र धावड़ी कुण्ड से यात्रा कर लौट रहा था। जैसे ही हम ‘ओंकारजी’ के शान्त जल वाले लम्बे हिस्से में पहुँचे, हमें ये संन्यासी मिले। वे मण्डलेश्वर में उनके आश्रम से 40 मील बहाव के साथ धावड़ी कुण्ड के रास्ते में थे। कुछ पलों तक हमारी नावें एक दूसरे से सटकर चलती रहीं। उनके साथ एक साधु और थे, हमने एक दूसरे का अभिवादन किया। दो-एक दिन बाद उनकी एक और झलक हमें दिखाई दी, जब वे धावड़ी कुण्ड से लौट रहे थे।
दो-तीन सप्ताह बाद खुशीलाल और मैं नर्मदा की धारा में नीचे की ओर महेश्वर की यात्रा के लिये अपनी नाव पर थे। लोगों द्वारा बताई एक कुटी के पास हमने अपनी नाव बाँध दी और तट की खड़ी चढ़ाई पार कर गेंदे के फूलों से घिरी छोटी सी कुटी पर पहुँच गए। जब हम पहुँचे तो देखा कि बुजुर्ग संन्यासी भी वहाँ थे। वे हमें देखकर प्रसन्न हुए। ये वही सन्यासी थे जिन्होंने मुझे भाई माना था, क्योंकि मैं नर्मदा को चाहता था और वे भी। मेरे लिए उनके शब्द भावुक कर देने वाले थे। मैं मानने लगा था कि मैं उनका और वे मेरे हैं। यह पल कुछ ऐसा था जैसे मेरा स्वागत करते हुए उस संन्यासी ने सबके लिये यह बोल दिया था। मैंने फिर कभी उन्हें नहीं देखा। बाद के दिनों में वह कुटिया उजड़ गई थी।
नर्मदा कौन हैं और क्या हैं? भूगोल की पुरानी स्कूली किताब को उद्धृत करूँ तो – ‘गंगा जैसी ही भारत की यह एक पवित्र नदी है जो अपने उद्गम से मुहाने के बीच बेहद सुन्दर है।’ ऊपर कही उक्ति के लेखक ने देश को सच में चाहने वाले एक सेवानिवृत्त ब्रिटिश अधिकारी के श्रद्धा से पगे शब्दों को इसमें जोड़ा है – ‘भारत की सभी नदियों में से कोई भी ऐसी नहीं है जो मोहक और चकित कर देने वाले सौंदर्य से चारों ओर से घिरी हो, दुनिया भर की नदियों में इसकी जगह बहुत ऊँची है।’
नर्मदा का उद्गम मैकल पर्वत श्रृंखला स्थित अमरकंटक में है जो समुद्र की सतह से 3,500 फीट की ऊँचाई पर है। अरब सागर में मिलने के पहले यह 800 मील (1312 किलोमीटर) से कुछ ज्यादा ही बहती है। बहाव के पहले हिस्से में यह रीवा और मण्डला जिलों के भीतर पहाड़ियों और जंगलों में अपना रास्ता बनाती है। जबलपुर में यह संगमरमर की चट्टानों में एक जगह ‘कंठ’ (गला) जैसे सकरे रास्ते से आगे बढ़ती है, फिर उत्तर में यह विन्ध्य और दक्षिण में सतपुड़ा पर्वतमालाओं के बीच से लम्बा रास्ता तय करती है, जहाँ इसमें आईं बाढ़ों की मिट्टी से बने लंबे मैदान हैं।
इस मध्यवर्ती घाटी का विस्तार 200 मील दूर हंडिया तक है। फिर आगे आता है इसका दूसरा हिस्सा जिसमें वनाच्छादित पहाड़ियों वाले इलाके हैं, इसी में ‘ओंकारजी’ स्थित हैं। यह मोरटक्का और बड़वाह के बीच बने रेल पुल पर समाप्त होता है। पुल के नीचे की तरफ बाढ़ की मिट्टी से बना फैलाव है, यहीं इंदौर के होल्कर राजाओं की पुरानी राजधानी ‘महेश्वर’ स्थित है। फिर पहाड़ियों और जंगलों का वह तीसरा इलाका है, जो बॉम्बे प्रेसीडेन्सी की सीमा पर है। इसके बाद कहीं मनमोहक दृश्य नहीं हैं। भरुच ज्वार आने वाले मुहाने पर है, जहाँ तीस मील अंदर जाकर नर्मदा समुद्र से मिलती हैं।
लाखों लोगों के लिए यह नदी ‘नर्मदा माई, माँ नर्मदा और देवी’ है। भारत की उन सात महान नदियों में से एक। महान प्राचीन महाकाव्यों में नर्मदा का एक नाम रेवा भी है, ‘छलाँग लगाने या कूदने वाली’, जिसके जलप्रपात जगह-जगह चट्टानी सतहों पर उतरकर नाचते हैं। वह शिव की पुत्री है और अपने संपूर्ण मार्ग में पवित्र है।
नर्मदा के मार्ग में आने वाले पवित्र स्थानों पर लाखों तीर्थ यात्री उमड़ते हैं, लेकिन इनसे भी ज्यादा लाखों वे हैं जो माँ नर्मदा पर अपनी आजीविका के लिये आश्रित हैं। यहाँ मछुआरे, ढीमर और भोई हैं जो मछलियों पर आश्रित हैं। वे नावों को एक-से-दूसरे किनारे तक लाते-ले जाते हैं और सूखे मौसम में जब पानी घट जाता है तब उभरी रेत पर तरबूज, ककड़ी की खेती करते हैं। यहाँ कपड़े धोने वाले धोबी हैं जो घुटनों तक पानी में खड़े रहकर कपड़ों को सांस की गति से संचालित लय में चिकने पत्थरों पर पछीटते हैं। उनकी हर सांस के साथ पवित्र नामों के उच्चारण की पुनरावृत्ति होती है। साफ हुए कपड़े रेत पर फैलाये जाते हैं, सूरज और वायु उन्हें सफेदी और चमक देते हैं जिसके सामने कोई पाश्चत्य डिटरजेंट भी प्रतिद्वंदी नहीं हो सकता।
इसमें हम मानवों की सूची तक ही सीमित क्यों रहें? कई विनम्र जीव-जन्तु भी हैं जो अपने कल्याण के लिये नर्मदा माई पर आश्रित हैं। मछली और मोर यहाँ तक कि बंदर भी, जिनकी आँखों में कुछ भी निजी या पवित्र नहीं है, उनका भी सम्मान है। फिर लाखों मवेशी और पालतू पशु हैं जो प्रतिदिन अपनी प्यास बुझाने नदी पर आते हैं। वहाँ कछुए भी हैं, जिनका सिर पनडुब्बी के पेरिस्कोप की तरह सतह पर उभरा रहता है। मगरमच्छ भी वहाँ पर हैं, लेकिन वह डरावना है। हम मगरमच्छ के बारे में चाहे कुछ भी सोचें, माँ नर्मदा के कीटों का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। उनको भी नदी की उदारता में हिस्सा मिलना चाहिए।
नर्मदा ने सभी तरह के असंख्य लोगों के जीवन को समृद्ध किया है। समझने के लिये एक छोटा सा उदाहरण बहुत होगा : होशंगाबाद में खर्राघाट जहाँ रेल का पुल बना है वहाँ चट्टानों से टकराकर नर्मदा खर्र-खर्र की आवाज करती है। वहीं ‘क्वेकर्स’ ने भारत में सबसे पहले एक जमीन ली थी। वहाँ बने भवन में पहले लड़कियों का एक अनाथालय था, बाद में लड़कों के लिये हाई स्कूल और छात्रावास। लड़के-लड़कियों की पीढ़ियों ने यहाँ नदी में नहाया, तैरना और डुबकी लगाना सीखा, उसका संगीत सुना और उन्होंने नर्मदा को चाहने वालों की मेजबानी की।
मैं खर्राघाट और दूसरी जगहों पर तीर्थयात्रियों से मिला, उनसे बातें कीं, उनकी कहानियाँ सुनीं। मंदिरों और पवित्र स्थानों, किलों और राजप्रासादों – जिनकी ढहती दीवारें भारत के इतिहास के विषय में बहुत कुछ जानती थीं – छुपे हुए आश्रम जहाँ लोगों ने ईश्वर को समझने के लिए दुनिया भर के मान-सम्मान त्याग दिए थे, को जानने के लिये मैं लालायित हुआ। मेरी भी इच्छा रही कि मैं भीड़ और चिंताओं को छोड़कर तीर्थयात्राओं के लिये पहुँच जाऊँ। बुजुर्ग संन्यासी ने सच ही कहा था मैं भी नर्मदा को चाहने वाला हूँ। जीवन की धारा में वह और मैं अलग-अलग नावों के यात्री थे, लेकिन अंग्रेज ‘क्वेकर’ और भारतीय शैव तपस्वी आपस में मिले, हाथ मिलाए और स्नेह और निष्कपटता से कहा, हम भाई-भाई हैं। (सप्रेस)
[block rendering halted]