अपने आसपास के समाज और उसके संसाधन, प्रकृति तथा उनको वापरने की भांति-भांति की तकनीक जानने वाले ढाई हजार साल पुराने अर्थशास्त्री आचार्य विष्णु गुप्त कौटिल्य यानि चाणक्य आज कितने मौजूं हैं? और क्या आज के अर्थशास्त्री कौटिल्य की तरह अपने ज्ञान को समझते और उपयोग करते हैं?
हमारा पिछला इतिहास चाहे जितना उजला हो और हमारे ऐतिहासिक नायक और नायिकाऐं चाहे जितने वीर, साहसी और आदर्श रहे हों, लेकिन आज के संदर्भ में उनका कार्य नापना और तौलना जरूरी है, ताकि हमारी अगली पीढ़ी ने जो दुनिया हमें सौंप रखी है, हम उन्हें ईमानदारी से सुसज्जित लौटा सकें।
दक्षिण भारत के राधाकृष्णन पिल्ले की पुस्तक ‘कॉर्पोरेट चाणक्य’ भले ही व्यवसाय प्रबंधन से जुड़ी हो, लेकिन चाणक्य हर क्षेत्र में आज भी कितने प्रासंगिक है यह हर जिम्मेदार और संवेदनशील नागरिक को पढ़ना चाहिए। आज से कोई ढ़ाई हजार साल पहले जन्मे विष्णु गुप्त कौटिल्य, आर्य चाणक्य ने किस प्रकार अत्याचारी नंदवंश को समाप्त कर चन्द्रगुप्त मौर्य को गद्दी पर बिठाया था। उनका दिशा-निर्देश एक निष्पक्ष शासन के लिए विकेंद्रित समाज को पूरा जिम्मा सौंपना है। दुर्भाग्य से उनका लिखा अर्थशास्त्र हमारे स्कूल और कॉलेज से नदारद हैं।
राजन राज्य के सैन्य-बल या धर्मसत्ता से नहीं, जनशक्ति से सफल होता है – यह निर्भीकता से कहने वाले आर्य चाणक्य सत्ता से कोसों दूर एक साधारण कुटीर में रहते थे। सेना पर निर्भर देशों की बिगड़ी हालत हम देख रहे हैं और धर्मांध देश आधुनिक युग में कैसे लचर साबित हो रहे हैं यह भी हम देख रहे हैं। यह सही है कि वह काल औद्योगिक बसाहटवाला नहीं था, लेकिन आज की ही तरह विदेशी प्रभाव उस समय भी था। विदेशी आक्रमण भी हुआ तो चाणक्य के कुशल मार्गदर्शन में चन्द्रगुप्त की सेना ने सिकंदर को परास्त कर दिया था। राज्य की सफलता के लिए शस्त्र, शास्त्र और भूमि का समुचित दोहन जरूरी है, यह चाणक्य विधान आज ज्यादा प्रासंगिक है। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने सही नारा दिया था – ‘जय जवान, जय किसान।’
सन् 1905 से 1931 तक भारत की खेती-किसानी का गहरा अध्ययन करने के बाद ब्रितानी कृषि वैज्ञानिक अलबर्ट हॉवर्ड ने भी कहा था कि जन-जन की प्राथमिक आवश्यकताऐं रोटी, कपड़ा और मकान की पूर्ति यदि हो जाती है तो उस देश का बाल-बांका नहीं होगा और नहीं होती तो बड़ा-से-बड़ा पूंजी निवेश भी उस देश को बचा नहीं सकता। ‘कॉर्पोरेट कल्चर’ में बंधी हमारी शासन व्यवस्था पिछले दशकों में कितनी लचर रही है, यह किसानों की बढ़ती आत्महत्याएं बता रही है।
भारत में पंचायत राज चाणक्य ने प्रारंभ किया था। इस देश को दिया हुआ यह उनका सर्वोत्तम उपहार है। खेत और वन भारत के मूलधन हैं और जब व्यापारी अपना मूलधन ही खाना शुरू कर दें तो उसका व्यापार चौपट होना स्वाभाविक है। इसी बात को लेकर चाणक्य ने खेती में सुधार के लिए काम किया।
वन और खेत पंचायतों की स्वायत्तता में कार्यरत रहेंगे, यह चाणक्य ने देखा। उनका कथन था कि खेत और गांव भी छोटे आकार के होना चाहिए। हर गांव में 100 से 500 मकान ही होना चाहिए। यही बात 1949 में अमेरिका द्वारा निर्देशित उद्योगों का केवल बीस साल में फेल होना देख ईएफ शुमाकर ने कही थी। जर्मनी में पैदा हुए और लंदन में पढ़े-लिखे शुमाकर अपनी पुस्तक ‘स्माल इज ब्यूटीफुल’ (लघु ही सर्वोत्तम है) के कारण दुनियाभर में जाने जाते हैं।
चाणक्य ने वनीकरण करवाया, वृक्षों से पशुओं के लिए चारा, इमारती लकड़ी और जलाऊ लकड़ी लगवाई। जो वन काटता था उसको कड़ी सजा मिलती थी। पशुओं के लिए गांव-गांव में चिकित्सक रखे जाते थे और उन्हें भरण-पोषण के लिए कुछ जमीनें दी जाती थीं जिसे वे बेच नहीं सकते थे। गांवों से लगान लिया जाता था और जो किसान नियमित रूप से लगान देता था उसे पुरस्कृत किया जाता था।
देवदासी, विधवा, विकलांग, त्याज्य और वेश्याओं के भरण-पोषण हेतु उन्हें स्थानीय रोजगार उपलब्ध कराया जाता था, जिसमें कपड़ा बुनाई और मंदिरों में दीपों के लिए कपास की बत्तियाँ बनाना शामिल था। हर गांव में तालाब और चरनोई हो, यह कौटिल्य ने देखा। चरनोई की व्यवस्था बड़ी वैज्ञानिक थी। ‘पड़त भूमि’ पर पशुओं को रखा जाता था और उनके लिए जल और चारे की व्यवस्था पंचायत करती थी। 12 साल तक वहाँ पशुओं के गोबर और गौमूत्र से जब वह भूमि उर्वर हो जाती तब चरनोई दूसरी ‘पड़त भूमि’ पर ले जायी जाती थी। हर गांव में चाणक्य ने संदेश वाहक भी रखे थे ताकि राजा तक वहाँ की समस्याऐं पहुँच सकें।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहीं भी मुद्रा-विनिमय और लेन-देन का उल्लेख नहीं है। उनका लिखा अर्थशास्त्र एक प्रकार से समाज-शास्त्र है जो यह बताता है कि राजा से लेकर सामान्य नागरिक के कर्तव्य क्या हैं। गावों के साथ-साथ चाणक्य ने नगर-विधान भी लिखा है। नगरों की जनसंख्या सीमित हो, यह चाणक्य निश्चित करते थे। यदि नगरों में भीड़ बढ़ी तो चाणक्य उन्हें वापस गांवों में भेज देते थे और शाम को नगरों के प्रवेश द्वार बंद कर दिये जाते थे।
जैव-विविधता भारत को प्रकृति से मिला सर्वोच्च उपहार है। चाणक्य के ही समकालीन वराह मिहिर, पाराशर, सूरपाल, सारंगधर, चरक और सुश्रुत जैसे सैकड़ों ऋषि-मुनियों ने गहन अध्ययन कर ऐसी वनस्पतियाँ खोज निकाली थीं जिनने हमें कम पानी में पकने वाले विभिन्न खाद्यान्न, औषधि, वनस्पति आदि उपलब्ध कराईं। ये आज भी कारगर हैं और यही सच्चा अर्थशास्त्र हैं। ‘ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी’ में अर्थशास्त्र के दो अर्थ मिलेंगे। पहले का अर्थ औद्योगिक और उसके कारण चलन में आई कागजी मुद्रा से है। आज वह 71 प्रतिशत तक बढ़ गई है। दूसरी परिभाषा प्राकृति संसाधन और उसके योग्य प्रबंधन से जुड़ी है और यही भारत की दुनिया को सबसे बड़ी देन है ।
स्थानीय मौसम, स्थानीय देशी बीज, खेती, उन पर आधारित कुटीर उद्योग सुचारू रूप से कार्यरत हों इसके लिए स्वायत्तता प्राप्त पंचायतों का होना बहुत जरूरी है। प्रसन्नता की बात है कि भारत के विभिन्न राज्यों में कई स्थानीय पंचायतों ने क्रांतिकारी कदम उठाकर वहाँ के समाज को सशक्त किया है, फिर वह चर्मोद्योग हो, हस्तशिल्प हो, कच्ची घाणी का तेल हो, साबुन हो, सौंदर्यीकरण के नाम पर स्थानीय वस्तु को उखाड़ने का विरोध हो, वैधव्य की समाप्ति हो, मशीनीकरण का विरोध हो। इसे और सुचारू रूप देने के लिए आर्य चाणक्य, आज भी आपकी जरूरत है। (सप्रेस)
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