मौजूदा संसद के संभवत: आखिरी सत्र में पेश किए गए अंतरिम बजट ने और कुछ किया हो या नहीं, मौजूदा सरकार की संभावित वापसी पर उसकी भावी योजनाओं को उजागर जरूर कर दिया है। मसलन किसानों की आय दोगुनी करने के बहु-प्रचारित वायदे या किसानों को ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ की गारंटी का इस बजट से गायब होना बताता है कि खेती-किसानी सरकारी प्राथमिकताओं में कितनी नीचे है।
केन्द्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा संसद में पेश किए गए ताजा अंतरिम बजट 2024-25 को देखें तो पता चलता है कि उसमें ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) की कोई गारंटी और किसान की आमदनी दुगनी करने के लिये कोई प्रावधान नहीं हैं। बजट में गांव, गरीब, किसान की लूट और अमीरों को लाभ जारी है।
आर्थिक विषमता बढ़ाने वाला बजट ने जो दिशा तय की है, उससे स्पष्ट है कि आगे भी गांव, गरीब और किसान की लूट जारी रहेगी। 2024-25 का अंतरिम बजट कुल 47.66 लाख करोड़ रुपये का है जिसमें कृषि के लिये केवल 1.27 लाख करोड रुपये रखे गये हैं, जो कुल बजट का मात्र 2.65 प्रतिशत है। इसमें से प्रत्यक्ष योजनाओं पर बहुत कम राशि आवंटित की गई है। कृषि बजट पहले की तुलना में घटा दिया गया है। बजट में कृषि के लिये कोई विशेष प्रावधान नहीं है। किसानों की आमदनी दुगनी करने के लिये भी कोई उपाय नहीं किये गये हैं, लेकिन खेती को कारपोरेट घरानों को सौंपने की प्रक्रिया जारी है।
गांव, गरीब, किसान और कृषि के लिये इस बजट में बडा ‘शून्य’ दिया गया है। देश में सबसे अधिक रोजगार देने की क्षमता रखने वाले कृषि क्षेत्र की सरकार द्वारा अनदेखी कृषि का संकट बढायेगी। बेरोजगारी की समस्या और भयंकर होगी। ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ में बीमा कंपनियों को केवल मुआवजा बांटने के लिये गत सात साल में 60 हजार करोड़ रुपये मिले हैं। उसके लिये करोड़ों किसानों से बीमा क़िश्त वसूली जाती है।
इस साल भी कृषि और किसानों के लिये बजट की राशि बनाये रखी गई या उसे कम किया गया है। ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ के लिये 14 हजार 600 करोड़ रुपये, कृषि बजट के अलावा ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना’ के लिये 60 हजार करोड़ रुपये, यूरिया सबसिडी के लिये 1 लाख 19 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया है। प्राकृतिक खेती को बढावा देने और गोपालन के लिये बजट में कोई प्रावधान नहीं है।
अंतरिम बजट 2024-25 के अनुसार उसके प्रावधानों को हासिल करने के लिये इस वर्ष भी 16.85 लाख करोड रुपये कर्ज लेना होगा। 2014-15 से 2024-25 तक, गत दस साल का कुल बजट 326.64 लाख करोड़ का है। उसमें लगभग 95 लाख करोड़ रुपये का कर्ज लिया गया है, जो दस साल के कुल बजट का 29 प्रतिशत है। यानि देश का विकास कर्ज पर किया जा रहा है और इस कर्ज पर केवल ब्याज भुगतान के लिये 11.90 लाख करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे हैं। इस समय देश पर कुल 205 लाख करोड़ का कर्ज है, उसमें और भी बढोत्तरी होगी।
बजट पूर्ति के लिये सरकार को ‘कारपोरेट टैक्स’ में बढ़ोत्तरी करनी चाहिये थी, लेकिन इस बजट में भी उसमें कोई बढ़ोत्तरी नहीं की गई है। पहले से ही 30 प्रतिशत से 22 प्रतिशत तक कम किये गये ‘कारपोरेट टैक्स’ को बनाये रखा गया है। बजट पूर्ति के लिये ‘कारपोरेट टैक्स’ और दूसरे रास्ते ढूंढने की बजाय सरकार लोगों की जेब से पैसा निकालकर, कर्ज लेकर काम कर रही है। इससे देश पर लगातार कर्ज बढता जा रहा है।
‘आरबीआई’ (रिजर्व बेंक ऑफ इंडिया) के द्वारा ‘रेपो रेट’ में 2020 से अब तक 2.5 प्रतिशत की बढोत्तरी की गई है और उसी अनुपात में ब्याज दर भी बढाये गये हैं जिससे ‘ईएमआई’ (‘इक्वेटेड मंथली इंस्टॉलमेंट’ यानि “समान मासिक किस्तें”) बढ़ने के साथ ही जरुरतमंद विद्यार्थियों को शिक्षा ऋण पर 18 हजार करोड रुपये और सभी प्रकार के ऋण पर कर्जदारों को लगभग 9 लाख करोड रुपये ज्यादा देने होंगे।
‘जीएसटी’ (‘गु्ड्स एंड सर्विसेज़ टैक्स’ यानि ‘वस्तु एवं सेवा कर’) का हर साल बढता कलेक्शन यही साबित करता है कि इसका दायरा बढाने के साथ-साथ आम लोगों की जेब से पैसा निकालने के कारण ‘जीएसटी’ कलेक्शन बढ रहा है। इससे स्पष्ट है कि बजट पूर्ति के लिये सरकार लोगों की जेब से पैसा निकालकर और कर्ज लेकर काम कर रही है। कर्ज से जो विकास हो रहा है, उसकी कीमत लोगों को चुकानी पड़ रही है। इससे लोगों की लूट और देश पर कर्ज लगातार बढ़ता जा रहा है। कर्ज पर विकास, लूट की गारंटी होती है।
रेल्वे मंत्रालय द्वारा सामान्य और स्लीपर के डिब्बे कम करके यात्रियों को एसी के डिब्बे में यात्रा करने के लिये बाध्य किया जा रहा है, जिसके कारण एक अनुमान के अनुसार यात्रियों को हर साल लगभग 15 हजार करोड रुपये ज्यादा देने होंगे।
इस बजट में पुरानी योजनाओं के अलावा रेल-गलियारे, रेल-समुद्र मार्ग को जोडना, ‘वंदे भारत’ की तरह 40 हजार डिब्बों का निर्माण, मंडियों को ‘ई-नाम’ से जोड़ना, धार्मिक पर्यटन आदि योजनाओं का प्रमुखता से उल्लेख किया गया है। इस तरह आम जनता के लिये नहीं, बल्कि कारपोरेट घरानों के लिये शोषण के रास्ते बनाये जा रहे हैं।
सरकार की गलत विकास नीति के कारण प्राकृतिक संसाधनों का दोहन बढ़ेगा जिससे किसान और आदिवासी समाज की मुश्किलें और बढ़ेगी। पवित्र धार्मिक स्थानों को पर्यटन स्थलों में तब्दील करने की सोच भारतीय संस्कृति के विरुद्ध है। सरकारी शोषण के विरुद्ध लोगों का आक्रोश बढ़ता जा रहा है। उसे रोकने के लिये उनसे लूटी गई राशि का कुछ हिस्सा लोक-कल्याणकारी योजना के रुप में लोगों को वापस दिया जा रहा है, लेकिन इससे मिलने वाली मदद लोगों की लूट की तुलना में कुछ भी नहीं है। लोगों को जो दिया जा रहा है, उससे कई गुना ज्यादा उनसे लूटा जा रहा है।
सरकार कर्ज लेकर जो विकास काम कर रही है, उसमें गांव, गरीब और किसान के लिये कोई जगह नहीं है, बल्कि वह कारपोरेट कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिये काम कर रही है। इसके लिये अलग से सबूत देने की जरूरत नहीं है। यह दिख रहा है कि देश में अमीरों की संख्या लगातार बढ़ रही है। अमीर, अमीर बनते जा रहे हैं और गरीबी बढ़ती ही जा रही है। (सप्रेस)
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