पिछले कुछ सालों में, कोविड महामारी के चलते हमारे देश की शिक्षा सर्वाधिक प्रभावित हुई है, लेकिन आर्थिक, सामाजिक और प्रशासनिक संसाधनों को लगाकर उसे वापस चुस्त-दुरुस्त करने की बजाए हमारी सरकारें उसका बजट घटाने में लगी हैं।
केंद्रीय बजट में शिक्षा अपनी खामोशी से बहुत कुछ ज़ाहिर करती है, जो उसके आँकड़ों में नहीं दिखता। सबसे अहम बात है कि इस बजट में शिक्षा के सार्वभौमिकरण का लक्ष्य कहीं नहीं है। बजट के कम या अपर्याप्त होने की बहस तो तभी की जा सकती है, जब लक्ष्य को स्वीकार किया गया हो। फलस्वरूप इस बजट में ‘शिक्षा अधिकार कानून’ ही गौण है। हालांकि समग्र शिक्षा का बजट ज़रूर थोड़ा बढ़ा है, लेकिन वह राज्यों की आवश्यकताओं के मुकाबले बहुत कम है। वित्तीय प्रावधानों में इन ज़रूरतों को कैसे ढूँढ़ सकते हैं, जब यह लक्ष्य ही नहीं रखा गया है। ‘शिक्षा अधिकार कानून’ लागू है, लेकिन नज़रअंदाज़ी के स्वर में। उसका होना या न होना एक बराबर है।
शिक्षा के बजट में पिछले वर्ष की तुलना में मामूली बढ़ोतरी की गई है। पिछले वर्ष हमने ₹93,224 करोड़ खर्च करने का लक्ष्य रखा था और इस वर्ष यानि 2022-23 के लिए यह लक्ष्य ₹104,278 करोड़ है। यानी 11.8 प्रतिशत बढ़ा है। ध्यान देने वाली बात यह है कि पिछले वर्ष बजट घटाया गया था, इसलिए ये आँकड़े बढ़े हुए नज़र आ रहे हैं। दो वर्ष पूर्व, 2020-21 में शिक्षा का बजट ₹99,312 करोड़ था। इससे तुलना करें तो हम आज जहां-के-तहां खड़े हैं। वास्तव में स्थिति उससे बदतर है, क्योंकि दो वर्षों में ‘सकल घरेलू आय’ यानी ‘जीडीपी’ में इज़ाफा हुआ है, परंतु बजट घट रहा है। वर्ष 2020-21 में केंद्र सरकार ने शिक्षा पर 0.5 प्रतिशत ‘जीडीपी’ खर्च करने का लक्ष्य रखा था और अब 2022-23 में हम ‘जीडीपी’ (संभावित) का केवल 0.4 प्रतिशत खर्च करने वाले हैं। शिक्षा पर बढ़ती आय का कम अनुपात खर्च करने का मतलब यह है कि केंद्र सरकार इस इंजन का ईधन कम कर रही है। हम लक्ष्य हटाकर, उल्टी दिशा में चलने लगे हैं।
इन परिस्थितियों में यह बात साफ है कि सबके लिए शिक्षा का लक्ष्य अब राज्य सरकारों पर ही निर्भर है। यह बात केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के स्कूली शिक्षा बजट से और स्पष्ट हो जाती है। वर्ष 2019-20 में स्कूली शिक्षा पर मंत्रालय का खर्च ₹52,520 करोड़ था और 2021-22 में यह खर्च ₹51,970 करोड़ है। आय बढ़ रही है और बजट कम हो रहा है। ‘जीडीपी’ से तुलना करें तो स्कूली शिक्षा का यह बजट दो वर्ष में 13 प्रतिशत कम हो गया है। शिक्षा राज्य का ही विषय रहा है, संविधान की संवर्ती सूची में रखने के बाद इसमें केंद्र सरकार की भूमिका अहम् हो गई है। केंद्र सरकार का योगदान कम रहने से इसका खर्च राज्य सरकारों को ही वहन करना होगा। यह कैसे संभव है, जब उनकी वित्तीय स्थिति कमज़ोर है। अब राज्यों की बीच की खाई बढ़ती चली जाएगी।
जिन राज्यों के पास धन है वे स्थिति को संभाल लेंगे। परंतु, अधिकांश गरीब राज्य लोगों को अपने हाल पर छोड़ देंगे। ये राज्य धन, मनोबल और राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में चारों तरफ से घिरे हुए हैं। राज्यों के बीच की खाई का, इस बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि कुछ राज्य जैसे उत्तरप्रदेश, झारखंड आदि केवल ₹5,000 प्रति छात्र, प्रति वर्ष खर्च कर रहे हैं, वहीं इसकी तुलना में समर्थ राज्य, जैसे – तमिलनाडु, महाराष्ट्र ₹15,000 प्रति छात्र, प्रति वर्ष वहन कर रहे हैं। इतिहास से समझते हुए यह साफ दिखता है कि गरीब व्यक्ति कम फीस वाले प्राइवेट स्कूल की तरफ जाएँगे और बहुत से अनौपचारिक शिक्षा केंद्र पर आश्रित हो जाएँगे। सामाजिक रूप से हम चालीस वर्ष पीछे जाने की कगार पर खड़े हैं।
सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि हमने कोविड महामारी के असर पर अपनी आँखे मूँद ली हैं। दो वर्ष से ग्रामीण क्षेत्र और गरीब शहरी क्षेत्र में बच्चे स्कूल नहीं गए हैं। इस समूह के लिए ऑनलाइन कक्षाएँ कारगर नहीं थीं। सत्तर से अस्सी प्रतिशत बच्चों ने महामारी का गंभीर प्रभाव महसूस किया है। उनके लिए शिक्षा की कड़ी टूटना, मनोबल गिरना और पढ़ाई छोड़ने की स्थिति सभी एक साथ हो रहा है। ऐसे में यदि हमारा बजट टी.वी. या ऑनलाईन व्यवस्था को इसकी भरपाई करने की योजना बनाता है तो यह संकट से मुँह मोड़ना ही कहलाएगा।
ऐसे में जहाँ अधिक बजट की माँग रखी गई थी – कि राज्य सरकारें, अपनी–अपनी स्थिति के अनुसार स्कूलों की सामान्य व्यवस्था को मज़बूत करेंगी और उन्हें बेहतर चलाएँगी – यह लक्ष्य ही हटा दिया गया है। इसकी ज़रूरत ही नहीं समझी जा रही है। हम यह समझ पा रहे हैं कि इन दो वर्षों में अधिकांश बच्चों के लिए शिक्षा की कड़ी टूट गई है। उसे पटरी पर लाने के लिए हमें स्कूल के शिक्षकों पर उनकी परिस्थिति के अनुसार योजना बनाने की स्वत्रंता देनी चाहिए।
इस समय स्कूल का पाठ्यक्रम पूरा करने पर जोर नहीं होना चाहिए। यह एक गंभीर स्थिति है, न कि छोटा–मोटा ‘लर्निंग लॉस’ या सीखने में क्षति। जिन गरीब बच्चों ने पिछले दो दशक में स्कूल आना शुरू किया है, वे स्कूल छोड़ देंगे और पुन: मज़दूरी, परिवार की सहायता या शादी के चक्कर में फँस जाएँगे। इसके लक्षण दिखने लगे हैं, पर हमारी नज़र कहीं और है। सबसे बड़े संकट को इस प्रकार निगल जाना और टी.वी., ऑनलाईन शिक्षा को उसका विकल्प समझना बजट के अलावा शिक्षा का भी दुर्भाग्य है। (सप्रेस)
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