स्‍मृति शेष

पिपरिया जैसे छोटे से कस्बे से आकंठ जैसी साहित्यिक पत्रिका का निरन्तर 48 वर्षों तक सम्पादन और प्रकाशन करने वाले जाने माने प्रगतिशील कवि हरिशंकर अग्रवाल का 18 अगस्त 2020 को देहांत हो गया l

हम  बचपन से उन्हें अपना शिक्षक मानते रहे क्योंकि 1965 – 66 के दौरान जब हमने प्राथमिक स्कूल में दाखिला लिया तो उस स्कूल के सबसे उत्साही और युवा शिक्षक थे l

लेकिन जैसे जैसे साहित्य की दुनिया के करीब आये तो अहसास हुआ कि वे मात्र शिक्षक नहीं है l वे एक सिद्धहस्त और प्रतिबद्ध कवि थे l उनके लेखन और उनकी पत्रिका आकंठ की ख्याति दूर- दूर तक थी l साहित्यिक जगत में कोई बाहर का कवि या लेखक मिलता तो वह यह ज़रूर पूछता था कि हरिशंकर अग्रवाल जी कैसे है l मुझे बताते हुए बड़ा गर्व होता था कि मैं उनके काफी करीब हूँ और उनका छात्र भी l वे नगर के दिग्गज नेता विशेषकर प्रखर समाजवादी नेता स्व.नारायणदास मौर्य और श्री लल्लन राजपूत के काफी करीबी थे l लेकिन उनका यह रिश्ता राजनैतिक नहीं था l

सीमित संसाधन में एक लघु पत्रिका को निकालना निश्चय ही बड़ा कठिन काम था जो उन्होंने कर दिखाया l अपनी साइकिल पर निरन्तर चलायमान रहने वाले अग्रवाल साहब के लिए पत्रिका निकालना एक जुनून था जो हमने प्रत्यक्ष रूप से देखा है l पत्रिका के माध्यम से हिंदी में उभर रहे नवलेखन को मौका देना स्पेस देना उनकी विशेषता थी l शुरुआत में जो लेखक या कवि आकंठ में छपे वे आज प्रतिष्ठित कवि और लेखक है l

श्री हरिशंकर अग्रवाल प्रगतिशील लेखन की धारा के आधार स्तम्भ थे l उनका का पहला काव्य संग्रह “खिड़कियों पर लगे काग़ज़ ‘ शीर्षक से 1981 में प्रकाशित हुआ था l  साहित्य जगत में जिसकी काफी चर्चा हुई l 1984 में दूसरा कविता संग्रह “उस आदमी के उठने तक ” निकला तो 1992 में “शब्द कभी नहीं मरते ‘काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ l “अभी बहुत कुछ बाकी है “उनका अंतिम काव्य संग्रह था जो 2005 में निकला था l

वे मान सम्मान और पुरस्कार की चिंता किये बगैर तजिंदगी अपने मिशन में जुटे रहे l इसके वाबजूद उन्हें कई पुरस्कार और सम्मान मिले। वागीश्वरी पुरस्कार, डॉ आंबेडकर संपादक रत्न सम्मान, दुष्यंत सम्मान आदि। 2018 में मध्यप्रदेश साहित्य सम्मेलन की ओर से शुरू किए गए पहले सप्तपर्णी सम्मान के लिए आकंठ पत्रिका को चुना गया l इस कार्यक्रम में श्री अग्रवाल जी के साथ मैं भी शामिल हुआ था l यह निश्चय ही गौरवांवित होने का क्षण था क्योंकि उनके अथक प्रयास को चंहु ओर सराहा जा रहा था l

रेलवे स्टेशन पर हमारे चाचाजी की बुकस्टाल थी l जहां बच्चों की किताबें नंदन पराग चंदामामा आदि तो मज़े से पढ़ते थे लेकिन दिनमान धर्मयुग साप्ताहिक हिंदुस्तान , सारिका कादम्बिनी नवनीत आदि उस समय की अच्छी मानी जाने वाली पत्रिकाओं के पन्ने भी कभी कभार उलट पलट कर देख लिया करते थे l साहित्य से अपना इससे ज़्यादा सरोकार नहीं था l लेकिन नरेंद्र मौर्य ,वीरेंद्र दुबे और बालेन्द्र परसाई से मित्रता होने के बाद कुछ कुछ जुड़ाव हुआ l ये लोग खूब किताबें पढ़ते थे और जब मिलते थे उन पर ही चर्चा किया करते थे l कविता ग़ज़ल आदि लिखकर सुनाया करते थे l हमने पूछा कि तुम लोग ये जिन किताबों की चर्चा करते हो ये मिलती कहाँ है ? तो उन्होंने हमें ललित अग्रवाल, हरिशंकर अग्रवाल और बंशी माहेश्वरी के नाम बताए l बाद में इन लोगों के साथ उनके घर जाना आना शुरू हुआ l उस समय शहर में बहुत गोष्ठियां होती थी इन मित्रो के साथ हम भी उनमें जाने लगे l पहले बोर होते थे फिर हमें भी रस आने लगा l इस सब का प्रभाव यह हुआ कि अपन भी कुछ कविता नुमा लिखने लगे लेकिन ज़्यादा आगे नहीं जा पाए और लगा कि ये अपने बस की बात नही है l इस बीच 1981 – 82 में हिंदी के आलोचक और कवि डॉ सेवाराम त्रिपाठी कालेज में प्राध्यापक बनकर कर आये l अग्रवाल सर के साथ मिलकर उन्होंने शहर में साहित्यिक हलचल को तेज किया और प्रगतिशील लेखक संघ की पिपरिया इकाई गठित और क्रियाशील की l दो  ढाई साल में  त्रिपाठी सर का पिपरिया से ट्रांसफर हो गया l

वीरेंद्र बालेन्द्र नौकरी के लिए शहर से चले गए l इस बीच मे हम मित्रो ने समता अध्ययन केंद्र के नाम से पुस्तकालय और स्टडी सर्कल चलाया फिर किशोर भारती द्वारा नरेंद्र मौर्य के नेतृत्व में भगतसिंह पुस्तकालय एवं सांस्कृतिक केंद्र खुला और शहर में साहित्यिक सांस्क्रुतिक माहौल बना ,कई युवा साहित्य की ओर आकर्षित हुए ,बाल और युवा लेखन और अभिव्यक्ति को विशेष अवसर मिला l साइक्लोस्टाइल बाल चिरैया और गुलगुला ने बच्चों में तहलका मचा दियाl 1990 -91 आते आते तक किशोर भारती ने भगतसिंह पुस्तकालय बन्द कर दिया और साथी नरेंद्र मौर्य नौकरी करने दिल्ली चले गए l ललित अग्रवाल जी का निधन पहले हो चुका था l इस बीच वंशी माहेश्वरी अपने बेटों के पास पुणे शिफ्ट हो गए थे l

मैं एकलव्य संस्था में नौकरी करता था अतः इस शून्य से उबरने के लिए हमने एकलव्य संस्था के माध्यम से बाल पुस्तकालय शुरू किया l जो बाद में धीरे-धीरे एक समृद्ध पुस्तकालय बन गया l अग्रवाल सर आकंठ का नया अंक देने पुस्तकालय आते रहते थे उनसे चर्चा होती रहती थी l उनके रिटायर्डमेन्ट के बाद वे चाहते थे कि प्रगतिशील लेखक संघ की स्थानीय इकाई की जिम्मेदारी मैं सम्हालूँ l मेरी सैद्धांतिक नही बल्कि व्यवहारिक दिक्कत यह थी कि मुझे संस्थागत कामों से अक्सर बाहर जाना पड़ता था और कई बार लंबे समय तक भी l मैंने हर सम्भव सहयोग का वायदा करते हुए नई जिम्मेदारी के प्रति अनिच्छा जताई l इसके बाद हमने पिपरिया में प्रगतिशील लेखक संघ के साथ कई कार्यक्रमो और आयोजनों की रूपरेखा बनाई और उन्हें क्रियान्वित किया l प्रेमचंद जयंती ,और हरिशंकर परसाई पुण्यतिथि पर नियमित रूप से कार्यक्रम किये l अग्रवाल सर की अनुशंसा और पहल पर मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की पिपरिया इकाई गठित हुई जिसके अध्यक्ष प्रकाश मंडलोई एवं सचिव किशोर डाबर बनाये गए l सम्मेलन के बैनर तले भी कुछ साहित्यिक कार्यक्रम हुए l अग्रवाल सर पिपरिया में पाठक मंच के संयोजक थे l मप्र साहित्य अकादमी की इस योजना के अंतर्गत प्रतिमाह अकादमी द्वारा भेजी गई एक किताब की समीक्षा गोष्ठी होती थी l जिसका विवरण अकादमी की पत्रिका में छपता था l अग्रवाल सर ने अकादमी में अनुशंसा कर यह प्रभार मेरे जिम्मे कर दिया था l

श्री अग्रवाल सर के पास किताबें और पत्रिकाओं का अंबार था l उन्होंने इन किताबों के रख रखाव और उपयोग की दृष्टि से एकलव्य पुस्तकालय को उपयुक्त समझा और यह किताबें स्व.कमलाप्रसाद जी के कर कमलों से एकलव्य पुस्तकालय को भेंट कर दी जिनकी संख्या सैकड़ों में है l वे और किताबें देने का कह रहे थे लेकिन यह संयोग नहीं बन पाया क्योंकि  पिछले तीन साल मंडला मेरा कार्यक्षेत्र था इसलिए बहुत कम भेंट हो पाई l

एकलव्य पुस्तकालय की व्यवस्था  किताबों का रखरखाव और संचालन के लिए वे साथी कमलेश भार्गव की हमेशा प्रशंसा करते थे l

नगर की  साहित्यिक बिरादरी बरसो तक श्री हरिशंकर अग्रवाल की सृजनात्मक सक्रियता को याद रखेगी l उनकी कमी हमेशा महसूस की जाती रहेगी l प्रगतिशील और प्रतिबद्ध लेखन के इस अथक यात्री को शत शत नमन !

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