राकेश दीवान

सवाल है कि ‘चमोली त्रासदी’ जैसी आपदाओं को, अपनी विकास की हठ में बार-बार खडी करने वाले राजनेताओं से धर्मगुरु किस मायने में भिन्न और बेहतर साबित होंगे? क्या वे अपने पास-पडौस के समाज, वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की कोई बात ध्‍यान से सुनेंगे? अब तक का अनुभव तो यही बताता है कि राजनेताओं की तरह धर्मगुरु भी अपनी-अपनी मान्यताओं की जिद के दायरे में सिमटे बैठे हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो विशाल हिन्दू आबादी के विश्वविख्यात कुंभ में पवित्र डुबकी लगवाने वाली उज्जैन की क्षिप्रा, हरिद्वार-प्रयागराज की गंगा और नासिक की गोदावरी अब तक साफ-सुथरी बनी रहतीं।

आखिर दुनियाभर के अधिकांश देशों के मौजूदा राजनेताओं और आधुनिक विज्ञान को ठेंगे पर मारते हुए धार्मिक संगठनों और धर्मगुरुओं को धरती बचाने का जिम्मा दिया जा रहा है। ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ (यूएनओ) के ‘संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम’ (यूएनईपी) की पहल पर शुरु की जा रही ‘फेथ फॉर अर्थ’ मुहीम के जरिए दुनियाभर के धार्मिक संगठनों, धर्म-गुरुओं और आध्‍यात्मिक नेताओं की मार्फत सन् 2030 तक धरती के 30 फीसदी हिस्से को वापस उसके प्राकृतिक गुणों से भरपूर बनाने का लक्ष्य तय किया गया है। कार्यक्रम के निदेशक डॉ. इयाद अबु मोगली का कहना है कि जलवायु-परिवर्तन दुनियाभर के लिए गंभीर खतरा है, लेकिन कोई इसकी अहमियत समझता नहीं दिखता। ‘जलवायु-परिवर्तन को रोकने के तरह-तरह के प्रयासों का अध्‍ययन करके हम आखिर इस नतीजे पर पहुचे हैं कि सिर्फ धर्म में ही वह ताकत है जो दुनिया को इस संकट से बचा सकती है।‘ विज्ञान आंकडों की मार्फत संकट की गंभीरता तो बता सकता है, लेकिन आस्था ही धरती को बचाने का जुनून पैदा कर सकती है।

विनोबा भावे मानते थे कि आधुनिक समय राजनीति और धर्म की बजाए विज्ञान और आध्‍यात्म का होगा। इसी तर्ज पर डॉ. इयाद का विश्वास है कि विज्ञान और धार्मिक आस्था में ठीक वैसा ही संबंध है जैसा ‘ज्ञान’ और ‘क्रियान्वय’ में होता है। यानि एक के बिना दूसरा अधूरा है और यही ‘फेथ फॉर अर्थ’ मुहीम शुरु करने के पीछे का विचार है। सन् 2017 में ‘यूएनओ’ के 193 सदस्य देशों की बैठक में – गरीबी हटाने, सबको शिक्षा देने और पर्यावरण बचाने के तीन लक्ष्य रखे गए थे। इस बैठक में ही उजागर हुआ था कि पर्यावरण की रक्षा के लिए धार्मिक संगठनों का अपेक्षित योगदान नहीं मिल पा रहा है। दुनियाभर के करीब 80 फीसदी लोगों के भरोसे पर टिकी और दुनिया की चौथी सबसे बडी अर्थ-व्यवस्था मानी जाने वाली धार्मिक संस्थाएं 60 प्रतिशत स्कूल और 50 प्रतिशत अस्पतालों के अलावा दुनिया की करीब दस प्रतिशत जमीन की मालिक हैं। इस विशाल आकार की धार्मिक संस्थाएं और उनके धर्मगुरु क्या सचमुच दुनिया को बचाए रखने की इस मशक्कत में शामिल हो पाएंगे? और क्या अब तक दुनिया पर राज करने वाले राजनेता इस पहल के नतीजे में नकारा साबित नहीं हो जाएंगे?

कुछ साल पहले अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में राजनेताओं को लेकर एक दिलचस्प अध्ययन हुआ था जिसके नतीजे में पता चला था कि आज के अधिकांश राजनेता ‘क्रेजी’ यानि नीम-पागल हैं। इसे साबित करने के लिए किए गए प्रयोगों से पता चला था कि दुनियाभर के ये राजनेता एक ही बात को, उसकी खामियों को जानने के बावजूद, दोहराते रहते हैं और यह नीम-पागलों का बहुत स्पष्ट लक्षण है। जलवायु-परिवर्तन के सन्दर्भ में देखें तो हमारे राजनेताओं को कहावत की हरियाली की बजाए ‘विकास’ के अन्धत्व में चहुंदिस विकास ही दिखाई देता है। यदि ऐसा नहीं होता तो 2013 में हुई ‘केदारनाथ त्रासदी’ के बाद, ठीक उन्हीं वजहों से हाल में 2021 की ‘चमोली त्रासदी’ नहीं हुई होती। दुर्घटना के बाद हालचाल जानने आए केन्द्र सरकार के एक मंत्री ने इतिहास से न सीखते हुए एक ही बात के दोहराव की बानगी देते हुए कहा था कि उत्तराखंड में जल-विद्युत परियोजनाओं का निर्माण जारी रहेगा।

भूकंम्प प्रभावित चौथे और पांचवें ‘जोन’ में पडने वाले उत्तराखंड के एक गांव रैणी की चार दर्जन महिलाओं ने अपनी बुजुर्ग गौरादेवी की अगुआई में करीब 47 साल पहले जंगल बचाने के लिए ‘चिपको आंदोलन’ चलाया था। उसके बाद तत्कालीन सरकार ने वृक्ष कटाई के अपने आदेश वापस भी ले लिए थे, लेकिन फिर 2007 में विकास की पालकी में सवार होकर जल-विद्युत परियोजनाओं के रूप में जंगल कटान, खनन और निर्माण के समय भारी विस्फोटों की बारात वापस लौटी। सत्तर के दशक में जंगल-कटाई का विरोध करते हुए अनेक वैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम लोगों ने सरकार और उसके ‘विकास-वादियों’ को समझाने की कोशिश की थी, लेकिन, जैसा कि आमतौर पर होता है, किसी ने उनकी बात पर कान नहीं धरे। इसी का परिणाम था कि 7 फरवरी 2021 को नंदा देवी पर्वत से टूटकर आये ग्लेशियर या एवलांच के भारी मलवे ने सबसे पहले ऋषि गंगा पर बनी जल-विद्युत परियोजना के उस हिस्से को पूरा ध्वस्त किया, जहां नदी को बहने से रोका गया था। इसके आगे ‘विष्णु प्रयाग जल-विद्युत परियोजना’ (420 मेगावाट) के पावर हाउस को ठप करते हुये ‘तपोवन-विष्णु गाड़ परियोजना’ (520 मेगावाट) की टनल और बैराज को क्षतिग्रस्त किया। यहां पर काम कर रहे लगभग 200 से अधिक लोगों की जान गई। मारे गये अधिकतर लोगों के शवों का पता तो नहीं चला, लेकिन कुछ शव और अंगों के हिस्से कर्णप्रयाग, श्रीनगर तक अलकनंदा में मिल रहे हैं।

कहा जा रहा है कि केदारनाथ आपदा के बाद 2014 में उच्चतम न्यायालय ने ऋषिगंगा पर ध्वस्त हुये प्रोजेक्ट के अलावा ‘ऋषिगंगा-1,’ ‘ऋषिगंगा-2’ और ‘लाटा-तपोवन जल-विद्युत परियोजनाओं’ पर रोक न लगाई होती तो इस दुर्घटना में पांच गुनी हानि हो सकती थी। यदि राजनेताओं को अपनी गलती सुधारने की रत्तीभर भी मंशा होती तो वे सुप्रीम कोर्ट द्वारा, पर्यावरणविद् रवि चोपडा की अगुआई में गठित ‘विशेषज्ञ समिति’ की सिफारिशों को सुनते और इसके बाद सभी निर्मित व निर्माणाधीन बांधों के गेट हमेशा के लिये खोल देते। अनसुनी करने की अपनी गलती को सही साबित करने के लिए राजनेताओं का तर्क है कि ‘चमोली त्रासदी’ प्राकृतिक आपदा है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय के ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना क्या बताता  है? ग्लेशियरों से आने वाला मलवा और जल-सैलाब जब नदी को रोकने वाले बांध को तोड़कर नीचे की ओर भारी जन-धन को विनाश पहुंचाता है, तो यह मानव-जनित आपदा का रूप लेकर तबाही का कारण बनता है।

सवाल है कि ‘चमोली त्रासदी’ जैसी आपदाओं को, अपनी विकास की हठ में बार-बार खडी करने वाले राजनेताओं से धर्मगुरु किस मायने में भिन्न और बेहतर साबित होंगे? क्या वे अपने पास-पडौस के समाज, वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों की कोई बात ध्‍यान से सुनेंगे? अब तक का अनुभव तो यही बताता है कि राजनेताओं की तरह धर्मगुरु भी अपनी-अपनी मान्यताओं की जिद के दायरे में सिमटे बैठे हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो विशाल हिन्दू आबादी के विश्वविख्यात कुंभ में पवित्र डुबकी लगवाने वाली उज्जैन की क्षिप्रा, हरिद्वार-प्रयागराज की गंगा और नासिक की गोदावरी अब तक साफ-सुथरी बनी रहतीं। ‘इको-योद्धा’ बनाने के ‘यूएनईपी’ के ताजा प्रयास में कैथोलिक धर्मगुरु पोप फ्रांसिस और शिया इस्माइली मुसलमानों के इमाम के साथ भारत के श्रीश्री रविशंकर और सद्गुरु जग्गी वासुदेव का नाम भी लिया जा रहा है। ‘राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण’ (एनजीटी) द्वारा पर्यावरण की शर्तों के उल्लंघन पर जुर्माना भरने के कारण श्रीश्री और तमिलनाडु के आरक्षित वन में निर्माण के अरोप झेल रहे सद्गुरु जलवायु-परिवर्तन से कैसे निपटेंगे? वैसे भी आधुनिक भारत के ये धर्मगुरु आमतौर पर शहरी मध्‍यमवर्ग को ही आकृष्ट कर पाते हैं। जाहिर है, अपने समाज का असली धर्म-धुरीण इन्हें नहीं जानता, लेकिन जिन लाखों-लाख लोगों को वह जानता है उसका पर्यावरण, जलवायु-परिवर्तन जैसी आधुनिक अवधारणाओं से कोई लेना-देना नहीं होता। उसके जीवन में तो परंपराएं, आदतें और बुजुर्गों की हिदायतें भर रहती हैं। तो क्या जलवायु-परिवर्तन को बरकाने के लिए उन तक कोई पहुंच पाएगा? (सप्रेस)

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2 टिप्पणी

  1. सटीक यथार्थ व समाज दुनिया की हकीकत को बयां करता आलेख।धर्म गुरुओं की राजनैतिक मजबूरियों का उदाहरण उज्जैन का बीता सिंहस्थ मेला है जहाँ स्वामी अवधेशानंद से लेकर मुरारी बापू तक जुटाए गए थे। इन सन्तो ने क्षिप्रा नदी को स्वच्छ बनाने के सकंल्प के साथ अभियान का उदघोष किया था ।नतीजा सामने है क्षिप्रा नदी अब और ज्यादा प्रदूषित हो गई । पलट कर कोई सुध लेने तक नही आया।

  2. सत्य हीं है की राजनेताओं की तरह धर्मगुरु भी अपनी-अपनी मान्यताओं की जिद के दायरे में सिमटे बैठे हैं क्योंकि धर्म स्थलों पर भी प्रदुषण और पर्यावरण को क्षति हो रही है जिसके परिणाम स्वरुप प्राकृतिक आपदा व प्रदुषण से यह स्थल सुरक्षित नहीं हो पा रहें है.. 💐🙏

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