सत्‍यम पांडेय

मध्यम वर्ग ने एक जीवन मंत्र अपना लिया है। खूब कमाओं और खूब खर्च करो। खर्च करने के लिए सोने के बाद अब हीरे का लालच है। और हीरा मिला है बक्सवाहा के जंगलों में। लेकिन इसके लिए लाखों पेड़ काटने होंगे। लोग संगठित होकर प्रतिकार कर रहे हैं। हीरा होता है सदा के लिए, ये सिर्फ एक विज्ञापन वाला वाक्य है। लेकिन जंगल वाकई हमेशा के लिए होते हैं। मनुष्य के पहले मौजूद थे और बाद में भी रहेंगे। लेकिन मनुष्य अगर हीरे के लिए इन जंगलों को काटता रहेगा तो यकीनन वह गैरहाजिर हो जाएगा इन धरती से। सच ही कहा गया है कि मनुष्य पर्यावरण के बिना नहीं रह सकता परंतु पर्यावरण मनुष्य के बिना रह सकता है।

विश्‍व पर्यावरण दिवस पर‍ विशेष  

दिवसों की अपनी राजनीति और प्रतीक होते हैं। मजबूरियाँ भी होती हैं और सीमाएं भी। पर्यावरण दिवस भी ऐसी ही एक मजबूरी है। यही कारण होगा संभवतः कि पर्यावरण दिवस की शुभकामनाएं वे भी दे रहे हैं जो अभी पिछले हफ्ते ही नदियों में बह रही लाशों को सामान्य घटना करार दे रहे थे। और सीमाएं इसलिए कि दिवसों पर लिए गए संकल्प उतने ही प्रभावी होते हैं जीतने 31 दिसंबर की अर्धरात्रि में लिए गए संकल्प। नववर्ष की पूर्वसन्ध्या पर लिए गए संकल्प अगले सप्ताह तक भुला दिए जाते हैं और पर्यावरण दिवस पर रोपे गए पौधे भी एकाध हफ्ते मे ही बिसार दिए जाते हैं। कोई नहीं मुड़कर देखता कि जून की 5 तारीख को लगाए गए पौधे को बारिश ने नष्ट कर दिया अथवा कोई जानवर ने उससे अपनी क्षुधा तुष्ट कर ली अर्थात भूख मिटा ली। यही कारण रहा होगा कि दो साल पहले मध्यप्रदेश मे जोर शोर के सरकारी प्रबंधन और प्रचार के साथ जिन करोड़ों पौधों को नर्मदा नदी के किनारे किनारे रोप कर विश्व रिकार्ड बनाया गया था, उनका आज कहीं कोई पता नहीं है।  

नर्मदा की सांसत तो बहुत व्यापक है। जो देखो उसे मध्यप्रदेश की जीवन रेखा कहता फिरता है और नर्मदा स्नान के बहाने बालू के स्तर की जांच भी करता रहता है। प्रदेश की जीवन रेखा है तो बालू के तस्करों के जीवन की रक्षा भी नर्मदा के ही भरोसे है। सरकार भी नर्मदा के इस दायित्व को जानती समझती है इसलिए हर चौथे माह कोई न कोई नई योजना बालू संरक्षण के लिए बनाती है और चार नए घाट नर्मदा में रेत निकालने के लिए बन जाते हैं। जाहिर है, सरकार का इन सबसे क्या लेना-देना होगा?

सरकार का नारा तो महज विकास है न? उस विकास में सबसे ज्यादा जरूरी है बिजली। बिजली के बिना कोई काम नहीं होता। अमरीका के लोग प्रति व्यक्ति जितनी ऊर्जा की खपत करते हैं हमारे लोग अभी उससे बहुत कम पर हैं। लेकिन हमको बराबरी तो अमरीका से ही करनी है इसलिए हर तरह की बिजली बनाने के लिए तत्पर हैं। पहले अबाध बह रही नर्मदा पर दर्जनों बड़े और सैकड़ों मझोले-छोटे बांध हमारी सरकारों ने बना डाले। सरकारों के रंग और झंडों पर मत जाइए, वे केवल दुकानों के ब्रांड हैं। मिठाई सबके पास जनता की बर्फ़ी ही बिकती है। बांधों के लिए विस्तार चाहिए, इस विस्तार के लिए सैकड़ों गांवों और लाखों लोगों के लिए विस्थापित किया गया। लाखों हेक्टेयर जंगल को जलमग्न कर दिया गया। सैकड़ों धार्मिक और पुरातात्विक स्थलों को जल समाधि प्रदान कर दी गई।

फिर भी बिजली की प्यास नहीं बुझी तो उसी नर्मदा के किनारे अनेकों थर्मल पावर प्रोजेक्ट कुकुरमुत्तों की तरह उग आए। लोग समझ ही नहीं पा रहे कि इनकी जरूरत क्या है? लेकिन जैसे ही कहा गया कि ये विकास है तो सब चुप हो गए। विकास पर सवाल उठाना गुनाह है न? अभी अभी जबलपुर के सांसद ने डुमना के जंगल को बचाने की मांग करने वालों को विकास विरोधी गैंग का नाम दे ही दिया है। गैंग शब्द तो आप जानते ही हैं कि कब से राजनैतिक शब्द बन गया है। तो डुमना मे अब एक बडा स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स बनेगा। कई हेक्टेयर सघन जंगल को साफ करके एक स्वच्छ स्टेडियम बनाया जाएगा। इस तरह स्वच्छ भारत मिशन तो आगे बढ़ेगा ही लेकिन खेल वहाँ पता नहीं कौन सा खेला जाएगा? क्योंकि अनेक खेलों के लिए पहले से ही जबलपुर मे कई स्टेडियम पहले से ही मौजूद हैं। रविशंकर शुक्ल स्टेडियम है और रानीताल भी। पहले वाले का इस्तेमाल तो नेता लोग भी सभाएं करने के लिए करते रहे हैं और दूसरे वाले को कचराघर मे तब्दील कर दिया गया है। हलकी घूरे के भी दिन फिरते हैं ये बुन्देली कहावत जबलपुर मे खूब चलती है इसलिए जब रानीताल स्टेडियम के पास मे सत्ताधारी पार्टी का भव्य कॉर्पोरेट कार्यालय खुल गया तो लोगों को उम्मीद थी कि स्टेडियम के दिन भी बहूरेंगे पर ऐसा हुआ नहीं। दरअसल सत्ता के लिए जो खेल जरूरी होते हैं वे रानीताल स्टेडियम मे नहीं खेले जा सकते। इसलिए मेरी सरकार को विनम्र सलाह है कि डुमना के जंगल काटकर वहाँ स्टेडियम बनाने की बजे एक लक्जरी रिज़ॉर्ट बना लीजिए ताकि भविष्य मे जब जरूरत हो तो विधायकों को लेकर बंगलोर न भागना पड़े।

लेकिन सरकार फ्री की सलाह नहीं मानती। उसके लिए वही सलाह महत्वपूर्ण होती है जो करोड़ों रुपये कंसलटेशन फीस देकर हासिल की जाती है और ऐसी सलाह मे ये नहीं बताया जाता कि शहर मे पहले से मौजूद स्टेडियम का इस्तेमाल करो। इससे कम पैसे और संसाधन खर्च होते हैं और विकास का पहिया धीमा होता है। इसलिए जबलपुर के पर्यावरण प्रेमी विकास और जंगल मे से एक कोई विकल्प चुन लें और या तो संघर्ष की तैयारी करें अथवा निकट भविष्य मे डुमना नेचर रिजर्व मे क्रिकेट मैच के आनंद का पूर्वानुभव लें। ऐसा ही कुछ चुटका के आदिवासियों ने भी तय किया है। लेकिन उनके पास विकास का कोई मध्यम वर्गीय सपना नहीं है जबलपुर वालों की तरह। वे पहले बरगी बांध के निर्माण के समय विकास के लिए पर्याप्त कुर्बानी दे चुके हैं। बरगी बांध से जबलपुर, नरसिंहपुर और होशंगाबाद आदि के लिए समृद्धि आई तो मंडला, बरगी और सिवनी के आदिवासी किसान बर्बाद और दरबदर हुए। याद है न? इसी जबलपुर शहर मे उनके जुलूस निकलते थे तब हम और आप मुंह बचाकर निकाल जाते थे न?

चुटका वालों को कुर्बानी के बदले न बिजली मिली और न पानी, इन्ही दोनों बातों के लिए तो बना था बरगी बांध। अब फिर विकास को कुर्बानी चाहिए तो चुटका वालों को परमाणु बिजलीघर के नाम पर हटाने की योजना बनाई गई है। जाने दीजिए चुटका वालों को, पार नर्मदा के किनारे परमाणु बिजलीघर? जरा सी कोई दुर्घटना हो और पूरी नदी विषाक्त हो जाए, आसपास की पूरी जैव विविधता और जंगल जोखिम में या जाएं पर शहरी खामोशी नहीं टूटती। रोज नर्मदा महा आरती करने वाला भक्त समुदाय चुटका पर एक शब्द भी नहीं बोलता। क्यों भला?

क्यों बोले कोई? मध्यम वर्ग ने एक जीवन मंत्र अपना लिया है। खूब कमाओं और खूब खर्च करो। खर्च करने के लिए सोने के बाद अब हीरे का लालच है। और हीरा मिला है बक्सवाहा के जंगलों में। एकदम खरा हीरा। ऊंचे केरेट वाला। लेकिन इसके लिए लाखों पेड़ काटने होंगे। लोग संगठित होकर प्रतिकार कर रहे हैं। हीरा होता है सदा के लिए, ये सिर्फ एक विज्ञापन वाला वाक्य है। लेकिन जंगल वाकई हमेशा के लिए होते हैं। मनुष्य के पहले मौजूद थे और बाद मे भी रहेंगे। लेकिन मनुष्य अगर हीरे के लिए इन जंगलों को काटता रहेगा तो यकीनन वह गैरहाजिर हो जाएगा इन धरती से। सच ही कहा गया है कि मनुष्य पर्यावरण के बिना नहीं रह सकता परंतु पर्यावरण मनुष्य के बिना रह सकता है। रहता ही है। ये धरती करोड़ों साल पुरानी है परंतु मनुष्य का इतिहास महज कुछ लाख वर्ष और सभ्यता की अवधि सिर्फ कुछ हजार साल की ही है।

विकास बहुत जरूरी मसला है। धरती की पूरी आबादी के गुजर-बसर, रोटी,कपड़ा और मकान,शिक्षा-स्वास्थ्य और मनोरंजन आदि के लिए पर्याप्त सुविधाओं की भी जरूरत है ही। शहरी सभ्यता को विघटित नहीं किया जा सकता लेकिन क्या ये जरूरी है कि गांवों को बर्बाद करके सबको शहरों मे ले आया जाए? जिस तरह की नीतियाँ अपनाई जा रही हैं, वे खेती और गाँव को तबाह कर देंगी और कुछ ही सालों मे गांवों मे छोटे किसान और खेत मजदूर रोटी कमाने शहरों की गंदी बस्तियों मे दिखाई दे रहे होंगे। आज भी दिखाई देते हैं। गाँव की गरीबी का विस्तार शहर की गरीबी है। नीतियों से गाँव की बदहाली बढ़ रही है और देश एक बड़ी बस्ती में तब्दील हो रहा है जहां सिर्फ दो घराने मालामाल हो रहे हैं। ये सब आपको राजनैतिक बयान तो नहीं लग रहा? लग रहा है तो फिर पर्यावरण को सबसे पहले आपसे ही बचाने की जरूरत है। ये विनती मेरी नहीं है आपके अपने बच्चों की है। अपने नौनिहालों के लिए भी इस धरती के कुछ संसाधन छोड़कर जाइए न, सब कुछ खुद खत्म करके मत जाइए।

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