सुधीर कुमार सुथार

पिछले दिनों देश की प्रमुख समाजशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता गेल ऑमवेट का निधन हो गया है। ऑमवेट ने भारतीय समाज के हर उस पहलू के साथ संवाद स्थापित करने का प्रयास किया जिसने समाज के कमजोर वर्गों को आवाज़ दी या उनकी आवाज को बुलंद करने में मदद की। बौद्ध धर्म, अंबेडकर के विचार, कबीरपंथी विचारधारा, जाति-व्यवस्था के उन्मूलन हेतु आरम्भ किये गए कार्यक्रम, महात्मा फुले, सामाजिक न्याय के आंदोलन जैसे प्रश्न ऑमवेट के लिए प्रमुख थे।

ऐसे बहुत कम समाज-विज्ञानी होंगे जिनके बारे में उनकी मृत्यु के बाद लोकप्रिय मीडिया में इतने सारे लेख छपे हों जितने पिछले एक हफ्ते में गेल ऑमवेट के बारे में छपे हैं। शायद ही किसी भाषा का कोई अखबार होगा जिसने गेल ऑमवेट के निधन पर कुछ-न-कुछ न छापा हो। भारत में अक्सर समाज-विज्ञानी गुमनाम ही रह जाते हैं खासतौर पर अगर वे किसी विश्वविद्यालय या शोध संस्थान से सम्बधित नहीं हों तो। गेल ऑमवेट इनमें से किसी से भी नहीं जुड़ीं थीं।  उनकी शख्शियत अलग ही थी : एक स्कॉलर और एक्टिविस्ट की। 

उनकी स्कॉलरशिप किसी विश्वविद्यालय की मोहताज नहीं थी और उनका एक्टिविज़्म किसी राजनीतिक संगठन पर निर्भर नहीं था। ऑमवेट ने अपनी लेखनी से भारतीय जनमानस में अपनी जगह बनाई और साथ ही, अगर गाँधी के शब्दों में कहें तो, अपने “कर्मों” से। जीवन भर ऑमवेट वास्तव में हाशिये पर रहने वाले वर्गों के लिए काम करती रहीं, पर उन्होंने कभी भी उनकी आवाज़ होने का दावा नहीं किया। वास्तव में ऑमवेट एक “साथी” के रूप में विभिन्न आंदोलनों के साथ रहीं, एक नेतृत्व के रूप में नहीं। वस्तुतः यही कारण रहा कि देश के विभिन्न आंदोलनों में ऑमवेट की एक खास जगह थी। ये जगह भावनाओं और तर्कों पर आधारित थी, न कि भाषणों या धरना, प्रदर्शनों पर।

ऑमवेट पहली पीढ़ी के उन समाज-विज्ञानियों में थीं जिन्होंने डॉ. अम्बेडकर की पुस्तकों और लिखावट को भारतीय समाज की रोजमर्रा की जाति-व्यवस्था की उलझनों को समझाने के लिए इस्तेमाल किया। ये गौरतलब है कि भारतीय समाज-विज्ञान में डॉ. अम्बेडकर को लम्बे समय तक केवल संविधान निर्माण में उनकी भूमिका के माध्यम से ही प्रस्तुत किया गया। उनकी अन्य लेखनियाँ किस प्रकार आज़ादी से पहले के भारत की राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों को समझने का प्रयास कर रहीं थीं, ये प्रश्न भारतीय समाज-विज्ञान में नदारद था। ऑमवेट ने अपनी रचनाओं के माध्यम से जन-मानस तक डॉ. अंबेडकर की रचनाओं को पहुँचाने  का सफ़ल प्रयास किया।   

अपनी रचनाओं से ऑमवेट ने न केवल अंबेडकर के विचारों को भारतीय राजनीतिक चिंतन परम्परा में रखा, अपितु अपने राजनीतिक कार्यक्रम के माध्यम से जाति उन्मूलन के प्रयासों का हिस्सा भी बनीं। साथ-ही-साथ 1980-90 के दशक के अन्य जन-आंदोलनों से भी ऑमवेट जुडी रहीं। ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ हो या फिर शरद जोशी के नेतृत्व वाला किसान आंदोलन या फिर मानव अधिकारों का सवाल। महाराष्ट्र और उसके आसपास के क्षेत्रों के आंदोलनों से ऑमवेट एक समाज-विज्ञानी और एक कार्यकर्ता की हैसियत से जुडी रहीं। ऑमवेट ने भारतीय समाज के हर उस पहलू के साथ संवाद स्थापित करने का प्रयास किया जिसने समाज के कमजोर वर्गों को आवाज़ दी या उनकी आवाज को बुलंद करने में मदद की। बौद्ध धर्म, अंबेडकर के विचार, कबीरपंथी विचारधारा, जाति-व्यवस्था के उन्मूलन हेतु आरम्भ किये गए कार्यक्रम, महात्मा फुले, सामाजिक न्याय के आंदोलन जैसे प्रश्न ऑमवेट के लिए प्रमुख थे।

इन सब सवालों के माध्यम से ऑमवेट ने ये स्थापित करने का प्रयास किया कि किस प्रकार भारतीय जनतंत्र को एक नया  रूप देने में हाशिये के वर्गों ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बहुजन पर आधारित भारतीय लोकतंत्रीकरण की अवधारणा, जो कि राजनीति विज्ञान में 1990 के दशक के अंत में भारतीय राजनीति के विकास में एक प्रमुख चरण के रूप में पहचानी गयी, ऑमवेट की रचनाओं में ये सवाल 1990 के आरम्भ में ही उभरना शुरू हो चुके थे। अस्सी के दशक में ही महिला आंदोलनों पर ऑमवेट की रचनाएँ काफी चर्चित हो चुकी थीं।

जन-आंदोलनों से ऑमवेट का सम्बन्ध एक समाज-विज्ञानी का तो था ही, साथ ही वे निरंतर जन-आंदोलनों के समाजवादी परम्परा के साथ संबंधों को भी चिन्हित करती रहीं। इसी कड़ी में ऑमवेट ने जन-आंदोलनों की कार्य प्रणाली पर भी लगातार सवाल उठाए। उदाहरणस्वरूप, ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ पर उन्होंने इस आधार पर सवाल उठाये कि कैसे ये आंदोलन आदिवासी नेतृत्व को स्थान देने में नाकाम रहा। इसी प्रकार शरद जोशी के किसान आंदोलन में मजदूरों और छोटे किसानों के सवाल की अवहेलना की भी ऑमवेट ने आलोचना की।

ये सारे प्रश्न ऑमवेट के सन्दर्भ में और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि वे एक युवा शोधार्थी के रूप में जाति के प्रश्न पर शोध करने भारत आयीं थीं। अपना शोध पूरा करने के बाद वे अमेरिका गयीं, परन्तु 1978 में वापस भारत लौट आयीं और यही बस गयीं। भारत में भी ऑमवेट ने किसी मेट्रोपोलिटन शहर के विश्वविद्यालय में नौकरी की बजाय महाराष्ट्र के एक छोटे कस्बे को अपना जीवन बिताने के लिए चुना। ऑमवेट ने अपने आपको केवल एक शोधार्थी की भूमिका तक ही सीमित नहीं रखा। बर्कले विश्वविद्यालय में उनकी संक्षिप्त बायोग्राफी, जो आज भी इंटरनेट पर मौजूद है, में वे कहती हैं कि : “अगर सच कहूं तो भारत में जाति विरोधी संघर्ष में मेरी भूमिका एक मां के समान है।’’ ऑमवेट इस आंदोलन के साथ किस उत्तरदायित्व के भाव के साथ जुड़ीं थीं, इसका बेहतरीन उदाहरण उनका ये वक्तव्य है। इसी ऑटोबायोग्राफी नोट में अपने आपको वे एक “कार्यकर्ता पत्रकार’’ और “अध्येता विशेषज्ञ” बताती हैं जिसका कोई व्यावसायिक पता नहीं है।

इन सबके बीच ये भी बताना आवश्यक है कि वे एक उम्दा इंसान थीं। अभी ऑमवेट के बारे में जिक्र करने पर हमारे एक साथी ने एक वाकिया बताया जब उन्होंने ऑमवेट को एक सेमिनार में बुलाया था। ऑमवेट ने कहा कि आज उनका बोलने का मन नहीं था और वो अपना वायलिन साथ में लायी थीं। उन्होंने कहा कि आज वे एक गाना सुनाएंगी और उन्होंने भाषण देने की बजाय एक गाना सुनाया। शायद ऑमवेट की इसी जिंदादिली ने एक बड़े तबके पर उनका इतना गहरा प्रभाव डाला। ऑमवेट को न केवल उनकी रचनाओं और राजनीतिक कार्यकलापों, अपितु एक बेहतरीन इंसान के तौर पर सदैव याद रखा जायेगा। ऑमवेट को शायद सही श्रद्धांजलि तब होगी जब भारतीय ज्ञान जगत अधिक जनतांत्रिक और संवेदनशील बनकर जन -आंदोलनों के सवाल के साथ जुड़ेगा, जैसा गेल ऑमवेट ने अपने जीवन काल में करके दिखाया।(सप्रेस) 

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