प्रेरणा और विश्वजीत

करीब 13 लंबे सालों तक महात्मा गांधी के घर की हैसियत का ‘साबरमती आश्रम’ पिछले दो साल से सरकार के पर्यटन उद्योग की निगाहों में चढ गया है। नतीजे में गांधी की सादगी, शुचिता और किफायत के मूल्यों को ठेंगे पर मारते हुए ‘साबरमती आश्रम’ को ‘वर्ल्ड-क्लास’ बनाने की सरकारी जुगत बिठाई जा रही है।

गांधी जयन्ती (दो अक्टूबर) पर विशेष

‘साबरमती आश्रम’ को लेकर पिछले दिनों से कई तरह की खबरें आ रही हैं। प्रधानमंत्री ने भी यह संकेत दिया है कि ‘साबरमती आश्रम’ का स्वरूप बदल कर, उसे ‘वर्ल्डक्लास’ बनाया जाए। आधिकारिक तौर ऐसे बदलाव की कोई पक्की जानकारी आज तक किसी ने नहीं दी है, लेकिन लगता है कि कई लोगों और हलकों को इसकी पूरी जानकारी है। यह खबर अभी-अभी आई है कि आश्रम में रहने वाले कई परिवारों से घर खाली करवाया गया है और उनमें रहने वालों को मुआवजा या फिर वैकल्पिक घर देने की बात भी हुई है, हो रही है।

जब यह खबर पहले-पहल 2019 में सामने आयी थी तब गांधी-विचार की तीन प्रमुख संस्थाएं, ‘गांधी शांति प्रतिष्ठान,’ ‘गांधी स्मारक निधि’ और ‘राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय’ के प्रमुख लोगों का ध्यान इसकी तरफ गया था और ‘गांधी शांति प्रतिष्ठान’ के अध्यक्ष कुमार प्रशांत ने अहमदाबाद में इसकी चर्चा और इसके पीछे के खतरों की बात कई जिम्मेवार लोगों से की थी। फिर तीनों संस्थाओं के प्रमुखों के संयुक्त हस्ताक्षरों से एक पत्र ‘साबरमती आश्रम ट्रस्ट’ की प्रमुख इला बेन भट्ट को 2019 के आखिरी दिनों में लिखा गया था जिसमें इस सरकारी योजना पर अपनी चिंता जताते हुए कहा गया था कि हम सबको साथ बैठकर इस बारे में अपनी भूमिका बनानी चाहिए और देश को बतानी भी चाहिए। इला बहन ने इस पत्र की पहुंच भी लिख भेजी थी और यह भी लिखा था कि वे इस पत्र को अपने सभी ट्रस्टियों को भेज रही हैं ताकि आगे की बात सोची जा सके।

बात कुछ आगे बढ़ती इससे पहले ही देश को कोरोना ने अपनी चपेट में ले लिया। देश पर कोरोना महामारी का कर्फ़्यू-सा लाद दिया गया, लेकिन सरकार अपनी सारी शंकास्पद योजनाओं पर पर्दे के पीछे से काम करती रही। गांधीजनों के साथ किसी भी प्रकार के परामर्श के बगैर ‘साबरमती आश्रम प्रोजेक्ट’ बना लिया गया और उसके कार्यान्वयन का कैलेंडर भी तैयार हो गया जिसके मुताबिक अब काम भी शुरू हो गया है।

सन् 1917 में गांधीजी ने अपने पैसों से जमीन का एक टुकड़ा अहमदाबाद के इलाके में आश्रम बनाने के इरादे से खरीदा था। अगले दो-एक वर्षों में अहमदाबाद की जेल और श्मशान के बीच, साबरमती नदी किनारे की जमीन भी उन्होंने दोस्तों की मदद से खरीदी। उनके मन में शायद ऐसा एक प्रतीक भी था कि एक सत्याग्रही को मृत्यु (श्मशान) और जेल के लिए हर वक्त तैयार रहना चाहिए, तो मेरे भावी आश्रम में इन दोनों का मेल हो। इस तरह कुल 100 एकड़ की यह जमीन खरीदी गयी और गांधीजी का साबरमती आश्रम बना।

गांधीजी ने आश्रम से अपने रचनात्मक कामों को आगे बढ़ाने के लिए पांच ट्रस्ट बनाए :  1. ‘साबरमती आश्रम संरक्षण और स्मारक ट्रस्ट,’ 2. ‘साबरमती हरिजन आश्रम ट्रस्ट,’ 3. ‘खड़ी ग्रामोद्योग प्रयोग समिति,’ 4. ‘साबरमती आश्रम गोशाला समिति’ और 5. ‘गुजरात हरिजन सेवक संघ, गुजरात खादी ग्रामोद्योग मंडल।’ इसी के तहत कई दलित परिवारों को आश्रम परिसर में रहने के घर भी दिए गए। उनमें से कई परिवारों की चौथी पीढ़ी आज भी इसी परिसर में रहती है।

गांधीजी इस आश्रम में 1930 तक रहे। ऐतिहासिक ‘नमक सत्याग्रह’ के लिए ‘दांडी कूच’ करने से पहले ही उन्होंने बाजाप्ता यह एलान ही किया कि वे अब साबरमती आश्रम में आजादी पाने के बाद ही पांव रखेंगे। इसलिए वे फिर इस आश्रम में रहने के लिए नहीं लौटे। दो-एक बार जब उन्हें अहमदाबाद आना भी पड़ा तो वे आश्रम में नहीं, कहीं और ही रुके।

गांधीजी की हत्या के छह दिनों के भीतर ही एक समिति का निर्माण किया गया जिसमें जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद सरीखे लोग थे। इन महानुभावों ने मिलकर तय किया कि साबरमती आश्रम में चलने वाले गांधीजी के सारे कामों को तीन भागों में इस तरह संचित किया जाए कि आने वाली पीढ़ियों को उनसे प्रेरणा मिलती रहे। ये तीन भाग थे : ‘संग्रहालय,’ ‘गांधीजी का लेखन’ और ‘उनके रचनात्मक काम।‘

इस समिति के निर्माण के ठीक एक साल बाद ‘गांधी स्मारक निधि’ का गठन हुआ। उसका काम भी गांधीजी के विचारों-कार्यक्रमों का संरक्षण व प्रसार तय किया गया। यह भी तय हुआ कि गांधीजी का काम सरकारी पैसों से नहीं हो सकता है। इसके लिए जन-सहयोग का रास्ता अपनाया जाना चाहिए। इस तरह 1950-53 तक नागरिकों से धन-संग्रह का काम चला। इस दौरान साढ़े पांच करोड़ रुपए देश की आम जनता ने दिए। देशभर के मजदूरों ने अपनी एक दिन की मजदूरी दी। तय यह किया गया कि जनता से जितना पैसा इकठ्ठा होगा, उतना ही योगदान उद्योगपति और धनवान लोगों द्वारा दिया जाएगा। इस तरह ‘गांधी स्मारक निधि’ के पास ग्यारह करोड़ रुपयों की राशि इकठ्ठा हुई।

इस राशि में से 43 लाख रुपये साबरमती आश्रम को मिले। आश्रम ने उसमें से 20 लाख रुपये ‘गुजरात विद्यापीठ’ को बुनियादी तालीम के काम के लिए दिए। बचे 23 लाख रुपयों से वह काम शुरू हुआ जिसे ‘साबरमती आश्रम परिसर’ में रहने वाले सभी ट्रस्टों ने शिद्दत और समर्पण से अब तक चलाया। जेल और श्मशान के बीच के 100 एकड़ के फैलाव में, साबरमती नदी किनारे बसा आश्रम सिकुड़कर अब मात्र 45 एकड़ रह गया है। नदी का किनारा शहर के सौंदर्यीकरण के नाम पर कैद कर दिया गया है।

आश्रम परिसर से उसका इतिहास पहले ही छिन गया था, अब हर बात ‘वर्ल्डक्लास’ की, पर्यटन के विकास की होती है। गांधीजी की दृष्टि और रचनात्मक काम का उनका आग्रह कहीं बचा नहीं है। ‘वर्ल्डक्लास’ बनाने की होड़ इस तरह जारी है कि सादगी व मितव्ययिता के प्रतीक सरदार वल्लभभाई पटैल की 3000 करोड़ रुपए की मूर्ति बनाई गई है, तो 20 करोड़ में जलियांवालाबाग की शक्ल-सूरत रंगीन बनाई गयी है। अब 1200 करोड़ रुपए में साबरमती की बारी आई है। जिन्होंने इतिहास बनाने में कभी हाथ नहीं बंटाया, वे इतिहास सजाने का अभियान छेड़े हुए हैं। हम भी और वे भी भूलते जाते हैं कि जो इतिहास बनाते नहीं हैं, वे इतिहास पहचानते भी नहीं हैं; और जो इतिहास पहचानते नहीं हैं वे जब उसे सजाते हैं तो  उसमें पहली किरकिरी इतिहास की ही होती है।

इसमें कोई शंका नहीं है कि पिछले 70 सालों से गांधीजी के लेखन को, उनकी स्मृतियों को और उस दौर के इतिहास को संजोने का काम आश्रम के कार्यकर्ताओं ने बहुत ही निष्ठा और लगन से किया है। देशभर के वरिष्ठ गांधीजनों ने समय-समय पर उनका मार्गदर्शन भी किया, सहयोग भी दिया। सन् 2004 में, जब गांधीजी के संपूर्ण वांग्मयको गलत ढंग व इरादे से विकृत करने की कोशिश की गई थी, तब भी सबसे पहली आवाज यहीं से उठी थी। यहीं के प्रयासों से वह सारी कोशिश नाकाम हुई थी और सारा वांग्मय डिजिटाइज हुआ था। आज भी गांधी को, गांधी-साहित्य को, इतिहास के तथ्यों को बदलने की गलत कोशिशें होती रहती हैं और आश्रम, गुजरात विद्यापीठ जैसी संस्थाएं उनसे लड़ती भी रहती हैं।

हमारी यह भूमिका यदि प्रशंसनीय है तो यह सच भी बेहद डरावना है कि हमारे होते हुए भी सरकारों ने लगातार ही गांधीजी से अलग दिशा व उल्टी सोच से काम किया है। पिछले सात सालों से यह उल्टी दौड़ बड़ी तेजी से व गहरी योजना के साथ आगे बढ़ाई जा रही है। कोशिश यह हो रही है कि देश के सभी संस्थानों में हिंदुत्व की विचारधारा के लोगों को इस तरह बिठाया जाए कि गांधीजी के सर्वधर्म समभाव के इतिहास व प्रयास के साथ छेड़खानी आसानी से हो सके। इसके एक नहीं, अनेक प्रमाण हैं जिसे सारा देश देख भी रहा है, और जान भी रहा है।  गांधीजी की दिशा की हर सोच को नियंत्रित करने का काम, ऐसा सोचने व मानने वालों पर गहरी निगरानी का काम अब लगभग अपने अंतिम चरण में पहुंचा है। इनकी घुसपैठ लगभग सभी गांधी-संस्थाओं में हुई है, हो रही है और यह योजनाबद्ध काम बड़ी बारीकी से, लेकिन सत्ता के जोर पर किया जा रहा है।(सप्रेस) 

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