वाराणसी में ‘परंपरा की खोज’ पर हुई ज्ञान पंचायत

सुनील सहस्‍त्रबुद्धे

वाराणसी के अस्सी घाट पर 1 मई 2022 को वाराणसी ज्ञान पंचायत का आयोजन हुआ. विषय था ‘परंपरा की खोज’. सन्दर्भ रहा नामवर सिंह की पुस्तक ‘दूसरी परंपरा की खोज’ जिसमें उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदी के लेखन के मार्फ़त साहित्य में संत परंपरा की भूमिका की मौलिकता उजागर की है. चूँकि 1 मई नामवर सिंह का जन्म दिन भी माना जाता है. संयोगवश हजारी प्रसाद की पुण्यतिथि भी इसी माह की 19 तारीख को पड़ती है. कहने की आवश्यकता नहीं है दोनों का गहरा जुड़ाव वाराणसी से रहा, जहाँ उनकी उपस्थिति को आज भी महसूस किया जाता है.

उगते सूरज के आत्मोत्सर्ग के आवाहन में गंगाजी के किनारे अस्सी घाट पर पीपल के नीचे बैठकर लोकविद्या सत्संग के पदों की गायकी से ज्ञान पंचायत की शुरुआत हुई. संत वाणी में लोकविद्या दर्शन बिखरा पड़ा है. कबीर के पदों पर आधारित इस लोकविद्या गायकी में कारीगर समाजों को बड़ा स्थान है. बुनकर, किसान, रंगरेज़, धोबी, लोहार, कलवार, बहेलिया, बनिया, स्त्री आदि समाजों के मूल्यों, जीवन व कार्यों के मार्फ़त ज्ञान और दर्शन की मौलिक स्थापनाओं को सामू भगत, सर्विंद पटेल और युद्धेश ने गा कर सामने लाया.

लोकविद्या जन आन्दोलन की राष्ट्रीय संयोजक चित्रा जी ने इस बात पर बल दिया कि भारत के लिए मजदूर दिवस का महत्त्व कारीगर दिवस के रूप में ही हो सकता है, उस कारीगर की ज़िन्दगी पर प्रगाढ़ नज़र डालने के लिए, जो अपना सारा काम अपनी विद्या के बल पर करता है. और जिसे केवल उसके श्रम की आधी-चौथाई मजदूरी मिलती है, उसके ज्ञान का मूल्य तो आँका भी नहीं जाता, भुगतान तो दूर की बात है. अमेरिका के मज़दूरों के 1 मई के महान संघर्ष को लोकविद्या की प्रतिष्ठा के लिए आवश्यक संघर्ष के सन्दर्भ में तब्दील कर दिया जाना चाहिए. लोकविद्या यानि मेहनतकाश वर्गों की ज्ञान परंपरा. इसी में परंपरा की किसी भी खोज के मूल तत्व ढूंढ़े जाने चाहिए. इस भूमि की परम्परा में ज्ञान-विज्ञान और कला के बीच कोई दीवार नहीं खड़ी की गई. उलटे बहुत बार तो दोनों को अलग-अलग पहचानना मुश्किल हो जाता है. रोजमर्रे के कार्यों यानि सामान्य जीवन की गतिविधियों में ललित कला और ज्ञान-विज्ञान दोनों ही व्यापक तौर पर मिश्रित/एकीकृत दिखाई देते हैं. यह परम्परा विभेदीकरण की नहीं बल्कि संश्लेषण की है. यह भी कहा जा सकता है कि यह सत्य के निर्माण और पुनर्निर्माण की परंपरा है.

स्वराज अभियान के रामजनम संचालन कर रहे थे. उन्होंने शुरू में ही विषय की स्थापना करते हुए परंपरा की खोज के बहुआयामी विस्तार को रेखांकित किया और परम्परा की ओर देखने की उस दृष्टि का आग्रह किया जो स्वराज और स्वदेशी की मौलिकता पहचानने और इनके फौरी महत्त्व को उजागर करने में मदद करे.

आमंत्रित वक्ता के रूप में बोलते हुए प्रगतिशील लेखक संघ के संजय श्रीवास्तव ने नामवर सिंह के बारे में कुछ रोचक तथ्य बताते हुए परंपरा की विविधता की ओर ध्यान आकर्षित किया. विशेषकर यह कहा कि ज्ञान-परंपरा की चर्चा में अक्सर चार्वाक और लोकायत को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है. इससे परम्परा की समझ बनाने में खामी रह जाती है. जिस मध्य युगीन भक्ति/ज्ञान/साहित्य परम्परा को हजारी प्रसाद के लेखन ने पुनर्जागृत किया और नामवर सिंह ने बड़ी सफाई से सबको समझाया वह ज्ञान-परंपरा बहुत पुरानी है, बुद्ध और चार्वाक के समय तक तो जाती ही है.

बीएचयू के प्रोफ़ेसर रामाज्ञा शशिधर का उल्लेख विशेषरूप से किया जाना चाहिए. उन्होंने अपने वक्तव्य से पंचायत को विशेष तौर पर समृद्ध किया. यह बताया कि किस तरह हजारी प्रसाद ने भारतीय परंपरा के गर्भ से संतों की वाचिक परंपरा को सामने लाकर रख दिया. उन्होंने इस बात को समझाया कि यूरोप में ज्ञान को सत्ता के रूप में देखा गया जबकि भारत में संवाद, पंचायत और लोक के साथ क्रियात्मक सम्बन्ध में ज्ञान निर्मित और पुनर्निर्मित होता रहा. इस बात का महत्त्व यह कहकर भी बताया कि नामवर सिंह शुरू के कुछ साल तो लिखते रहे लेकिन बाद में सालों घूमते रहे, लोक के बीच जाते रहे और अपनी बात कहते रहे, जिसमें उच्च दर्शन और रोजमर्रे की मनुष्य की ज़रूरतों का बढ़िया समन्वय देखने को मिलता है. परम्परा लोकस्थ होती है और वाचिक होती है यह बात नामवर के जीवन में चरितार्थ होती देखी जा सकती है.

ज्ञान परम्परा के पुनरुज्जीवन और संवर्धन का स्थान और तरीका, काशी और पंचायत, एक आशा बांधता है.एक और महत्वपूर्ण वक्तव्य सुनील सहस्रबुद्धे का हुआ. उन्होंने अपनी बात किसान आन्दोलन से शुरू की और कहा कि किसान इस देश की तर्क परम्परा के वाहक हैं. कोई भी ज्ञान, समझ, कला, संचार सभी कुछ अपनी तर्क की विधा के साथ एकीकृत होता है. उसे उसकी तर्क की विधा से अलग कर दीजिये अथवा तर्क की किसी दूसरी विधा को उस पर फिट करने की कोशिश कीजिये तो वह नष्ट हो जायेगा. आप जो करना चाहते हैं वह नहीं कर पाएंगे. उन्होंने कहा कि परम्परा लोकस्थ ही होती है, जिस तरह लोकविद्या लोकस्थ ही होती है. लोक के बाहर इनका रूप और सार बिलकुल अलग हो जाता है. सूत्र के रूप में समझें तो परम्परा में जानकारियों का भण्डार होता है, मूल्यों की एक व्यवस्था होती है और तर्क की एक विधा होती है, जो सब लोकसम्मत होता है. आप चाहें कि लोकविद्या का भण्डारण कंप्यूटर में कर लें तो यह नहीं हो पायेगा. क्योंकि कंप्यूटर में संयोजन, गति और बदलाव का तर्क अलग है. लोक में यह तर्क अलग है. कंप्यूटर में मूल्यों की व्यवस्था अलग है, अथवा कंप्यूटर मूल्यों के प्रति निरपेक्ष होता है. जबकि लोक में सभी कुछ मूल्यों से निर्देशित होता है. जानकारियों का एक स्थिर भंडारण कंप्यूटर में हो सकता है तथापि परम्परा तो सर्वथा गतिशील होती है और इसीलिए अपने वाचिक रूप में ज्यादा पहचानी जाती है. वाचिक परम्परा अथवा लोकविद्या आम आदमी की तर्कबुद्धि से मेल खाती है. उसी के साथ जीती और संवर्धित होती रहती है.

अंत में प्रेमलताजी ने इस अवसर के लिए लिखी लोक जीवन को समर्पित अपनी कविता प्रस्तुत की- “ज्ञान, कर्म, कौशल, श्रम अलग कहाँ, दूध और पानी जैसे घुला-मिला‘किसान कारीगर रचें नव विहान, आओ, विचारों को एक नयी धार दें.” पंचायत में कई संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की भागीदारी रही.

भारतीय किसान यूनियन के लक्ष्मण प्रसाद और कृष्ण कुमार, बुनकर साझा मंच से फ़ज़लुर्रहमान अंसारी, माँ गंगा निषादराज सेवा समिति से हरिश्चंद्र बिन्द, जय गुरुदेव संप्रदाय से अशोक शर्मा. वाराणसी के सामाजिक कार्यकर्त्ता समूह से रविशेखर, प्रेमलताजी और बीएचयू के कुछ छात्र और छात्राएं.

उल्‍लेखनीय है कि वाराणसी ज्ञान पंचायत एक प्रक्रिया है, जहाँ ज्ञान पर मंथन, चिंतन और जन सुनवाई होती है. इस पंचायत में किसान, कारीगर, प्रोफ़ेसर, स्त्रियाँ, डाक्टर, इंजीनीयर, रिक्शाचालक, अध्यापक, कलाकार सभी के ज्ञान को बराबर सम्मान है. विविध, धर्म, जाति, विचारधारा, और व्यवसाय से जुड़े लोगों को बराबर की मान्यता हैं.

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1 टिप्पणी

  1. मजदूर दिवस कामगार कारीगर मजदूर–जो भी नाम दें–उनके ऐतिहासिक संघर्ष बलिदान और एक बड़ी सफलता का यादगार दिन है। यह विश्व मान्य तथ्य है, इसके लिए किसी खास विचार धारा की कसम खाना जरूरी नहीं। ज्ञान दान चिंतन मंथन, उस इतिहास को याद करते हुए किया जा सकता है–उस नाम को मिटा कर न किया जाए तो बेहतर होता। अब तो हर तरह के कामगार के हक़ छीने जा रहे हैं–आठ घंटे आदि की उपलब्धियां भी इस नये किस्म के अर्थतंत्र ने स्वाहा कर दी हैं। उदाहरण देने की जरूरत है?

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