अनंत जौहरी

लोकतंत्र की बदहाली किसी से छिपी नहीं है,लेकिन उसे वापस पटरी पर कैसे लाया जाए?

आजादी के 75 वें वर्ष में कुछ माह के अंतराल से दो अति महत्वपूर्ण राष्ट्रीय घटनायें हुईं जिनका संबंध देश की सौ प्रतिशत जनता से है। पहली घटना ‘तीन कृषि कानूनों’ के बनने और उसे रद्द होने की है। दूसरी घटना देश की आर्थिक राजधानी के राज्य महाराष्ट्र में घटी जिसमें भारी संख्या में विधायकों ने राज्य की सरकार ही बदल दी।

कहा जाता है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। अमेरिका के 16 वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतंत्र की परिभाषा दी थी ‘जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिये शासन।’

दो सौ वर्षों के ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ और ब्रिटिश-राज्य के विरूद्ध लड़ाई से प्राप्त आजादी के तत्कालीन नायकों ने इस आजादी के बाद इसी लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली को स्वीकार किया।  

इस प्रतिनिधित्व लोकतंत्र की बड़ी सामान्य विधा है कि उसमें क्षेत्र वार मतदाता अपना प्रतिनिधि चुनेगा। प्रतिनिधि सबंधित सदन में उपस्थित होकर प्रतिनिधियों के सबसे बड़े समूह को सरकार बनाने की स्वीकृति देगा। विधायिका द्वारा कार्यपालिका का गठन किया जायेगा।

सदन की बैठक में विचारार्थ विषय पेश होने पर सभापति चर्चा कराकर बहुमत द्वारा निर्णय लेगा जिसका क्रियान्वय कार्यपालिका यानि सरकार द्वारा कराया जायेगा।

कृषि कानून का सबंध देश के सौ प्रतिशत लोगों के भोजन से संबंधित था। राज्य संचालन में नीति, नियम, कानून, कार्यक्रम और वजह ऐसे पांच आयाम हैं जो भोजन, पानी, ऊर्जा, शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्था, रोजगार आदि बुनियादी विषयों पर सौ प्रतिशत लोगों के जीवन से जुड़े हैं।

संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में संविधान द्वारा प्रदत्त व्यवस्था में किसी कानून के बनने या संशोधन आदि का निर्णय सरकार नहीं लेती। वह प्रस्ताव करती है और सदन के उपस्थित सदस्य निर्णय लेते हैं, यानि निर्णय का अधिकार संबंधित क्षेत्र की जनता के प्रतिनिधि का है।

प्रतिनिधि धर्म कहता है कि प्रतिनिधि को अपने नियोक्ता के निदेश, सम्मति, सुझाव एवं संविधान के मूल अधिकार (अध्याय), नीति निदेशक तत्वों (अध्याय) आदि के अनुसार स्वतंत्र होकर निर्णय लेना चाहिए।

परंतु व्यवहार में हम देख रहे हैं कि किसी भी सदन में विचारार्थ, किसी भी विषय पर प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के मतदाता के पास न तो निर्णय के पूर्व जाता है और न ही निर्णय के बाद जाकर बताता है।

ऐसे में कैसे कहा जायेगा कि ‘जनता के द्वारा, जनता के लिए’ निर्णय लिया गया। दल-बदल कानून ने प्रतिनिधि की स्वतंत्रता नियंत्रित की है। प्रत्येक दल उन्हें व्हीप (चाबुक) द्वारा निर्देशित करता है कि उसे पार्टी के निर्णय के अनुसार वोट देना है। इस पद्धति में प्रतिनिधि ‘जनता’ का नहीं रह जाता। तो ‘जनता के द्वारा, जनता के लिए’ कैसे कहा जायेगा।

दूसरी घटना जिसमें दलबदल सरकार बनाई गई उसमें प्रतिनिधि को अपने पक्ष में मतदाता के पास याने पार्टी समर्थक के पास जाकर सहमति लेनी चाहिये थी एवं जिस पार्टी को समर्थन दे रहे हो उनके प्रतिनिधियों को भी अपने समर्थक मतदाता के पास जाना चाहिये था। प्रत्येक दल की भिन्नता उनकी विचारधारा, जिसमें आर्थिक नीतियों भी होती हैं, के कारण होती है।

अन्ना आंदोलन के समय एक नारा उठा था ‘प्रतिनिधि हमारी बात सुने, हमारी बात माने।’ यह बात मतदाता अपने प्रतिनिधि से आग्रह के साथ कहें। ऐसा होने पर और पार्टियों द्वारा सदन में व्हिप का प्रयोग केवल सरकार गिराने या बनाने में करने के अलावा कानून, बजट आदि में कदापि नहीं करना चाहिए।

मतदाता को प्रतिनिधि से यह भी कहना चाहिये वह अपनी पार्टी के निर्णय लेने के लिये व्हीप का प्रयोग न करें और उन्हें उपस्थित विषय पर स्वतंत्र होकर मतदान करने दे। तब ही देश लोकतांत्रिक और स्व-राज्य का देश कहा जायेगा। (सप्रेस)

[block rendering halted]

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें