प्रमोद भार्गव

अध्ययन के अनुसार 1947 में कोई एक हजार के करीब नलकूप पूरे देश में थे, जिनकी संख्या अब कई करोड़ हो गई है। सस्ती अथवा मुफ्त बिजली देने से नलकूपों की संख्या में और बढ़ोत्तरी हुई है। पंजाब और मध्यप्रदेश की सरकारों ने किसानों को मुफ्त बिजली देकर नलकूप खनन को बेवजह प्रोत्साहित किया हुआ है। पंजाब के 12, हरियाणा के 3, मध्यप्रदेश के 15 जिलों से पानी ज्यादा निकाला जा रहा है, जबकि वर्षाजल से उसकी भरपाई नहीं हो पा रही है।

हमारे देश में बीते 77 सालों के भीतर जिस तेजी से कृत्रिम, भौतिक और उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देने वाली वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा है, उतनी ही तेजी से प्राकृतिक संसाधनों का या तो क्षरण हुआ है या उनकी उपलब्धता घटी है। ऐसे प्राकृतिक संसाधनों में से एक है ‘पानी’ ! ‘जल ही जीवन है’ की वास्तविकता से अवगत होने के बावजूद पानी की उपलब्धता भूमि के नीचे और ऊपर निरंतर कम होती रही है। नतीजतन भारत तेजी से भू-जल की कमी के चरम बिंदु की ओर बढ़ रहा है। कुछ क्षेत्र पहले से ही इस स्थिति का सामना कर रहे हैं और कुछ में 2025 तक इसका असर दिखना शुरू हो जाएगा। यह संकट जल और खाद्यान दोनों की उपलब्धता को प्रभावित करेगा।

हाल ही में जारी आईआईटी गांधीनगर के शोधकर्ताओं का अध्ययन बताता हैं कि जलवायु परिवर्तन के चलते खाद्यान्न की खान कहे जाने वाले उत्तर भारत ने पिछले 20 साल में अपनी बहुमूल्य 450 घन किमी भूजल संपदा को बर्बाद कर दिया है। यह संपदा इतनी बड़ी है कि इससे देश के सबसे बड़े जलाशय इंदिरा सागर बांध को 37 बार लबालब भरा जा सकता है। इस भू-भाग में मानसूनी बारिश की कमी और सर्दियों में अपेक्षाकृत बढ़ते गर्म दिनों के चलते फसलों की सिंचाई के लिए भूजल की निर्भरता निरंतर बढ़ रही है। गोया, भूमि के भीतर का पानी लगातार घट रहा है। बरसाती जल को सहेजने के प्रयास चर्चा में तो बहुत रहते हैं, लेकिन नतीजे ढांक के तीन पात ही रहे हैं।

सुधारतियों ने अपने अध्ययन में पाया है कि समूचे उत्तर भारत में 1951-2021 की अवधि के दौरान बरसात के मौसम (जून से सितंबर) में बारिश में 8.5 प्रतिशत की कमी आई है। इसी अवधि के दौरान इस क्षेत्र में सर्दियों के मौसम में तापमान 0.3 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। हैदराबाद स्थित राष्‍ट्रीय भू-भौतिकी अनुसंधान संस्थान (एनजीआरआई) के सुथारतियों के दल ने अध्ययन में पाया है कि मानसून के दौरान कम बारिश होने और सर्दियों के दौरान तापमान बढ़ने के कारण सिंचाई के लिए पानी की मांग बढ़ेगी और इसके कारण भूजल पुनर्भरण में कमी आएगी। नतीजतन उत्तर भारत में पहले से ही कम हो रहे भूजल संसाधन पर और अधिक दबाब बढ़ेगा।

अध्ययन में पाया कि मानसून के दौरान बारिश कम होने से भूजल की अधिक जरूरत पड़ती है और सर्दियों में तापमान अधिक होने से मिट्टी अपेक्षाकृत शुष्‍क हो जाती है। फलस्वरूप बार-बार फसल को सिंचाई की जरूरत होती है। जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश की कमी और बढ़ते तापमान के चलते भूजल पुनर्भरण में लगभग छह-12 प्रतिशत की कमी आने का अनुमान है। इसी कालखंड में सिंचाई के लिए पानी की मांग बढ़ गई है। अतएव हमें अधिक दिनों तक धीमी बारिश की जरूरत है। परंतु विडंबना है कि बारिश पर अधिकार आदमी का नहीं है।

भारत दुनिया में सबसे ज्यादा भू-जल का इस्तेमाल करता है। यह अमेरिका और चीन दोनों के कुल प्रयोग से कहीं अधिक है। भारत का उत्तरी-पश्चिमी इलाका देश की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से अहम् है, लेकिन यहां तेजी से भू-जल का स्तर गिर रहा है। नतीजतन इसके दुष्‍परिणाम 2025 तक दिखना शुरू हो जाएंगे।

संयुक्त राष्‍ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 70 फीसदी जल का उपयोग खेती-किसानी के लिए होता है। दुनिया की छह पर्यावरणीय प्रणालियां जल का स्तर नीचे गिरने और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के चलते संकट के चरम बिंदु पर हैं। यदि हालात नहीं बदले तो जीव-जंतु विलुप्त होंगे, भू-जल घटेगा, हिमखंड पिघलेंगे और यदि अंतरिक्ष में कचरा बढ़ता रहा तो असहनीय गरमी पड़ेगी। जो जीव-जगत के भविष्य के लिए चिंताजनक है। प्राकृतिक संपदा का दोहन और उसमें अनावश्यक हस्तक्षेप विनाशकारी बदलाव लाएंगे। इसका पारिस्थितिकी तंत्र, जलवायु पद्धति और समग्र पर्यावरण पर गंभीर असर दिखेगा। रिपोर्ट के अनुसार सऊदी अरब में पहले से ही भू-जल अधिकतम निचले स्तर पर है।

भारत दुनिया में सबसे ज्यादा भू-जल का इस्तेमाल करता है। यह अमेरिका और चीन दोनों के कुल प्रयोग से कहीं अधिक है। भारत का उत्तरी-पश्चिमी इलाका देश की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से अहम् है, लेकिन यहां तेजी से भू-जल का स्तर गिर रहा है। नतीजतन इसके दुष्‍परिणाम 2025 तक दिखना शुरू हो जाएंगे। जल स्रोत सूखने लग जाएंगे, जिसका असर खेती पर पड़ेगा। आजादी के दौरान प्रति व्यक्ति सालाना दर के हिसाब से पानी की उपलब्धता छह हजार घनमीटर थी, जो अब घटकर करीब डेढ़ हजार घनमीटर रह गई है। जिस तेजी से पानी के इस्तेमाल के लिए दबाव बढ़ रहा है और जिस बेरहमी से भूमि के नीचे के जल का दोहन नलकूपों से किया जा रहा है, उससे यह निश्चित-सा हो जाता है कि अगले कुछ साल बाद जल की उपलब्धता घटकर बमुश्किल सोलह सौ की जगह हजार-ग्यारह सौ घनमीटर रह जाएगी। टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट (टेरी) के अनुसंधानपरक अध्ययनों से साबित हुआ है कि भूमिगत जल का आवश्यकता से अधिक प्रयोग से भावी पीढ़ियों को कालांतर में जबरदस्त जल संकट का सामना करना होगा। नलकूपों के उत्खनन संबंधी जिन आंकड़ों को हमने ‘क्रांति’ की संज्ञा दी थी, दरअसल यह संज्ञा तबाही की पूर्व सूचना थी, जिसे हम नजरअंदाज करते चले आ रहे हैं। परंतु यह आशंका अब सच्चाई में बदलती नजर आ रही है।

खाद्यान्न सुलभता के आंकड़ों को पिछले 77 साल की एक बड़ी उपलब्धि बताया जा रहा है, लेकिन इस खाद्यान्न उत्पादन के लिए जिस हरित क्रांति प्रौद्योगिकी का उपयोग किया गया है, उसके कारण नलकूपों की संख्या कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ी, फलस्वरूप उतनी ही तेजी से भूमिगत जल की उपलब्धता घटी । केन्द्रीय भूजल बोर्ड के अनुसार नलकूप खुदाई की आमतौर से प्रचलित तकनीक गलत है। इसके लिए जमीन के भीतर तीस मीटर तक विधिवत सीलिंग होनी चाहिए ताकि जमीन की इस गहराई वाले हिस्से का पानी अपने क्षेत्र में सुरक्षित रहे। इसके बाद नीचे की खुदाई जारी रखनी चाहिए। इस तकनीक के अपनाने से खर्च में 30 हजार रूपये की बढ़ोत्तरी जरूर होती है, लेकिन भू-जल स्तर में गिरावट नहीं आती। लेकिन इस तकनीक के अनुसार नलकूपों का उत्खनन देश में नहीं किया गया।

अध्ययन के अनुसार 1947 में कोई एक हजार के करीब नलकूप पूरे देश में थे, जिनकी संख्या अब कई करोड़ हो गई है। सस्ती अथवा मुफ्त बिजली देने से नलकूपों की संख्या में और बढ़ोत्तरी हुई है। पंजाब और मध्यप्रदेश की सरकारों ने किसानों को मुफ्त बिजली देकर नलकूप खनन को बेवजह प्रोत्साहित किया हुआ है। पंजाब के 12, हरियाणा के 3, मध्यप्रदेश के 15 जिलों से पानी ज्यादा निकाला जा रहा है, जबकि वर्षाजल से उसकी भरपाई नहीं हो पा रही है। गुजरात के मेहसाणा और और तमिलनाडु के कोयम्बतूर जिलों में तो भूमिगत जल एकदम खत्म ही हो गया है। हरियाणा के कुरूक्षेत्र और महेन्द्रगढ़, मध्यप्रदेश के खण्डवा, खरगोन और भिण्ड जिलों में प्रति वर्ष जल की सतह आधा मीटर नीचे खिसक रही है। जल के नीचे उतर जाने से इस जल को ऊपर खींचने में ज्यादा बिजली खर्च हो रही है। जिन जल क्षेत्रों में पानी का अत्याधिक दोहन हो चुका है, वहां पानी खींचने के खर्च में 5000 करोड़ रुपये का इजाफा हुआ है। सिंचाई के लिए सौर्य ऊर्जा संयंत्रों पर छूट इनकी संख्या बढ़ा रही है। 

नलकूपों से बड़ी मात्रा में खनन से कुओं के जलस्तर पर जबर्दस्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। कुओं की हालत यह है कि 75 प्रतिशत कुएं हर साल दिसम्बर माह में, 10 प्रतिशत जनवरी में और 10 प्रतिशत अप्रैल माह में सूख जाते हैं। एक ट्यूबवैल 5 से 10 कुओं का पानी सोख लेता है।

जल विशेषज्ञ और पर्यावरणविद् भी अब मानने लगे हैं कि जल स्तर को नष्ट करने और जल धाराओं की गति अवरुद्ध करने में नलकूपों की मुख्य भूमिका रही है। नलकूपों के खनन में तेजी आने से पहले तक कुओं में लबालब पानी रहता था, लेकिन सफल नलकूपों की पूरी एक श्रृंखला तैयार होने के बाद कुएं समय से पहले सूखने लगे हैं। भूमि संरक्षण विभाग के अधिकारियों का इस सिलसिले में कहना है कि भूमि में 210 से लेकर 330 फीट तक छेद (बोर) कर दिए जाने से धरती की परतों में बह रही जलधाराएं नीचे चली जाती हैं। इससे जलस्तर भी नीचे चला जाता है। नलकूपों का खनन करने वाली आधुनिक मशीनों के चलने में धरती की परतों का बहुत बड़ा क्षेत्र प्रकंपित होता है। इससे अविरल बह रही जलधाराओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। नतीजतन सैंकड़ों साल की प्रक्रिया से अस्तित्व में आने वाली जलधाराओं की संरचना अस्त-व्यस्त हो जाती है। जबकि जलस्तर को स्थिर बनाए रखने में यही धाराएं सहायक रहती हैं। अंधाधुंध नलकूपों के गहरीकरण पर तत्काल नियंत्रण लगाकर इसके वैकल्पिक उपाय नहीं तलाशे गए तो कालांतर में जबर्दस्त संकट जल की कमी और जल प्रदूषण का होगा। इस समस्या के निराकरण के सार्थक उपाय बड़ी मात्रा में पारंपरिक जलग्रहण के भण्डार तैयार करना है। पारंपरिक मानते हुये जलग्रहण की इन तकनीकों की हमने पिछले 77 सालों में घोर उपेक्षा की है।

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