प्रशांत कुमार दुबे

शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक विकलांग बच्चों की पहुँच अभी भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। हालांकि सरकार ने विकलांग बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की कई योजनाएँ चलाई हैं, लेकिन इन योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। समाज के स्तर पर भी सभी हितधारकों को मिलकर इन चुनौतियों से निपटना होगा, ताकि विकलांग बच्चों को समान अधिकार, सम्मान और अवसर मिल सकें।

विकलांग बच्चों की सुरक्षा और कल्याण के संदर्भ में महत्वपूर्ण है कि स्वतंत्रता के वास्तविक अर्थ को समझा जाए। 15 अगस्त को हम देश की आजादी का जश्न मनाते हैं, लेकिन क्या विकलांग बच्चों को भी वह आजादी प्राप्त हो पाई है, जिसकी उन्हें आवश्यकता है? जब तक ये बच्चे समान अधिकार, सम्मान और अवसर प्राप्त नहीं कर पाते, तब तक उनकी स्वतंत्रता अधूरी ही है। आज़ादी का मतलब केवल विदेशी शासन से मुक्ति नहीं है, बल्कि यह हर व्यक्ति के लिए एक समान अधिकार और सम्मान का अधिकार भी है। स्वतंत्रता दिवस हमें याद दिलाता है कि विकलांग बच्चों की असली आजादी के लिए संघर्ष जारी रखना है, ताकि वे भी इस समाज में आत्मसम्मान के साथ जी सकें।

इसी पृष्ठभूमि में अगस्त के पहले सप्ताह में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की ‘किशोर न्याय समिति’ ने विकलांग बच्चों के अधिकारों और उनके समक्ष आ रही चुनौतियों पर एक राज्य स्तरीय सम्मेलन आयोजित किया था। उच्चतम न्यायालय की पहल पर पूरे देश में इस तरह का यह पहला सम्मेलन था जिसमें वे सभी हितधारक शामिल हुए थे जिनका संबंध, प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से विकलांग बच्चों से है। सम्मेलन का मूल विचार 2016 में ‘विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम’ (वर्ष 2019 में संशोधित) से लिया गया था जिसमें विकलांग व्यक्तियों के समान अधिकार और उनकी पूर्ण भागीदारी को संभव बनाने की बात की गई है। यह भागीदारी कैसे संभव होगी और इसे संभव बनाने के किये क्या प्रयास किये जा रहे हैं?

सम्मेलन में विकलांग बच्चों के साथ काम कर रहीं संस्थाओं/संगठनों के प्रतिनिधि और स्वयं विकलांग बच्चे भी सम्मिलित हुए थे। उन्होंने बताया था कि चुनौतियां कई स्तर की हैं, कई बार सरकार के स्तर की तो कई बार समाज के स्तर की। विकलांग बच्चों को समाज में अक्सर भेदभाव और सामाजिक कलंक का सामना करना पड़ता है। कई बार उन्हें अपने समुदाय और परिवार से भी आवश्यक सहयोग नहीं मिलता। इस कारण वे मानसिक और भावनात्मक तनाव का शिकार होते हैं, जो उनके आत्मविश्वास को प्रभावित करता है और उनकी शिक्षा और विकास में बाधा उत्पन्न करता है।

शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक विकलांग बच्चों की पहुँच अभी भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। हालांकि सरकार ने विकलांग बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की कई योजनाएँ चलाई हैं, लेकिन इन योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। विकलांग बच्चों को अक्सर सामान्य स्कूलों में दाखिला नहीं मिलता, जिससे उनकी शिक्षा अधूरी रह जाती है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ संसाधनों की कमी होती है।

एक चुनौती यह भी है कि विकलांग बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए कई अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताएं और कानूनी ढाँचे मौजूद हैं, जैसे ‘विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016’ और ‘किशोर न्याय अधिनियम, 2015’ आदि। इसके अलावा विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर ‘संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन’ (सीआरपीडी) है जिसे भारत ने भी 2007 में स्वीकार किया है। यह विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों और उनके सम्मान की रक्षा करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबद्धता प्रदान करता है, पर इन सभी प्रतिबद्धताओं और क़ानूनी प्रावधानों का प्रभावी कार्यान्वयन एक बड़ी चुनौती है। ‘किशोर न्याय समिति’ ने इस सम्मेलन में बल दिया था कि इन कानूनों के सख्त अमल और न्यायिक निगरानी की आवश्यकता है, ताकि विकलांग बच्चों को उनके अधिकार प्राप्त हो सकें।

एक बड़ी चुनौती विकलांग बच्चों के लिए संस्थागत देखभाल के क्षेत्र में आने वाली कठिनाइयां हैं। संस्थानों में विकलांग बच्चों की देखभाल का स्तर अक्सर सामान्य बच्चों से काफी नीचे होता है। ‘यूनिसेफ’ की विकलांग बच्चों से संबंधित ‘फैक्टशीट – अगस्त 2022’ से प्राप्त वैश्विक डेटा बताता है कि संस्थानों में तीन बच्चों में से अनुमानित एक विकलांग बच्चा है। इसके अलावा, विकलांग बच्चे ‘बाल-देखभाल संस्थानों’ में असमान रूप से रह रहे हैं। कुछ अनुमानों से पता चलता है कि ऐसे संस्थानों के सभी युवाओं में से 25% में बौद्धिक विकलांगता या मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति है। इस अध्ययन के अनुसार संस्थागत देखभाल में विकलांग बच्चों की मृत्युदर अन्य बच्चों की तुलना में 100 गुना अधिक है। यह आँकड़ा बताता है कि इन संस्थानों में सुधार की आवश्यकता है, ताकि विकलांग बच्चों को उचित देखभाल और सुरक्षा मिल सके।

इसके अलावा विकलांग बच्चों के कल्याण के लिए कार्यरत कर्मचारियों की क्षमता और कौशल का स्तर भी एक महत्वपूर्ण चुनौती है। ‘जिला बाल संरक्षण इकाई’ के कार्यकर्ताओं को विकलांग बच्चों की विशिष्ट जरूरतों को समझने और उनकी सहायता करने के लिए विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता है। इसके अलावा विकलांग बच्चों की देखभाल और पुनर्वास के लिए आवश्यक संसाधनों की कमी भी एक बड़ी बाधा है।

जिन संस्थाओं में बैठकर इन बच्चों के संबंध में फैसले लिये जाते हैं, क्या वे इस तरह से बनाई गई हैं कि वहां बच्चे आसानी से पहुँच पायें? और जो व्यक्ति इन बच्चों के संबंध में फैसले लेते हैं, उन संरचनाओं से जुड़े व्यक्तियों का प्रशिक्षण क्या इस संदर्भ में हुआ है? यदि नहीं, तो सोचिए वे इन बच्चों के संबंध में कैसे फैसले लेते होंगे या लेंगे? क्या आज यह आवश्यकता नहीं है कि ‘जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड’ (जेजेबी) और ‘बाल कल्याण समितियों’ में विकलांग बच्चों के सम्बन्ध में फैसले लेने के लिए मध्यप्रदेश पहल करे।

इन ढांचों और बाल आयोगों में एक पद विकलांग व्यक्ति के लिये आरक्षित किया जाना चाहिए, ताकि फैसले और संवेदनशीलता से लिए जा सकें। यही नहीं, ‘विशेषीकृत विधिक सहायता,’ विधिक सेवाओं, रेफरल तंत्रों, विधिक सशक्तिकरण सेवाओं, समावेशी अथवा सुलभ संरचना की उपलब्धता, ‘किशोर न्याय बोर्डों,’ ‘बाल कल्याण समितियों,’ ‘बाल कल्याण आयोग,’ ‘बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ में बच्चों की संकेत भाषा, व्याख्या या इसी प्रकार की सहायता के लिए विशेषीकृत पदाधिकारियों की उपलब्धता पर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है।  

ऐसे बच्चे जो लैंगिक शोषण का शिकार हैं और विकलांग हैं उनके लिए ‘किशोर न्याय अधिनियम’ और ‘पॉक्सो अधिनियम’ के कार्यान्वयन के संदर्भ में सुरक्षा को मजबूत बनाना होगा। ऐसे बच्चों के संबंध में राष्ट्रीय स्तर पर बहुत कम डेटा है, विशेष रूप से उन बच्चों के संबंध में जिन्हें देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता है और जो कानून से निपट रहे हैं। ऐसे में उनकी आवश्यकताओं का सटीक आंकलन और उनके लिए आवंटन एक और चुनौती के रूप में उभरकर सामने आता है। हरेक प्रकरण की विशिष्ट आवश्यकता को ध्यान में रखना और उसे समझने के लिये विशेष पहल करने की जरूरत है।  

विकलांग बच्चों को उनके परिवारों के साथ पुनर्वसित करना भी एक जटिल प्रक्रिया है, जिसके लिए संरचनात्मक सहयोग और अनुवर्ती प्रक्रियाओं की आवश्यकता होती है। बहुत से विकलांग बच्चों को ‘बाल-देखभाल संस्थानों’ में रहने के लिए मजबूर किया जाता है, क्योंकि उनके परिवार उन्हें संभालने में सक्षम नहीं होते। यह स्थिति विकलांग बच्चों की मानसिक और भावनात्मक स्थिति को और बदतर कर देती है। ऐसे में परिवार के सदस्यों की भी क्षमता वृद्धि करने की आवश्यकता है। जहां बच्चा सबसे ज्यादा समय बिताता है वहीँ उसकी जरूरत सबसे ज्यादा होती है।  

उपरोक्त सभी सुधारों के लिये जरुरी है कि संबंधित विभागों में बदलाव हो और अलग-अलग जिम्मेदारियों और क्षमताओं को समझते हुए काम किया जाए। ‘सामाजिक न्याय और अधिकारिता विभाग,’ ‘निशक्त-जन, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग,’ ‘पंचायती राज और ग्रामीण विकास विभाग’ और ‘शिक्षा विभाग’ आदि के सुधार से यह चुनौती कम की जा सकती है। समाज के स्तर पर भी सभी हितधारकों को मिलकर इन चुनौतियों से निपटना होगा, ताकि विकलांग बच्चों को समान अधिकार, सम्मान और अवसर मिल सकें। इसके लिए सरकार, न्यायपालिका, सामाजिक संगठनों और समाज के हर व्यक्ति की सक्रिय भागीदारी आवश्यक है। केवल सामूहिक और समर्पित प्रयासों से ही विकलांग बच्चों के जीवन को बेहतर बनाया जा सकता है और उन्हें समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाया जा सकता है। (सप्रेस)

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