कुलभूषण उपमन्यु

कोलकाता के ‘राधा-गोविंद कर अस्पताल’ की प्रशिक्षु डॉक्टर की बलात्कार के बाद की गई वीभत्स हत्या ने एक बार फिर समूचे देश को हिला दिया है, लेकिन क्या यह देश-व्यापी उथल-पुथल किसी कारगर नतीजे तक पहुंच पाएगी? क्या हमारी सरकार और समाज कुछ ऐसी कार्रवाई कर पाऐंगे जिसके चलते दुबारा इस वीभत्सता का सामना न करना पड़े ?

कोलकाता में प्रशिक्षु डॉक्टर की बलात्कार के बाद जघन्य हत्या की गुत्थी उलझती जा रही है। पूरा देश हतप्रभ है कि ये हो क्या रहा है। जिस तरह की संभावनाए सीबीआई जाँच में उभर कर आ रही हैं वे सोच से परे की गिरावट का परिदृश्य पैदा करने वाली हैं। एक चिकित्सा संस्थान कैसे यौन अपराध का रैकेट चालक, ड्रग तस्करी में लिप्त और अवैध अंग तस्करी जैसी जघन्य गतिविधियों का ठिकाना हो सकता है? उस अपराध की शिकार महिला से बलात्कार के पीछे के कारणों में यदि अंग-तस्करी और ड्रग-तस्करी जैसी अपराधिक गतिविधियां भी जुड़ी हों तो यह मामला अति गंभीर श्रेणी का हो जाता है जिस पर से पर्दा उठना अत्यावश्यक हो जाता है।

दुर्भाग्य की बात यह है कि जिस के ऊपर न्यायिक प्रक्रिया में मददगार होने की प्रशासनिक जिम्मेदारी है वही प्रशासन अपराधियों का संरक्षण करता दीखता है। स्वयं मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी का व्यवहार कितना ओछा और हैरान करने वाला है, जब वे प्रशासनिक कर्तव्यों का निर्वहन करने की बजाये स्वयं रैली निकालकर घटना का विरोध करने निकल पड़ती हैं। यह समझ नहीं आता कि वे किसका विरोध कर रही हैं और किस से सजा दिलाने की मांग कर रही हैं। यह तो राज्य सरकार का ही कार्य है और वही राज्य की मुखिया हैं।

शक के दायरे में कॉलेज के प्रिंसिपल का व्यवहार भी है। उसे बचाने के प्रयास क्यों किये जा रहे है? जिसे हत्या की सूचना पुलिस को समय पर न देने का जिम्मेदार ठहराकर निलंबित किया जाना चाहिए था उसे दूसरे कॉलेज का प्रिन्सिपल बनाकर पुरस्कृत करने या संरक्षित करने का कार्य हैरान करने वाला है। हत्या के प्रकट मामले को आत्महत्या दिखाने के प्रयास क्यों हुए हैं?  इसमें पुलिस प्रशासन की भूमिका क्यों संदिग्ध बनी हुई है? प्रथम दृष्ट्या हत्या दिखने वाले मामले को पुलिस आत्महत्या दिखाने का प्रयास करे तो यह बहुत गंभीर मामला बनता है।

पूरे केस की जाँच करके सचाई को न्यायालय के सामने रखने और अपराधी को दंडित कराने के लिए पेश करने की असल जिम्मेदारी पुलिस की ही है। आरंभिक जाँच में ऐसी कोताही बरतना अक्षम्य है। जाँच के लिए घटना स्थल पर सबूतों को इक्कठा करना, सबूतों को संरक्षित करना पुलिस की ही जिम्मेदारी है। इसमें पुलिस सोई हुईं क्यों लगती है? क्यों घटना स्थल को खुला छोड़कर साक्ष्यों को नष्ट करने का मौका अपराधी तत्वों को दिया गया? जाँच कार्य के बीच में ही घटना स्थल के पडौस में निर्माण कार्य के लिए तोड़-फोड़ करने के पीछे क्या मंशा है?

ऐसे कई संदेह पैदा करने वाले तथ्य खबरों से निकलकर आ रहे हैं। वैसे ममता बैनर्जी के कार्यकाल में अराजकता के अनेक मामले पहले भी उभरते रहे हैं। संदेशखाली की घटना तो अभी ताज़ा ही है। चुनावों के बाद की हिंसा में विरोधियों को प्रताड़ित करने की छूट और उस पर राजनेताओं और प्रशासन की चुप्पी, पंचायत चुनावों के बाद हुई खुली हिंसा पश्चिमी बंगाल में प्रशासन की निष्पक्षता को संदिग्ध बनाते हैं, जहां प्रशासन द्वारा विरोधी दलों के समर्थकों के साथ हिंसक प्रतिकार की छूट दी जाती है। यहाँ तक कि राज्य का उच्च न्यायालय भी इस पर टिप्पणियाँ करता रहा है।

कानून व्यवस्था के मामलों में भेद-भाव व्यवस्था को कमजोर करता है और आपराधिक भूमिका वाले लोगों के हौसले बढाता है। किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था को इससे बचना चाहिए। प्रजातंत्र का मूल तो क़ानून का शासन है जिसमें भेदभाव की कोई गुंजाईश नहीं हो सकती। शायद बंगाल, वामपंथी शासन के समय की इलाका दखल संस्कृति से अभी उबर नहीं पाया है या ममता बनर्जी ने भी उसी कार्य प्रणाली को अपना लिया है, ताकि विरोध के स्वरों को उठने ही न दिया जाए। यह एक दलीय शासन की स्थापना की इच्छा का द्योतक है।

विरोधी पक्ष भी ऐसी स्थितियों में राजनैतिक लाभ के चक्कर में पड़ने लग जाते हैं। एक ऐसी अस्वस्थ्य बहस होने लग जाती है कि आपके शासित राज्य में भी ऐसी घटनाएं हो रही हैं। सच में ऐसा हो भी रहा है। अभी देहरादून में एक मानसिक रूप से कमजोर लडकी के साथ दुराचार का मामला सामने आया है। अपराधी पकड़े गए हैं, किन्तु ‘मेरी गलती और तेरी गलती’ करके गलती माफ़ नहीं की जा सकती। असल बात यह है कि जहां भी ऐसी घटना हो वहां अपनी प्रशासनिक और राजनैतिक जिम्मेदारी दलगत ओछी राजनीति से ऊपर उठकर पूरी की जानी चाहिए। निर्भया मामले के बाद लगा था कि हालात सुधरेंगे, किन्तु नहीं, केवल क़ानून सख्त बना देने से काम होने वाला नहीं, क़ानून को लागू करने वाली मशीन भी गंभीर होनी चाहिए। अंत में यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि हमारे बच्चों को नैतिक तरबीयत, जो घर से ही दी जा सकती है, उसका ध्यान रखा जाना चाहिए। क़ानून तो उल्लंघन करने वालों के लिए ही है। यदि आपराधिक सोच ही कम होती जाए तो ऐसी घटनाएं होना कम हो जाएंगी। यह काम तो घरों से ही शुरू होना चाहिए। आशा की जानी चाहिए कि पीड़ित डॉक्टर को न्याय मिलेगा और आगे के लिए भी सुधार का मार्ग सुनिश्चित हो सकेगा। तब तक जागते रहें। (सप्रेस)

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