सूर्य ग्रहण और चन्द्रग्रहण पर एक पिता का पुत्रवधू को लिखा एक खुला पत्र

नरेन्द्र चौधरी

अभी हाल ही में पिछले माह 5 जून से 5 जुलाई 2020 के बीच तीन ग्रहण – एक सूर्य ग्रहण और दो चन्द्रग्रहण पडे। इन ग्रहणों के बारे में हमारी सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इसका जीवन पर नकारात्मक या अनिष्टकारी प्रभाव पड़ता है। लेकिन पढे- लिखे समाज को सूर्य ग्रहण हो या चंद्र ग्रहण दोनों के धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व को समझना चाहिए। वैज्ञानिक नजरिए से देखे तो यह एक खगोलीय घटना है। इन ग्रहणों की सामाजिक और धार्मिक मान्‍यताओं को खारिज करता एक पिता का अपनी पुत्रवधू को लिखा खुला पत्र ।

प्रिय कंचन,

मैं पहली बार तुम्हें पत्र लिख रहा हूं और पहला पत्र ही सार्वजनिक माध्यम पर रख रहा हूं । मुझे लगा यह अन्य लोगों के लिए भी उपयोगी हो सकता है इसीलिए इसे खुले पत्र के रूप में भेज रहा हूं। पिछले एक माह (30 दिन) यानी 5 जून से 5 जुलाई 2020 के बीच तीन ग्रहण पड़े, एक सूर्य ग्रहण और दो चन्द्रग्रहण। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो ग्रहण का लगना एक खगोलीय घटना है। हम सबने भूगोल में पढ़ा है कि जब सूर्य और चन्द्रमा के बीच पृथ्वी आ जाती है तो चन्द्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ने के कारण चन्द्रग्रहण लगता है, और जब सूर्य एवं पृथ्वी के बीच चन्द्रमा आ जाता है तो सूर्यग्रहण लगता है। विज्ञान के हिसाब से इस घटना का जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हां, हम इसे देखने का आनन्द उठा सकते हैं। सिर्फ ध्यान रखना होता है कि खुली आंखों से सीधे सूर्य को न देखें। इससे आंखों को नुकसान हो सकता है।

        लेकिन हमारी सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ग्रहण लगने का हमारे जीवन पर नकारात्मक या अनिष्टकारी प्रभाव पड़ता है। इसी कारण उसकी खुशियों को ग्रहण लग गया जैसे वाक्य में इस शब्द का नकारात्मक अर्थ में प्रयोग होता है। इन मान्यताओं के अनुसार ग्रहण के दौरान खुले आकाश में न निकलें, विशेषकर गर्भवती महिला, बुजुर्ग व रोगी। ग्रहण की अवधि में किसी भी प्रकार की खाद्य वस्तु के खाने की मनाही या प्रतिबंध होता है। ग्रहण समाप्त होने पर स्नान करने के बाद ही भोजन करने की अनुमति होती है। हममें से अनेक भूगोल की पढ़ाई के बाद भी इन मान्यताओं को मानते रहते हैं।

        लेकिन विज्ञान इन बातों को नहीं मानता। जैसा कि हमने प्रारंभ में ही देखा कि विज्ञान के अनुसार यह सिर्फ एक खगोलीय घटना है। तुम स्वयं भी गर्भवती हो। तुम्हारी सासू मां, मेरी और हमारे बेटे अमित (तुम्हारा पति) की इच्छा थी की सूर्यग्रहण के दिन तुम बाहर खुले आकाश में निकलो। किंतु तुम उस दिन अपने मायके में थी। अमित ने तुमसे फोन पर कहा भी था कि तुम बाहर निकलो और ग्रहण देखो। पर शायद तुम्हारी दादी ने मना कर दिया। दादी से तुम बहुत सी बातें सीख सकती हो, जैसे लंबी अवधि तक मां को दूध पिलाना। हर व्यक्ति कुछ सिखा सकता है, पर हर बात नहीं। इस मामले में, यदि अमित के दादाजी होते तो तुम उनसे सीख सकती थी। आकाश के तारों का उन्हें बहुत ज्ञान था और उन दिनों जब हम गर्मी में बाहर सोते थे तो वे अमित को तारों के बारे में बताते थे। मुझे याद है, सन् 1995 में जब सूर्यग्रहण पड़़ा था, तब अखबारों और दूरदर्शन (शायद प्राइवेट चैनल नहीं थे) पर देखकर उन्होंने एक गत्ते और दर्पण की मदद से सूर्यग्रहण दिखाया था। अमित उस वक्त 8 वर्ष का था। प्रोफेसर यशपाल, जो विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष एवं जन विज्ञान अभियान के जनक थे, ने दूरदर्शन पर विस्तार से ग्रहण के वैज्ञानिक पहलू पर प्रकाश डाला था और बड़ी प्रसन्नता से डायमंड रिंग दिखाया था। 21 जून 2020 की तरह वह भी एक पूर्ण सूर्यग्रहण था। अमित के दादाजी ने दूरदर्शन द्वारा प्रसारित इस कार्यक्रम को अमित को दिखाया था। शायद भारत के इतिहास में पहली बार इतने बड़ी संख्या में लोगों ने निर्भिकता व उत्साह के साथ बाहर निकलकर सूर्यग्रहण देखा। इसके विपरित सन् 1980 के पूर्ण सूर्यग्रहण के समय जानकारी के अभाव में दूरदर्शन व अखबार ने लोगों से बाहर न निकलने की अपील की थी और लोग घर में दुबके रहे थे।

        सबसे बेहतर तो तुम स्वयं अपने आप से सीख सकती हो। बच्चा मनुष्य का पिता है यह उक्ति विलियम वर्डस्वर्थ की कविता से उद्धृत है। और बेहतर शब्दों में विनोबा कहते हैं बच्चा अपने पिता से ज्यादा दूर तक देख सकता है, क्योंकि वह पिता के कंधे पर बैठा होता है। इसका सीधा अर्थ यह है कि तुम्हारे पास तुम्हारी पुरानी पीढ़ी का अनुभव है और उसमें तुम्हारा अद्यतन अनुभव जुड़ गया है। इसलिए तुम ग्रहण (या किसी भी घटना) के विज्ञान को और बेहतर ढ़ंग से समझ सकती हो।

        तुम्हें लग रहा होगा कि मैं ग्रहण की घटना को इतना तूल क्यों दे रहा हूं। दरअसल यह सिर्फ ग्रहण की बात नहीं है, बल्कि तार्किक ढ़ंग से सोचने के तरीके को विकसित करने की बात है। एक समय जब मनुष्य इन घटनाओं को नहीं समझता था, तब इनसे डरकर अपने तर्क या मान्यतायें गढ़ लेता था। जिनमें से कई बातें आज अंधविश्‍वास का रूप ले चुकी हैं। हांलाकि इसी में से विज्ञान भी उपजा है। आज हमारे पास इनके बारे में वैज्ञानिक जानकारी व प्रमाण उपलब्ध हैं।

        तुम्हें लगता होगा कि अंधविश्‍वास या रूढ़ियों से क्या नुकसान है। इन रूढ़ियों से हम जाने – अनजाने शेाषण का शिकार बनते हैं। इस पर हम अलग से विस्तार से चर्चा कर सकते हैं। कुछ लोगों ने इन अंधविश्‍वासों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। जिसमें उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, यहां तक की अपनी जान भी जोखिम में डालना पड़ी।

        अमित के दादाजी की लाइब्रेरी से मैंने एक छोटी सी किताब पढ़ी थी, जो आज भी मेरे पास है। उसमें प्रोफेसर गोरा ने अपने बारे में लिखा है। प्रो. गोरा अपने आपको सकारात्मक नास्तिक कहते थे। अपनी इस नास्तिकता की धारणा के कारण उन्हें अपनी नौकरी भी छोड़नी पड़ी। उनकी पत्नी जब पहली बार गर्भवती हुईं, तब कोलंबो में थी। वहां उन्होंने देखा की वहां की महिलायें ग्रहण में बाहर निकल रहीं हैं। वे भी ग्रहण में बाहर निकली, उन्हें स्वस्थ संतान हुई। माना जाता है कि ग्रहण में गर्भवती स्त्री के निकलने पर गर्भस्थ शिशु विकलांग हो जाता है। भारतीय महिलाओं में इसी धारणा तोड़ने के लिए वे बाहर निकलीं। बाद में भारत लौटने के बाद भी जब भी उनकी पत्नी गर्भवती हुईं और यदि ग्रहण पड़ा तो न सिर्फ वे बाहर निकलीं बल्कि दूसरी महिलाओं को भी उन्होंने ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया। यह भारत के स्वतंत्र होने के पूर्व सन् 1929 व उसके बाद के बरसों की बात है। उस समय यह बड़ा साहस भरा कदम था।

        ये मान्यतायें हमारे समाज में इतनी गहरी हैं कि इन्हें बदलने में लंबा समय लगेगा। अभी कुछ वर्ष पूर्व तुमने पढ़ा/सुना होगा कि ऐसे कुछ कट्टर अंधविश्‍वासी लोगों ने नरेन्द्र दाभोलकर, जो अंधश्रद्धा निर्मूलन का कार्य करते थे, की हत्या कर दी। वे लंबे समय से झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र और धर्म के नाम पर होने वाले शोषण का विरोध कर रहे थे। इससे तुम समझ सकती हो कि अंधविश्‍वास के कितने गंभीर व बुरे परिणाम हो सकते हैं। दाभोलकरजी भी ग्रहण के दौरान महिलाओं को, विशेषकर गर्भवती महिलाओं को खुले आकाश में बैठाकर उनसे खाना बनवाते थे और खाना खाते थे। वे समझाना चाहते थे कि इससे न तो गर्भस्थ शिशु पर कोई असर पड़ता है, न ही खाना अशुद्ध होता है। तुम एक शिक्षक के रूप में अपने जीवन की एक नई पारी शुरू करने जा रही हो। मुझे लगा कि तार्किक व वैज्ञानिक रूप से सोचने व सवाल करने के महत्व के बारे में ग्रहण के बहाने तुम्हें बताया जाये। ताकि तुम अपने स्वयं के बच्चों और विद्याथियों में तार्किक व विज्ञान आधारित सोच का विकास कर सको।

मेरे इस पत्र से तुम्हारे मन में कुछ सवाल या अन्य तर्क उभरे हों, तो जब तुम अपनी मां के घर से लौट आओगी, तब हम उस पर चर्चा कर सकते हैं। चाहो तो प्रो. गोरा की किताब पढ़ सकती हो और दाभोलकर जी के बारे में गूगल पर विस्तार से जानकारी ले सकती हो।

तुम्हारा पिताजी 

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