डॉ. ओ.पी.जोशी

देशभर के वन विभागों की बुनियाद मानी जाने वाली ‘वैज्ञानिक वानिकी’ कई बार कितनी असमाजिक, अवैज्ञानिक साबित होती है, यह झारखंड राज्य के निर्माण की इस सच्ची कहानी से समझा जा सकता है। कैसे छोटा-नागपुर इलाके के संथाल, उरांव आदिवासी अपने प्रिय और उपयोगी साल के झाड़ को लेकर व्यापार-प्रिय सागवान को पसंद करने वाली सरकार से भिड़ गए थे और अंत में झारखंड जैसे आदिवासी-बहुल राज्य के गठन का कारण बने थे?

पेड़ या वृक्ष को कई जगह ’झाड’ भी कहा जाता है। इस संदर्भ में झारखंड का अर्थ होता है, झाड़ों से आच्छादित क्षेत्र। कुछ इतिहासकारों के अनुसार झारखंड शब्द का प्रयोग 400 वर्ष पूर्व 16वीं शताब्दी में किया गया था। आज का झारखंड राज्य, बिहार राज्य के दक्षिण में छोटा-नागपुर पठार का हिस्सा है। तत्कालीन अविभाजित बिहार के इसी झारखंड में सत्तर के दशक में झारखंड आंदोलन काफी प्रसिद्ध हुआ था। बहुत कम लोग जानते होंगे कि यह झारखंड-आंदोलन दो प्रकार के झाड़ों के झगड़े से पैदा हुआ था। इनमें से एक झाड़ था-आदिवासियों का प्रिय साल, तो दूसरा था-सागवान, जो व्यापारियों की पसंद का झाड़ था।

आदिवासी, जंगल एवं खनिज-बहुल इस क्षेत्र को बरसों बहुत लूटा गया एवं आदिवासियों पर अत्याचार एवं शोषण भी हुए। इसी परिस्थिति ने झारखंड आंदोलन को जन्म दिया। आदिवासियों पर अत्याचार एवं शोषण रोकने में तत्कालीन राज्य सरकारें लगभग असफल हो रही थीं। गरीब आदिवासियों पर अत्याचार एवं शोषण के साथ-साथ 1977 में ‘वन-विकास-निगम’ ने एक और वज्रपात किया। इस वज्रवात के तहत ‘वन-विकास-निगम’ साल के प्राकृतिक वनों को काटकर सागवान लगाना चाहता था। उसका मानना था कि सागवान का झाड़ साल के झाड़ से ज्यादा मूल्यवान है। योजना पर तुरंत अमल कर ‘वन-विकास-निगम’ ने कई स्थानों पर साल के वन काटकर सागवान का रोपण प्रारम्भ कर दिया। सागवान का ज्यादातर रोपण छोटा-नागपुर के ऐसे सिंघभूम जिले में किया गया जहां साल के प्राकृतिक जंगल बहुतायत से थे।

इस क्षेत्र में सागवान रोपण का कार्य पिछले लगभग 100 वर्षों से हो रहा था, लेकिन यह वहीं किया जाता था जहां साल के वृक्ष प्राकृतिक रूप से समाप्त हो जाते थे। सागवान का यह रोपण सिंघभूम क्षेत्र के आदिवासियों को पसंद नहीं था, परंतु कोई राजनैतिक दबाव नहीं होने के कारण वे इसका विरोध भी नहीं कर पा रहे थे। साल वृक्ष के प्रति आदिवासियों का लगाव इसलिए था क्योंकि उसकी लकड़ी से खेती के औजार बनाते थे, बीजों से तेल निकाला जाता था एवं विषम परिस्थितियों में फल का गूदा खाकर वे अपना पेट भी भर लेते थे। पिछले कई वर्षां से कुछ सामाजिक संगठनों के प्रयास से छोटा-नागपुर के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार से कुछ जागरूकता आयी थी। इसी जागरूकता के चलते आदिवासियों ने मिलकर विचार किया कि साल के कटने से उनका जंगल से रिश्ता समाप्त हो जावेगा एवं आजीविका चलाने में कठिनाई होगी। यह सोचकर उन्होंने दो वर्ष, 1978-79 के दौरान सागवान रोपण का विरोध किया। इस विरोध का कोई सकारात्मक परिणाम नहीं आने पर सिंघभूम के आदिवासियों ने झारखंड-आंदोलन के बैनर तले संघर्ष प्रारंभ किया। यह आंदोलन साल के विरूद्ध सागवान का संघर्ष कहा जाने लगा। 

झारखंड-आंदोलन के तहत सागवान के रोपित पौधे तथा रोपणियां (नर्सरी) नष्ट की गयीं एवं सागवान का समर्थन करने वाले वन विभाग के लोगों को घेरकर बंधक बनाया गया। कई स्थानों पर सरकारी सम्पतियां भी नष्ट की गयीं। सिंघभूम तथा आसपास के क्षेत्रों में नवंबर 78 से फरवरी 79 तक पुलिस व आदिवासियों के बीच छह बार संघर्ष हुआ एवं पुलिस फायरिंग में दस लोग मारे गये। फरवरी 17, 1979 को इच्छाघत नामक स्थान पर फिर सागवान के पौधे नष्ट किये गये, एवं वन विभाग कार्यालय में आगजनी हुई। स्थिति पर नियंत्रण हेतु पुलिस ने गोली चलायी जिसमें एक व्यक्ति मारा गया। आंदोलन के बढ़ते स्वरूप को देखते हुए शासन, प्रशासन ने ज्यादातर स्थानों पर भारी पुलिस बल लगाया।

धीरे-धीरे वर्ष 1980 की शुरुआत में झारखंड-आंदोलन थोड़ा शांत हुआ। इसी बीच हुए चुनाव में कई आंदोलनकारी जीत गये, लेकिन शांति के दौरान भी खेती की जमीन पर सागवान रोपण का विरोध जारी रहा। सितम्बर 1980 में 200 हेक्टर में रोपित सागवान के पौधे उखाड़कर फेंक दिये गये एवं सिंघभूम के आसपास वन अधिकारियों को घेरा गया। अधिकारियों को छुड़ाने जब पुलिस आयी तो फिर तेज संघर्ष हुआ एवं 16 लोग मारे गये। इस संघर्ष के फलस्वरूप उस समय की राज्य सरकार ने सावधानी के तौर पर सामाजिक व धार्मिक त्यौहारों को छोड़कर आदिवासियों के पारंपरिक तीर-कमान रखने पर रोक लगी दी। इस रोक पर आंदोलन के प्रमुख नेता शिबु सोरेन (वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के पिता) ने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा था कि आदिवासी तब तक सागवान के पौधे उजाड़ते रहेंगे जब तक सरकार उनकी खेती की जमीन पर रोपण कार्य नहीं रोकेगी। इस चेतावनी से डरकर सरकार ने कहा कि आदिवासियों के क्षेत्रों में जब कोई भी योजना चलायी जावेगी तो उनके हितों को प्राथमिकता से बचाया जाएगा। सरकार के इस कथन से सागवान रोपण तथा लकड़ी की नीलामी रोक दी गयी। आदिवासियों का साल के झाड के प्रति प्रेम एवं सरकार का सागवान के प्रति आकर्षण देखकर वहां के तत्कालीन माकर््वादी सांसद कॉमरेड एके राय ने कहा था कि यदि सरकार अपनी नीतियां नहीं बदलती तो साल का मतलब होगा झारखंड एवं सागवान यानी बिहार। लम्बे समय के बाद कॉमरेड राय का कथन सत्य साबित हुआ, जब15 नवम्बर 2000 को पृथक झारखंड राज्य बनाया गया। वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की अब यह जिम्मेदारी है कि वे राज्य में इस प्रकार विकास की योजनाएं बनायें कि वहां के आदिवासियों के हित सुरक्षित रहें। (सप्रेस)

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