कुमार प्रशांत

इन दिनों राजस्‍थान में और उसके पहले मध्‍यप्रदेश समेत अनेक राज्‍यों में लोकतंत्र का जो मखौल उडाया जा रहा है उसमें कौन हस्‍तक्षेप करके उसे पटरी पर ला सकता है? विधायिका की गफलतों पर अंकुश लगाने के लिए संविधान में न्‍यायपालिका की तजबीज की गई है और मौजूदा परिस्थितियों में न्‍यायपालिका को स्‍व–प्रेरणा से कारगर हस्‍तक्षेप करना भी चाहिए, लेकिन क्‍या वह ऐसा कर पा रही है?

क्या 70 साल से ज्यादा पुराना भारतीय लोकतंत्र आपको कभी बाजार में बिकने के लिए इस तरह तैयार खड़ा मिला था जिस तरह आज है? यह हमारा नया लोकतंत्र है। इसमें लोक कहीं है ही नहीं, और सारा तंत्र सरकार का माफिया-गैंग बनकर काम कर रहा है – फिर वह चाहे ‘चुनाव आयोग’ हो कि ‘सीबीआई’ कि ‘कैग’ कि ‘ईडी’ कि ‘इन्कम टैक्स विभाग’ कि कहीं सुदूर में बना कोई पुलिस थाना। सभी जानते, मानते और वही करते हैं जो राजनीतिक आका की मर्जी होती है। सांसदों-विधायकों की यह मंडी कहीं दबा-छुपा कर नहीं चलाई जा रही है। यह एकदम खुली हुई है। तब यह मध्यप्रदेश में लगाई गई थी, आज राजस्थान में लगी हुई है।  

ऐसे अंधाधुंध लोकतांत्रिक माहौल में जब सर्वोच्च न्यायालय राजस्थान के संदर्भ में पूछता है कि क्या असंतोष व असहमति की आवाज को अनुशासनहीनता बताकर आप कुचल देंगे, तो जवाब कोई नहीं देता है, लेकिन एक दबी हुई हंसी से माहौल भर उठता है। सवाल भी ऐसा ही है और ऐसे ही तेवर में पूछा भी गया है कि पहली कतार में बैठे लोग तालियां बजाएं, बीच की कतार वाले चुप रहें तथा अंतिम कतार वाले पीठ फेर लें। न्याय की सबसे ऊंची कुर्सी पर, सबसे आगे बैठे महानुभावों की ऐसी चुप्पी किसने नहीं सुनी है?! चुप्पी और निरर्थक मुखरता के बीच भी एक आवाज होती है जिसे न्याय की बे-आवाज आवाज कहते हैं। वह आवाज हमने अंतिम बार कब सुनी थी? आपको याद आए, तो जरूर बताइएगा।  

सरहदें केवल मुल्कों के बीच नहीं होतीं, जिम्मेवारियों के बीच भी होती हैं। भारतीय लोकतंत्र ऐसी ही सरहदों के मेल से बना वह खेल है जिसमें सभी अपने-अपने पाले में आजाद हैं, लेकिन लोकतंत्र के बड़े पाले में सबकी परस्पर निर्भरता है। संविधान के रचनाकारों की कुशलता और दूरदृष्टि हमें हमेशा दंग कर जाती है, जब हम पाते हैं कि एक दरवाजा बंद होते ही वह कई खिड़कियां खोल देता है। खुली खिड़कियों के आगे फिर नये दरवाजे खुलते हैं। अब यह दूसरी बात है कि खुली खिड़कियों की तरफ से देखते वक्त हम आंखें बंद रखें।   

जब देश में ऐसी परिस्थितियां बन रही हों जिनका संविधान में जिक्र नहीं है, तब अदालतों के कान खड़े हो जाने चाहिए। जनता अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा-पैसा जोड़कर ऐसे ही वक्त के लिए तो न्यायपालिका को पालती है, अन्यथा किसने, किसकी जमीन हड़प ली, किसने, किसकी, कब हत्या कर दी, इसके लिए तो हर ‘अकबर’ के पास उनका अपना ‘बीरबल’ हुआ ही करता था।  अलबत्‍ता, कोई ‘बीरबल’ यह तो नहीं बता सकता कि जब कोई विधायिका हमारी संविधान-प्रदत्त नागरिकता छीनना चाहे तब हमें क्या करना चाहिए? संविधान ने यह काम किसी ‘बीरबल’ को नहीं, न्यायपालिका को सौंपा है।  

कमाल यह है कि विधायिका उस संविधान के आदेश से बनी है जिस संविधान को हम नागरिकों ने मिलकर बनाया है; और यह विधायिका स्थाई भी नहीं है। उसकी आयु अधिक-से-अधिक पांच साल तय कर दी गई है। इधर नागरिकता की खूबसूरती यह है कि कुछ अपवादों को छोड़ कर, यह न किसी की कृपा से मिलती है, न किसी के क्रोध से छीनी जा सकती है। उस नागरिकता को वह विधायिका छीनने की कोशिश कर रही है जिसको ऐसा करने का कोई अधिकार ही नहीं है। क्या न्यायपालिका को इसका संज्ञान नहीं लेना चाहिए? न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधी होती है, इस अवधारणा को समझ कर ही हमारे संविधान ने हमारी न्यायपालिका की आंखों पर से पट्टी हटा दी। हमारी न्यायपालिका न केवल बोल सकती है, बल्कि देख भी सकती है। वह खुद संज्ञान लेकर विधायिका या कार्यपालिका या जन-जीवन के किसी भी घटक को कठघरे में बुला सकती है, बुलाती रही है। फिर उसने नागरिकता के सवाल पर सरकार को कठघरे में क्यों नहीं बुलाया, जबकि सारा देश नागरिकों के आंदोलन से आप्लावित हो रहा था?

उसने, उस पुलिस को कठघरे में क्यों नहीं बुलाया जो नागरिकता के आंदोलन में लगे युवाओं को नाना प्रकार के आरोपों में घेरने वाला फर्जी एफआइआर जारी कर रही है? उसने सरकार से क्यों नहीं पूछा कि भीमा-कोरेगांव मामले में जिनकी गिरफ्तारियां हुई हैं, उन्हें वैसी किसी धारा में कैसे गिरफ्तार किया गया जिसमें बगैर सुनवाई के उन्हें देशद्रोही करार दिया जा सके? उन पर जो आरोप है वही इस बात की मांग करता है कि उसकी तुरंत सुनवाई हो, गहरी छानबीन हो और फिर संवैधानिक आधार पर तय किया जाए कि उन्हें किस धारा में गिरफ्तार किया जा सकता है या कि उन्हें गिरफ्तार करने का आधार बनता भी है या नहीं? बल्कि मैं, संविधान बनाने वाले नागरिकों का एक प्रतिनिधि, न्यायपालिका से पूछना चाहता हूं कि विधायिका ऐसा कोई कानून बना ही कैसे सकी जिसकी जांच-परख अदालत नहीं कर सकती है? यह तो संविधान की व्यवस्था को ही धता बताना हुआ। ऐसा कानून बन गया और न्यायपालिका ने उसका संज्ञान भी नहीं लिया, विधायिका को कठघरे में नहीं बुलाया तो यह वह संवैधानिक अपराध है जिसकी सजा न्यायपालिका को मिलनी चाहिए। न्यायपालिका भी नागरिकों द्वारा बनाए संविधान द्वारा बनाई वह व्यवस्था है जिसे संविधान के संरक्षण की जिम्मेवारी दी गई है और उसने शपथपूर्वक उस जिम्मेवारी को स्वीकार किया है। न्यायपालिका जब अपने कर्तव्य से च्युत होती है तब उसे भी जनता की अदालत के कठघरे में खड़ा होना पड़ता है।http://www.spsmedia.in (सप्रेस)

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