राजेंद्र सिंह राठौर
इन दिनों जैविक खेती organic farming की भारी धूम मची है और अब मुनाफा कूटने वाले बाजार ने भी इस पर अपना कब्जा जमा लिया है, लेकिन जैविक खेती करने वाले किसानों के साथ हो रही फजीहत पर राज्य और केन्द्र की सरकारों समेत किसी का कोई ध्यान नहीं है। ईमानदारी से समाज को विष-रहित भोजन उपलब्ध करवाने में लगे किसान आखिर क्या करें? ऐसे ही एक जैविक किसान राजेंद्र सिंह राठौर के अनुभवों पर आधारित लेख।
मीडिया में प्राकृतिक और जैविक खेती के समर्थन में चल रहा प्रचार-प्रसार देखकर देश के आम नागरिकों को लगता होगा कि हमारी केंद्र और राज्य सरकारें प्राकृतिक और जैविक किसानों के लिए कितना कुछ कर रही हैं, जबकि वास्तविकता में हल्ला ज्यादा, काम कम है। सरकार हमारे फार्म को ‘जैविक फार्म के प्रमाण पत्र’ नाम का कागज का एक टुकड़ा देने के एवज में भी अपनी आमदनी का कोई अवसर छोड़ना नहीं चाह रही।
यदि हम किसान चाहें तो आपको फलों, सब्जियों, दालों, अनाजों में चाहें जो जहर, किसी भी मात्रा में डालकर खिला दें, हमसे कभी, कोई भी कुछ भी पूछने वाला नहीं है। लेकिन यदि हम कहें कि हम अपने देश के लोगों को शुद्ध प्राकृतिक/जैविक कृषि उत्पाद खिला रहे हैं, तो तनिक सोचिए कि यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि न सिर्फ सैंकड़ों उपभोक्ताओं की, बल्कि सरकार की भी सवालिया उंगली हमारी ओर तन जाती हैं।
मैं पिछले 30 वर्षों से प्राकृतिक कृषि कर रहा हूं। बीच के 20 वर्षों की अवधि में तो मैंने लगातार 20 हेक्टेयर में प्राकृतिक खेती ही की है। यदि इस अवधि में मैंने रासायनिक खेती कर आप सभी को जहर खिलाया होता, मिट्टी, पानी, हवा में जहर घोला होता, तो सरकार ने भी मुझे प्रोत्साहन स्वरूप लगभग 10 हजार रुपए प्रति हेक्टर, प्रतिवर्ष की दर से, पिछले 20 वर्षों में करीब चार लाख रुपए सब्सिडी के तौर पर दिए होते। पर चूंकि मैंने उपभोक्ताओं को जहर नहीं खिलाया, पर्यावरण में जहर नहीं घोला, इस गुनाह के लिए दंड-स्वरूप सरकार ने भी मुझे इस चार लाख रुपयों की सब्सिडी राशि से वंचित किया।
मध्यप्रदेश सरकार ने कथित तौर पर नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण खाद्य सामग्री उपलब्ध कराने, पर्यावरण को सुरक्षित बनाने तथा जैविक प्रमाणीकरण की प्रक्रिया को आम किसानों के लिए सुलभ बनाते हुए उनकी समृद्धि सुनिश्चित करने के उद्देश्य से ‘मध्यप्रदेश राज्य जैविक प्रमाणीकरण संस्था’ की स्थापना की, जिसे केंद्र सरकार की संस्था ‘कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण’ (एपीडा) ने एक अगस्त 2011 को मान्यता प्रदान की।
मैंने ‘किसान कल्याण एवं कृषि विभाग,’ रतलाम की सलाह पर अपने फार्म के जैविक प्रमाणीकरण हेतु चार साथियों सहित इस संस्था को आवेदन किया। आवेदन करने से पूर्व हम पांचों इस संस्था के प्रमुख से मिलने भोपाल भी गए। आवेदन को आठ माह बीत चुके हैं। अब हमें एक बार फिर भोपाल बुलाया जा रहा है, जैसे भोपाल हमारे घर के बगल में ही मौजूद हो। प्रत्येक व्यक्ति से करीब 1500 रुपए ‘प्रमाणीकरण शुल्क’ तथा 3500 रुपए प्रति व्यक्ति संस्था के निरीक्षणकर्ता के आने-जाने के शुल्क के लिए अलग मांगा जा रहा है। निरीक्षणकर्ता के ठहरने तथा भोजन आदि की व्यवस्था भी किसान को ही वहन करना है।
क्या मात्र 3500 रुपए शुल्क लेकर आसपास के सभी पांचों किसानों के फार्मो का निरीक्षण नहीं किया जा सकता? इस प्रमाणीकरण संस्था की कार्यविधि यह है कि इनका प्रतिनिधि आवेदक किसान के फार्म का निरीक्षण कर उसे पहले और दूसरे वर्ष में रासायनिक से जैविक में परिवर्तनरत का प्रमाण पत्र देता है। इस प्रकार लगातार तीन वर्ष तक सारे शुल्क जमा कराने तथा अधिकारियों के तमाम नाज-नखरे उठाने के बाद तीसरे वर्ष में उसे प्रामाणिक जैविक फार्म होने का प्रमाण पत्र दिया जाता है। चाहे उस फार्म पर जैविक खेती पिछले 30 वर्षों से की जा रही हो !
यह कल-परसों की प्रमाणीकरण संस्था जिसे स्वयं को मान्यता प्राप्त हुए अभी 13 वर्ष पूरे नहीं हुए हैं, जिसके दो अधिकारियों को स्वयं मैंने आज से लगभग 8-9 वर्ष पूर्व इंदौर में अपने एक वरिष्ठ साथी अरुण डिके की संस्था ‘रंगवासा जैविक ग्राम’ में 2500 रुपए शुल्क लेकर एक दिवसीय जैविक प्रशिक्षण दिया था। आज मेरे द्वारा प्रशिक्षण प्राप्त अधिकारियों के कनिष्ठ अधिकारी/कर्मचारी मुझे मेरे उस फार्म के लिए जैविक होने का प्रमाण पत्र देंगे, जो उनकी स्वयं की संस्था को मान्यता प्राप्त होने से 17 वर्ष पूर्व से जैविक खेती कर रहा है? वह भी आज से 3 वर्ष बाद? यह तो ठीक वैसी ही घटना होगी जैसे प्रायमरी स्कूल के बच्चे को कॉलेज के प्रिंसिपल की कॉपी जांचने का काम दे दिया जाए।
जिन अधिकारियों ने अपनी डिग्री रासायनिक खेती की पढ़ाई करके ली हो, वे उस किसान को जैविक खेती का प्रमाण पत्र देंगे, जिसने दुनिया के 10-12 देशों के जैविक खेती का साहित्य खरीदकर उसका अध्ययन किया हो, जिसने 15 से 20 देशों के किसानों के साथ जैविक खेती का पांच दिवसीय अंतरराष्ट्रीय प्रशिक्षण लिया हो, जिसके प्रशिक्षणदाता इथियोपिया के पूर्व पर्यावरण मंत्री रहे हों, जिसने स्वयं भी जैविक खेती विषय पर 4-5 पुस्तकें लिखी हों, जिसके फेसबुक मित्रों में 15-20 देशों के जैविक किसान भी शामिल हों, जिसने ऑस्ट्रेलिया के एक ट्रेनर मित्र से ‘पर्माकल्चर’ विषय पर दो वर्ष का ऑनलाइन कोर्स किया हो, जो जैविक खेती पर कार्यरत देश के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठनों में से एक ‘ऑर्गेनिक फार्मिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ की केंद्रीय समिति में संयुक्त सचिव हो तथा इसी संगठन की मध्यप्रदेश राज्य इकाई का प्रमुख हो? इस विडंबना को टालने और व्यापक कृषक व उपभोक्ता हितों को देखते हुए ‘मध्यप्रदेश राज्य प्रमाणीकरण’ संस्था को हम जैसे अनुभवी किसानों के मार्गदर्शन में कार्य करना चाहिये, या फिर यह कार्य हमारे जैसे अनुभवी संगठनों को ही सौंप देना चाहिये। (सप्रेस)
राजेंद्र सिंह राठौर,‘सूरज प्राकृतिक फार्म एवं जैव-विविधता संरक्षण केंद्र,’ से जुडे, ग्राम-आम्बा,जिला–रतलाम के किसान हैं।
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जैविक खेती का प्रमाणीकरण प्राप्त करने में आपको जब इतनी परेशानी जा रही है तो अन्य दूसरे के साथ जो जैविक खेती कर रहे हैं उनकी सरकार से आज टूट जाएगी. जैविक खेती कर रहे हैं किसान उनको सरकार द्वारा प्रमाणीकरण पत्र नहीं लिया जाता, तब तक वह अपना उत्पाद मार्केट में नहीं भेज सकत, यह एक विडंबना है.सरकार को चाहिए कि किसानों का उत्साह बढ़ाएं. प्रमाणीकरण की प्रक्रिया सरल की जाए, जो ब्लॉक स्तर पर हो जो किसान प्राकृतिक खेती कर रहे हैं और इस क्षेत्र में रह रहे हैं उसी क्षेत्र के कृषि विज्ञान केंद्र द्वारा उनको प्रमाण पत्र दिए जाएं, यही सही होगा अन्यथा जो किसान यह भी खेती की तरफ अपना रुझान कर रहे हैं वह निराश होकर उन्हें रासायनिक खेती करने पर मजबूर हो जाएंगे.
नमस्कार भारत में स्वतंत्रता के बाद से मानवीय मूल्यों को सुधारने के लिए और मनुष्य को उच्च सभ्य बनाने के लिए जो शिक्षा पद्धति भारतीय संस्कार आधारित होनी चाहिए थी उसका अंगीकार ना कर पाश्चात्य भोगवादी विकृति का उस समय के राजनेताओं चयन किया जिसका परिणाम वर्तमान हाइब्रिड पीढ़ी के रूप में हमें देखने को मिल रहा है और इस हाइब्रिड पीढ़ी किस सोच में ही हमारी भूमि माता को जहरीले रसायनों से भर दिया है. हमारी भोजन की थाली भी जहरीली हो गई है इसलिए यदि हमें प्रथम सुधार की आवश्यकता है तो वहां इस हाइब्रिड हुई पीढ़ी को शुद्ध भारतीय पीढ़ी बनाने से करनी होगी, जिसके लिए हमें भारतीय संस्कृति की शिक्षा जिसमें स्वयं के साथ प्रकृति का कल्याण निहित हो इसके साथ करनी होगी.