कुछ तो खाद, दवाओं और कीटनाशकों से लदी-फंदी जहरबुझी पैदावार के घातक असर और कुछ नए धंधे की संभावनाओं के कारण हमारे यहां आजकल जैविक खेती की भारी धूम मची है, लेकिन क्या यह जैविक पैदावार हमारे जीवन में कोई बदलाव कर पा रही है? आखिर इसके पीछे का विचार क्या है?
भारतीय खेती मूलतः जैविक खेती ही रही है, क्योंकि इसके पीछे हजारों साल की वानस्पतिक खोज, अभ्यास और निरंतर चलते प्रयोगों की तप, तापस और तपस्या रही है। जैविक खेती हमारे जनमानस में इतनी रच-बस गई है कि उसे न तो कागजी मुद्राओं में तोल सकते हैं और न शुद्ध मुनाफे से। किसान के लिए खेती किसी भी पूजा या उत्सव से कम नहीं है।
गर्मी, सर्दी और वर्षा ऋतुओं में समान रूप से विभाजित भारत का मौसम और जलवायु हमारी सबसे बड़ी संपदा है, जिसने इतनी बड़ी विशाल जैव-विविधता इस धरती पर खड़ी की है कि बुरे-से-बुरे मौसम में भी हमारे किसानों का मनोबल टूटता नहीं है। वैसे भी यह माना जा रहा है कि हमारी आबादी का कुछ हिस्सा ‘अकृष्य फसलों’ (नॉन-कल्टिवेटेड क्रॉप्स) पर ही जिंदा है, जैसे – कुछ चारा फसलें।
जीवों की, जीवों द्वारा, जीवों के लिए और जीवों के साथ की जाने वाली खेती ही जैविक खेती है। कौन से जीव? किसान का परिवार, खेत में काम कर रहे श्रमिक, गाय, बैल, बकरी, मुर्गा-मुर्गी, पक्षी, तितलियाँ, मधुमक्खी, केंचुए और भूमि के अंदर पल रहे अरबों-खरबों सूक्ष्म जीवाणु – इन सबसे ही जैविक खेती संभव है। यहाँ तक कि जंगलों के वन्य प्राणी भी जैविक खेती के अहम् भाग हैं, क्योंकि ये वन्य प्राणी जंगल के, जंगल खेती के और खेती हमारे प्राण हैं। इन जंगलों से ही फसलों को सूक्ष्म जलवायु मिलती है, जिसके बिना फसलों की बढ़वार संभव नहीं है।
ये पूछा जा सकता है कि फसल की बढ़वार के लिए जैविक खेती में यूरिया, सुपर-फॉस्फेट और पोटाश के क्या विकल्प हैं और जो कीट और रोग फसलों पर लगते हैं उनका क्या इलाज है? इसके लिए यह जान लेना जरूरी है कि प्राणी और वनस्पतियों का इलाज अधिकतर प्रकृति ज्यादा करती है, दवाई कम। ठीक उसी प्रकार फसलों को 95 प्रतिशत अन्न वातावरण से और 5 प्रतिशत भूमि से मिलता है और वातावरण को निरोगी रखने के लिए वृक्षों की बहुतायत जरूरी है क्योंकि फसलों का मुख्य अन्न ‘नत्र’ नहीं ‘कर्ब’ है, जो खेत में खड़े वृक्षों के गिरते पत्तों से मिट्टी को प्राप्त होते हैं। जब 20 भाग ‘कर्ब’ का हो तब एक भाग ‘नत्र’ का होता है।
‘कर्ब’ मिट्टी में पल रहे खरबों जीवाणुओं का भोजन है जिसे खाकर वे वातवरण से ‘नत्र’ लेते हैं। उसी तरह जितनी भी द्वि-दलीय फसलें हैं, जैसे – सभी दलहनी और तिलहनी फसलें, उनकी जड़ों में व्याप्त नाईट्रो-बैक्टिरिया हवा से ‘नत्र’ लेकर फसलों को देते हैं। हमारे यहाँ बहुफसली खेती के पीछे यही प्रमुख कारण था कि ज्वार, कपास, बाजरा, मक्का जैसी एक-दलीय फसलों के साथ-साथ मूंग, उड़द, तुवर, मूंगफली की फसलें बोई जाती थीं?
इंग्लैंड से भारतीय किसानों को रासायनिक खेती सिखाने आए वैज्ञानिक अलबर्ट हॉवर्ड भारत की इस बहुफसली खेती से इतने प्रभावित हुए थे कि वे हमारे किसानों से खेती सीखने लगे। पूरे 19 साल उन्होंने भारत की खेती सीखी और उस पर 7 साल तक वैज्ञानिक शोध कर भारत का नाम दुनिया में रोशन किया। 1931 में भारत छोड़ने के बाद भी वे भारतीय खेती पर लिखते रहे और 1940 में उन्होंने ‘‘एन एग्रीकल्चर टेस्टामेन्ट‘‘ (हमारी खेती का वसीयतनामा) पुस्तक प्रकाशित की, जो भारत के नौजवानों को आह्वाहन था कि ये खेती एक वसीयत है जो मैं तुम्हें सौंप रहा हूँ।
ये कितनी अजीबो-गरीब बात है कि हमारी खेती पर एक अंग्रेज के लिखे इस महत्वपूर्ण दस्तावेज को अधिकांश कृषि वैज्ञानिकों ने नहीं पढा और आज भी हमारे योजनाकार और कृषि वैज्ञानिक खेती की विदेशी तकनीक को भारत के किसानों के माथे मार रहे हैं।
यदि दवाइयों पर ही प्राणियों और फसलों का स्वास्थ्य निर्भर रहता तो दोनों प्रजातियाँ अभी तक लुप्त हो गई होती। प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था की है कि फसलों पर लगने वाले कीट शाकाहारी और मात्र एक प्रतिशत ही हैं, जबकि उन्हें खाकर समाप्त करने वाले मांसाहारी कीट 99 प्रतिशत हैं। इसी साम्यावस्था के कारण पृथ्वी हरी-भरी और निरोगी रही है।
जिस तरह खेतों में खड़े पेड़-पौधे पोषण देते हैं, वैसे ही नीम, करंज, सीताफल जैसे वृक्ष और तुलसी, गेंदा, शेवंती, मिर्च, लहसुन, हलदी जैसे पौधे फसलों पर लगने वाले कीट और रोग नियंत्रित करते हैं।
रासायनिक खेती से हाथ जला बैठे लाखों प्रगतिशील किसानों ने जैविक खेती अपनाकर खेती को लाभकारी बनाया है, जबकि हमारे कृषि वैज्ञानिक आज भी इन प्रगतिशील किसानों से कोसों दूर हैं।
हम जिस पर्यावरण को लेकर इतने चिंतित हैं और पर्यावरण मंत्रालय से लेकर जगह-जगह पर्यावरण पर सार्वजनिक बयानबाजी करते हैं, उन्हें पता होना चाहिये कि भारत की जैविक खेती ही पर्यावरण का सर्वोच्च नमूना है। यह हमारे ग्रन्थों में अंकित है, जैसे – पौधों की जड़ें, मिट्टी में समाए खरबों जीवाणुओं का भोजन है, पत्ते पशुओं का भोजन हैं और पशुओं का गोबर तथा फसल के अवशेष मिट्टी का भोजन हैं। पौधों पर लगने वाले फूल, मधुमक्खी और तितलियों का भोजन है। फल और उसके अन्दर के बीज पक्षियों, गांवों में आए साधु-संतों और कृषक परिवार का भोजन है। इस पर किसी भी कृषि महाविद्यालय ने ध्यान नहीं दिया और विदेशी तकनीकों को अपना लिया।
जैविक खेती जिस प्रकार से शांति की द्योतक है, रासायनिक खेती ठीक इसके उलट युद्ध की देन है। ‘द्वितीय महायुद्ध’ की समाप्ति पर सेना का गोला-बारूद और मच्छरों को मारने वाला डी.डी.टी. खेतों की ओर मोड़ दिया गया। खनिज तेल से निकला नेप्था युरिया बनाने में लगाया गया और ‘हरित क्रांति’ के नाम पर हमारे देश में रासायनिक खादों और कीटनाशकों के उद्योगों की जो बाढ़ आयी, उसने भारतीय खेती को बेहद नुकसान पहुंचाया।
अपनी विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक की मार्फत सौ साल पहले अलबर्ट हॉवर्ड ने चेताया था कि किसी भी देश की लोकसंख्या उस देश का गौरव है। यदि उनकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होती है तो उस देश की प्रगति कोई रोक नहीं सकता, लेकिन यदि इसके उल्टा हुआ तो उस देश की बर्बादी भी कोई रोक नहीं सकता। हॉवर्ड लिखते हैं कि ‘रोमन साम्राज्य’ इसीलिए डूब गया, क्योंकि उसने आम जनता की अनदेखी की और खेती उद्योगपतियों को सौंप दी।
मिट्टी और लोकसंख्या का पेट भरने वाली बहुफसली खेती छोड़ भारत ने विदेशी गेहूँ और सोयाबीन जैसी एक फसली, नगदी खेती को बढ़ावा देकर गलती की है। बढ़ते उद्योगों ने प्रकृति को नष्ट करना चालू किया और अपनी योजनाएं उद्योगों द्वारा स्थापित शहर-केन्द्रित कर गांवों को उजाड़ा है।
भारत के गांव ही सच्चा भारत है। यह गांधीजी ने महज जुमलेबाजी नहीं की थी। राष्ट्र मात्र एक जमीन का टुकड़ा नहीं, लेकिन उसे सजाने-संवारने वाले करोड़ों लोगों का हित साधना राष्ट्र का पहला कर्तव्य है। नमक जैसे प्राकृतिक उत्पाद पर कर लगाना जघन्य अपराध था, जिसके चलते लाखों मजदूर मारे गए थे। गांधीजी ने वह रद्द करवाया। उसी तरह नील की जुल्म ढ़ाने वाली खेती हमारे किसानों पर लादकर उनकी अन्न सुरक्षा नष्ट कर उन्हें भी लाखों की तादाद में मरने को मजबूर किया गया। चंपारण में कई साल अंग्रेजी हुकुमत से लड़कर गांधीजी ने नील की खेती का कानून रद्द करवाया।
अलबर्ट हॉवर्ड ने कहा था कि देश के सीमांत नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करो, वहीं गांधीजी ने अन्न सुरक्षा के लिये लड़ाई लड़ी और जीती। जैविक खेती का मूल मकसद भी यही है कि बगैर किसी बाहरी आदान के किसान अपना अन्न खुद पैदा करें और तन ढ़कने के लिए सूत कताई करें। भारत के हर सुविधाभोगी नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि यदि सरकार यह कर रही है, तो उसका साथ दे और नहीं कर रही है तो उसका विरोधकर किसानों को राहत दिलाए। (सप्रेस)