कृष्ण गोपाल व्यास

कोरोना की चपेट में आए लाखों-लाख श्रमिकों की बदहवास गांव-वापसी इशारा कर रही है कि खेती में आज भी काफी संभावनाएं है। क्‍या यह बात हमारे नीति-नियंता, सत्‍ताधारी और नौकरशाह समझ पाएंगे? क्‍या ‘कोरोना-बाद’ का भारत वापस कृषि-प्रधान हो सकेगा?

भारत के परम्परागत समाज की लगभग पांच हजार साल की लम्बी विकास यात्रा में, हर क्षेत्र में अनुभव आधारित अनेक कहावतें विकसित हुई हैं। समय-समय पर उन कहावतों का परिमार्जन भी हुआ होगा, परिमार्जन की यात्रा में अनेक पड़ाव आए होंगे, जब समाज ने प्रकृति, पर्यावरण, जल, भूमि और आसमानी संकेतों की गुत्थी को सुलझाकर तथा कहावतों को परिमार्जित कर अपनी निरापद जीवन यात्रा के लिए उन्हें मार्गदर्शक सिद्धान्तों की तरह अपनाया होगा। कुप्रभावों को त्याज्य बनाने के लिए वर्जनाएँ विकसित की होंगी। इसी समझ के आधार पर धीरे-धीरे लोक विज्ञान विकसित हुआ होगा। ‘उत्तम खेती, मध्यम बान : निकृष्ट चाकरी, भीख निदान’ उसी लोक विज्ञान पर आधारित कालजयी कहावत है जिसका मतलब है – सबसे अच्‍छी खेती, फिर व्‍यापार, फिर नौकरी और जब ये कोई न मिलें तो भीख मांगकर जीवन-यापन करें। यही वह कहावत है जो पुराने दौर में सबसे अधिक अनुकूल थी। क्या मौजूदा दौर में भी यह कहावत प्रासंगिक हो सकती है?

प्राचीन भारत में खेती मुख्य व्यवसाय रहा है। उसकी सम्पन्नता की कहानियाँ पूरी दुनिया को लुभाती रही हैं। सभी जानते हैं कि उन कहानियों को सुन-सुनकर ही विदेशी आक्रान्ताओं ने इस देश को बारम्बार लूटा था। इसी कारण यूरोप के लोगों ने भारत की खोज के लिए अभियान चलाए थे। अपने-अपने उपनिवेश कायम किए थे। उस दौर में यह सब इसलिए हुआ था क्योंकि सारी दुनिया मानती थी कि भारत के पास अकूत सम्पत्ति है। जाहिर है उस सम्पन्नता का आधार दैवीय कृपा, औद्योगिक क्रान्ति या लूट-खसोट नहीं था। उसका आधार तत्कालीन शासकों द्वारा पोषित व्यवस्था और बहुसंख्य समाज द्वारा आजीविका के लिए अपनाया खेतिहर माडल ही रहा होगा। 

आज भी भारत के बहुसंख्य लोगों की आजीविका का आधार खेती है। उसके निर्णायक घटक हैं, समय पर पानी, उपजाऊ मिट्टी, अनुकूल बीज और ओला वृष्टि और असमय वर्षा को छोडकर, कुछ-न-कुछ उत्पादन देने वाली रणनीति। खेती को मिली सर्वोच्च वरीयता को देखकर लगता है कि भारत के परम्परागत समाज ने स्थानीय जलवायु और प्राकृतिक संसाधनों को ध्यान में रख ऐसा भरोसेमन्द निरापद माडल विकसित कर लिया था जिसका पालन करने के कारण उनकी आजीविका और आर्थिक सम्पन्नता सुनिश्चित होती थी। उन्होंने बरसात की अनिश्चितता से निपटने के लिए एक ही समय में, एक से अधिक फसल लेने की कृषि प्रणाली को अपनाया था। इसी कारण भारत में खेती सबसे अधिक सम्मानजनक व्यवसाय बन गया था। इस माडल के इर्द-गिर्द रोजगार प्रदान करने वाली अनेक सहायक गतिविधियाँ भी थीं। उनमें कारीगरों और भूमिहीनों के लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी रोजगार की उपलब्धता के अवसर थे। वह आजीविका का समावेशी माडल था। इसी कारण उसकी समाज सम्मत स्वीकार्यता का दायरा विस्‍तृत था।

खेती के मुख्यधारा में होने के कारण राजस्व प्राप्ति के लिए राजाओं की सर्वाधिक निर्भरता खेती पर ही थी। इस कारण उन्होंने न केवल खेती को बढ़ावा दिया वरन उसकी कठिनाईयों को कम करने के लिए अनेक प्रयास किए। इसके प्रमाण बुन्देलखंड, बघेलखंड , मालवा या महाकोशल में ही नहीं मिलते, अपितु तमिलनाडु सहित पूरे भारत में मिलते हैं। इन प्रयासों ने पानी की उपलब्धता को बेहतर बनाया था। इसी के साथ उन्होंने मौसम की अनिश्चितता से निपटने के लिए बीजों की विविध प्रजातियों और खेती की निरापद प्रणालियों को अपनाया। अल्प वर्षा और अल्प उत्पादक क्षेत्रों में पशुपालन को आजीविका से जोड़ा। उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि तत्कालीन समाज ने खेती को केन्द्र में रखकर आजीविका का समावेशी तानाबाना बुना था। इस कारण अनेक राजाओं को कला और शिल्प को बढ़ावा देने का और व्यापारियों को अन्तर्देशीय व्यापार का अवसर मिला। इसी कारण ईसा पूर्व भारत का काली मिर्च, मसालों और वस्त्रों का व्यापार दूर-दूर तक फैला। इसी कारण अनेक विदेशी बाजारों पर भारत के व्यापारियों का नियंत्रण कायम हुआ। इस दौर में किसान पर नीतियों और बाजार की दखलन्दाजी नहीं थी। यह पश्चिम से धन की आवक का दौर था।

उपलब्ध आंकडों के अनुसार सन् 1900 तक गंगा नदी की घाटी में लगभग आधी जमीन पर खेती होती थी। भारत के मध्य-क्षेत्र में खेती का आंकड़ा लगभग 60 से 80 प्रतिशत और दक्षिण भारत में थोडा अधिक था। सन 1990 तक भारत में खेती की परम्परागत तकनीकों, उपकरणों और फसल की किस्मों में कोई खास बदलाव नहीं आया था। सब कुछ स्थानीय तथा परम्परागत था। खेती को मदद कर तथा कृषि उपकरणों का निर्माण कर कारीगर आजीविका पाते थे। खेती की भूमिका अन्न उत्पादन के साथ-साथ आजीविका संकट के समाधान की भी थी। इस व्यवस्था के कारण गांव का धन, मौटे तौर पर गांव में ही रहता था।

आजाद भारत में 1947 के बाद हालात बदले। साठ के दशक में अपनाई गई ‘हरित क्रान्ति’ ने परम्परागत खेती की तकनीकों, उपकरणों और फसल की किस्मों में आमूल-चूल बदलाव किया। कारपोरेट के हाथ में खेती की बागडोर आ गई। बीज, उर्वरक, कीटनाशक और जुताई के उपकरण बाहर से आने लगे। स्थानीय कारीगर और खेतिहर मजदूर मुख्यधारा से बाहर हो गए। बैलों का स्थान मशीनों ने ले लिया। इस बदलाव ने चरनोई जमीन की बंदरबांट की राह आसान कर दी। जलवायु परिवर्तन, बाजार की दखलन्दाजी और ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ की अलाभकारी नीतियों ने ग्रामीणों द्वारा अर्जित धन को मय ब्याज के वापिस ले लिया। कारपोरेट प्रचार की चकाचौंध में बाहरी बीज, उर्वरक, कीटनाशक और जुताई के उपकरणों का विकास ही खेती के विकास का पर्याय हो गया। उपर्युक्त बदलावों के कारण छोटे किसानों के लिए खेती की जरा-सी ऊँच-नीच बर्दास्त के बाहर हो गई। बड़ी जोत वाले किसानों को छोड़कर छोटे किसानों, खेतीहर मजदूरों और कारीगरों का खेती से मोहभंग होने लगा। धीरे-धीरे पलायन और आत्महत्या जैसे उनकी नियति बन गई। आधुनिकता की चकाचौंध में कृषि प्रबन्धकों का नजरिया बदल गया।

सवाल है कि क्या खेती से लगातार विमुख होते ग्रामीण अर्ध-शिक्षित या अल्प-शिक्षित बेरोजगारों को बाजारोन्मुखी विकास के मौजूदा माडल की मदद से शहरों में सम्मानजनक स्थायी रोजगार तथा सामाजिक सुरक्षा दिलाई जा सकती है? क्या उस माडल की सहायता से वे लोग मंहगी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा हासिल कर सकते हैं और क्या बढ़ती आर्थिक असमानता को पाट सकते हैं?  क्या कृषि विकास के मौजूदा बाजारोन्मुखी माडल की सहायता से संविधान में दर्ज नागरिक अधिकारों को शहरी और ग्रामीण बेरोजगारों तक ले जाना तथा सुनिश्चित करना संभव है? शायद नहीं। क्योंकि उसके केन्द्र में समाज का नहीं अपितु कारपोरेट का हित है। क्या शीर्षक की उस कालजयी कहावत जिसने भारत की समृद्धि और गरीबों तथा साधनहीनों को स्थायी रोजगार उपलब्ध कराने में हजारों साल योगदान दिया है, पर पुनः विचार करने की आवश्‍यकता नहीं है? ग्रामीण अंचल में रोजगार के मुद्दे के हल के लिए हमें उसी परम्परागत खेती को ही मुख्यधारा में लाना होगा। यही उत्तम खेती को रेखांकित करती कहावत का सन्देश भी है।(सप्रेस)

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