डॉ. सन्तोष पाटीदार

‘हरित क्रान्ति’ के हल्ले में भरपूर रासायनिक खादों, दवाओं और कीटनाशकों की दम पर होने वाली फसलों को लेकर आजकल भारी बहस-मुबाहिसा छिडा है। एक तरफ, उपभोक्ता इन फसलों के प्रति बेजार होता जा रहा है और दूसरी तरफ, किसान भी आधुनिक कही जाने वाली इन फसलों को छोडकर दूसरे रास्ते तलाश रहा है। कौन-से हो सकते हैं, ये नए रास्ते? सरकार द्वारा बताई जा रही वैकल्पिक कृषि कितनी कारगर हो सकती है?

बीते 20 बरस से रसायन मुक्त या जैविक खेती कर रहे युवा प्रगतिशील किसान आनन्द सिंह ठाकुर इन दिनों मप्र की शिवराजसिंह चौहान सरकार की खेती – बाड़ी की नित- नई विरोधाभासी नीतियों से हैरान- परेशान हैं। उनकी परेशानी का कारण, मध्यप्रदेश सरकार की ‘प्राकृतिक खेती’ की नई घोषणा है। यह नीति असंतुलित है। उन्हें और उन जैसे ही, पर्यावरण संरक्षण में जुटे अन्य लोगों को आशंका है कि इस तरह दोहरी खेती के फेर के विरोधाभास में फंसकर किसानों से न ‘जैविक खेती’ हो पाएगी और न ही ‘प्राकृतिक खेती।’ आखिर में फिर वही रासायनिक कृषि पर निर्भरता हो जाएगी। जहरीले रसायन व रासायनिक उर्वरकों की कम्पनियों का बोल – बाला हो जाएगा। चूंकि इन कम्पनियों की वैश्विक आर्थिक ताकत है इसलिए कहा यह भी जा रहा है कि हो सकता है रासायनिक कृषि को बनाए रखने का यह सोचा- समझा खेल हो?

इंदौर के समीप उमरिया-खुर्द गाँव के आनंद, सूबे में जैविक खेती के लिए जाने जाते हैं। ‘भारतीय किसान संघ’ के वे जैविक खेती के झंडाबरदार हैं और मालवा सूबे के प्रमुख भी। उनकी और उनके जैसे अन्य किसानों की नाराजगी ‘प्राकृतिक खेती’ के मापदण्ड व अव्यवहारिक तौर- तरीकों से है। इनकी तरह और लोग भी हैं जो अब जैविक व प्राकृतिक खेती-किसानी के ‘रहस्य’ में उलझ गए हैं। रहस्य इसलिए कि इस खेती में पैदावार कैसे होगी और ज़्यादा उत्पादन कब, कैसे, किस तरीके से मिलेगा? दोनों पध्दतियां किस तरह अलग – अलग हैं, यह स्पष्ट नहीं है। ‘प्राकृतिक कृषि’ की शुरुआत कहां से, कैसे होनी है? ऐसे सवालों के जवाब मिलने बाकी हैं।  

‘जीरो बजट’ या ‘ऋषि’ या ‘प्राकृतिक खेती’ पूरी तरह से आदर्श स्थिति में होने वाली खेती है। यानी बाहरी इनपुट का उपयोग बिलकुल नहीं होगा। बीज से लेकर खाद – दवाई, हल-बख्खर की निंदाई – गुड़ाई कुछ नहीं। यह कहने-सुनने में अच्छा है, पर इसे करना अधिकांश किसानों के बूते की बात नहीं है। वजह साफ है, जमीन व वातावरण दोनों में रच-बस गए प्रदूषण को दूर होने में समय लगता है, तब तक इस खेती में भी जैविक की तरह फायदा नहीं होता। फिर उत्पादन के बढ़े दाम भी नहीं मिलते।

‘जैविक खेती’ में भी शुरुआत के 3 सालों तक नुकसान होता है। उपज के लिए बाजार व दाम की निश्चितता नहीं होती। वहीं ‘जैविक खेती’ से कठिन ‘प्राकृतिक खेती’ है। ‘जैविक खेती’ में गोबर की खाद, ट्रैक्टर का उपयोग, निंदाई-गुड़ाई व अन्य प्राकृतिक, बाहरी इनपुट प्रतिबंधित नहीं हैं, परन्तु रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशक आदि का उपयोग कतई नहीं किया जाता। इसलिए यह सुरक्षित व पर्यावरण अनुकूल है। इस पर शोध भी हुए हैं।

‘जैविक खेती’ से भी मीथेन व कार्बन डाइ-ऑक्साइड गैस का उत्सर्जन होता है जो ‘ग्रीन हाउस गैस’ में बढ़ोतरी कर रहा है। मशीनों के उपयोग से मिट्टी के जीवाणु नष्ट होते हैं। मल्चिंग (मिट्टी को ढकने) में प्लास्टिक का उपयोग हो रहा है जो मिट्टी के साथ फसल व पानी के स्रोतों को जहरीला करता है। विदेशी केंचुए सिर्फ मिट्टी खाते हैं, खाद नहीं बनाते, फिर भी जैविक व अन्य कृषि में इनका बिना सोचे-समझे उपयोग हम वर्षों से कर रहे हैं।   

वैज्ञानिकों का मत है कि मिट्टी के पर्याप्त पोषण के लिए कार्बन, नाइट्रोजन, पोटेशियम आदि तत्वों का संतुलन बनाए रखना जरूरी है तभी मिट्टी उर्वर बनी रहती है। देश की उपजाऊ मिट्टी कमजोर हो चुकी है। पोषक तत्वों की भयावह कमी हो गई है। कार्बन की कमी बड़ा संकट है, इसलिए गोबर की खाद बेहद जरूरी है। वैकल्पिक खेती में उर्वर पोषक तत्वों की कमी हो सकती है।

दूसरी ओर ‘प्राकृतिक खेती’ के विशेषज्ञ व इस पद्धति के पैरोकार वैज्ञानिक कहते हैं कि इन सब तथ्यों, आशंकाओं और आधुनिक खेती के खतरों के जवाब सिर्फ ‘प्राकृतिक खेती’ में हैं। जैसा कि ‘प्राकृतिक खेती’ के जनक सुभाष पालेकर द्वारा बताया गया है कि रासायनिक खेती से धरती बन्जर हो गई है। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ व ‘जलवायु परिवर्तन’ के साथ खेती सम्बंधित प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण दोहन नए – नए संकट ला रहा है।

सरकार ‘प्राकृतिक खेती’ का तालमेल ‘जैविक खेती’ व ‘रासायनिक खेती’ के साथ बैठाए बिना ‘प्राकृतिक खेती’ की घोषणाएं करती जा रही है। ‘प्राकृतिक खेती’ के सफल, जीवंत प्रयोगों से किसानों को निकट से परिचित करवाये बिना इसका ऐलान कर दिया जाता है। इससे किसानों को सरकार पर भरोसा नहीं हो रहा। सरकार को चाहिए था कि पहले ‘जैविक कृषि’ वाले किसानों को ‘प्राकृतिक खेती’ अपनाने के लिए सहमत किया जाता। इन किसानों के लिए यह आसान होता।  

देश में इस समय जैविक या ऑर्गेनिक खेती के उत्पादों का बाज़ार प्रसार पा रहा है। ऐसे में सरकारें लम्बी कसरत के बावजूद प्राकृतिक व जैविक खेती में तालमेल बैठाने की बजाए जल्दबाजी में ‘प्राकृतिक खेती’ की घोषणा करती जा रही हैं। मध्यप्रदेश से पहले हरियाणा सरकार ने भी ‘प्राकृतिक खेती’ को बढ़ावा देने की घोषणा करते हुए ‘प्राकृतिक खेती बोर्ड’ बनाने का ऐलान किया है।

असल में, हरित क्रांति की आधुनिक कृषि के शुरुआती फायदों के बाद बीते चार – पांच दशकों से रासायनिक खेती-किसानी के फायदे लगातार घटते जा रहे हैं, तो वहीं, जानलेवा दुष्प्रभाव भयावह तरीके से बढ़ते ही जा रहे हैं। इससे चिंतित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जबसे प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने की अपील की है तब से बीजेपी शासित सरकारों में इसे लेकर फटाफट घोषणाओं की होड़ सी लग रही है।  

‘प्राकृतिक खेती’ एक रसायन मुक्त, पारंपरिक कृषि पद्धति है। इसे कृषि पारिस्थितिकी आधारित विविध कृषि प्रणाली के रूप में माना जाता है जो कार्यात्मक जैव विविधता के साथ फसलों, पेड़ों और पशुधन को एकीकृत करती है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है –  जैसे, जंगल का परिस्थितीक तन्त्र पूर्णतया प्राकृतिक है। वहां मानवीय दखल नहीं होता है। यह प्रकृति नियंत्रित वैज्ञानिक व्यवस्था है।

जंगल में बिना बोवाई, बिना जुताई, बिना सिंचाई, बिना खाद, बीज, बिना कीट नियंत्रक के  जीवन बखूबी पीढ़ी-दर-पीढ़ी फलता-फूलता है। जंगल में प्राकृतिक संसाधनों – सूर्य ऊर्जा, प्रकाश, हवा, वर्षा, तापमान, मिट्टी, जल के उपयोग से वनस्पति व जंगल के जीव अपना जीवन जीते हैं। जितना प्रकृति से लेते हैं, उससे ज्यादा उसे लौटाते हैं और यह चक्र चलता रहता है। इसी तर्ज पर प्रकृति आधारित खेती – किसानी, ‘प्राकृतिक खेती’ है।

‘प्राकृतिक खेती’ को मोदी सरकार ने केंद्र प्रायोजित योजना बनाया है। ‘परम्परागत कृषि विकास योजना’ (पीकेवीवाई) के तहत ‘भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति कार्यक्रम’ (बीपीकेपी) लागू किया गया है। ‘बीपीकेपी’ का उद्देश्य पारंपरिक स्वदेशी पध्दतियों व तकनीकों को बढ़ावा देना है। इससे लागत में कमी आएगी। यह बड़े पैमाने पर ‘बायोमास मल्चिंग’ पर ‘ऑन-फार्म बायोमास रीसाइक्लिंग’ सिद्धांत पर आधारित है। एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘प्राकृतिक खेती’ से खरीदे जाने वाले आदानों पर निर्भरता कम होगी और छोटे किसानों को ऋण के बोझ से मुक्त करने में मदद मिलेगी।

‘बीपीकेपी’ कार्यक्रम आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तरप्रदेश और केरल राज्य में अपनाया गया है। कई अध्ययनों में पाया है कि ‘प्राकृतिक खेती’ वृद्धि, स्थिरता, पानी के उपयोग की बचत, मिट्टी के स्वास्थ्य और कृषि पारिस्थितिकी तंत्र में सुधार के संदर्भ में महत्वपूर्ण है। इस पद्दति को रोजगार बढ़ाने और ग्रामीण विकास की गुंजाइश के साथ एक लागत प्रभावी कृषि पद्धति के रूप में माना जाता है।

‘नीति आयोग’ ने ‘कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय’ के साथ प्राकृतिक कृषि पद्धतियों पर वैश्विक विशेषज्ञों के साथ कई उच्च स्तरीय चर्चाएं की हैं। मोटे तौर पर यह अनुमान लगाया गया है कि भारत में लगभग 2.5 मिलियन हेक्टयर में किसान पहले से ही मिली – जुली  पुरातन कृषि का अभ्यास कर रहे हैं। अगले 5 वर्षों में, इसके 20 लाख हेक्टेयर तक पहुंचने की उम्मीद है। (सप्रेस)

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