दिल्ली की सीमाओं पर कई महीनों से धरना देकर बैठे किसानों की दो कानूनों और एक कानून में संशोधन को वापस लेने के अलावा एक महत्वपूर्ण मांग सभी 23 फसलों पर ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ लागू करने का कानून बनाने की है। क्या होगा यह कानून? इससे किसानों को कैसे लाभ होगा?
हाल ही में किसान आंदोलन ने माँग रखी है कि ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) के लिए कानूनी प्रावधान होना चाहिए। यानी ‘एमएसपी’ पर उपज खरीदना कानूनी रूप से जरूरी किया जाए और ऐसा न करने वालों पर कार्यवाही होनी चाहिए। यह एक वाजिब, नैतिक माँग है, परंतु कई शुभचिंतक, इस पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। उनका कहना है कि यह अव्यवहारिक है क्योंकि अधिकांश फसलों के लिए सरकारी खरीद नहीं की जाती और मण्डियों में कटाई के समय, बाज़ार भाव अमूमन ‘एमएसपी’ से कम ही रहता है।
यदि मंडियों में कानून के बल पर ऐसा प्रयास करें कि कोई भी बोली ‘एमएसपी’ के नीचे नहीं लगे तो इसके दो नतीजें होंगे – एक काला-बाज़ारी नहीं होगी और दूसरा बाज़ार का बिखराव नहीं होगा। व्यापारी नज़र बचाकर अलग-अलग जगहों पर सौदा करेंगे और मण्डियों से हट जाएँगे। दोनों परिस्थितियों में किसानों को नुकसान होगा।
इन परिस्थितियों का मुकाबला कैसे किया जा सकता हैॽ
‘एमएसपी’ की परिकल्पना में विरोधाभास को स्वीकार करना चाहिए क्योंकि अधिकांश फसलों के संबंध में यह एक आदर्श भाव है, न्यूनतम भाव नहीं। इस आदर्श या उचित भाव की संभावना तभी बनती है जब सरकारी खरीदी इस भाव पर की जा रही हो। अन्यथा यह केवल कागज़ की खोखली घोषणा भर बनकर रह जाती है। कानून के स्वरूप में ऐसा प्रयास होना चाहिए जिससे बाज़ार भाव को, बाज़ार के तरीकों से ऊपर खींचा जा सके।
सरकार को 100 प्रतिशत फसल खरीदने की आवश्यकता नहीं है। हमारे आसपास गेहूँ के वर्तमान उदाहरण से यह बात समझी जा सकती है। इस वर्ष गेहूँ की कटाई के बाद देवास के कुछ छोटे किसानों ने, जिन्हें पैसों की तुरंत ज़रूरत थी, गाँव में ही अपनी फसल बेच दी। सरकारी घोषित भाव ₹1975 प्रति क्विंटल था, किन्तु उन्हें गाँव में ₹1600-1650 प्रति क्विंटल के भाव ही मिले। सरकार के खरीदी केन्द्र इस समय तक शुरू नहीं हुए थे। यदि ये पहले शुरू हो जाते तो भाव बेहतर होता।
इसी समय कई अन्य किसान मण्डी में जाकर अपनी फसल बेच रहे थे। इसके पीछे दो-तीन कारण थे। उनका सरकारी पंजीयन नहीं हो पाया था; या वे तुरंत अपनी बटाई का लेन-देन पूरा करना चाहते थे; या उन्हें तुरन्त पैसों की आवश्यवकता थी। इस समय, सरकारी खरीदी से पहले, मण्डियों में भाव ₹1700 से 1800 तक रहा। अधिकांश किसानों ने अपनी फसल सरकारी खरीदी के लिए रोक कर रखी थी। सरकारी खरीदी की घोषणा का असर आप इस कड़ी से देख सकते हैं: सरकारी संभावित भाव ₹1975 – मण्डी में भाव ₹1700 से 1800 – गाँव में भाव ₹1600 से 1650।
मार्च के अंत तक सरकारी खरीदी केन्द्र शुरू हो गए थे और यहाँ भाव ₹1975 प्रति क्विंटल का मिला। पंजीयन के अनुसार खरीदी सीमा तय की गई थी। इसी दौरान गेहूं की गुणवत्ता अनुसार मण्डियों में भाव ₹1800 से 2100 प्रति क्विंटल तक रहा। सरकारी भाव एक ‘इंजन’ है जिसे आज भी ‘लीडर’ भाव कहा जाता है। हर जगह सौदा इससे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है।
किसानों के पास सरकार को ‘एमएसपी’ पर बेचने का मौका है। किसान इसके करीब का भाव तलाशते हैं। यदि यह सरकारी खरीदी नहीं हो, तो बाज़ार भाव बहुत तेज़ी से गिर सकता है। किसान एक साथ मंडी पहुँचते हैं तो आवक बहुत अधिक होती है। एक अनुमान है कि यदि सरकारी खरीदी नहीं होती तो मंडी भाव 1500-1600 रुपए प्रति क्विंटल तक रहता। क्योंकि सरकार बाज़ार में आए गेहूँ का लगभग 50 प्रतिशत खरीद रही है, मण्डी का भाव बढ़ जाता है, यानी कि ऊपरी खींचतान होती है।
सरकारी खरीदी के साथ-साथ सरकार का दायित्व है कि वह निजी व्यापार को भी मज़बूती दे। इस निजी व्यापार द्वारा मण्डियों का गेहूँ कई मिलों को जाता है। मण्डियों से खरीदी करने वाले व्यापारी दो बातों पर ध्यान देते हैं। एक, सरकारी भाव और दूसरा गेहूँ की गुणवत्ता। यदि मण्डियों में ग्रेडिंग की व्यवस्था की जाए तो किसानों को और भी फायदा हो सकता है और बाज़ार भाव सरकारी भाव को पार करने की संभावना रखता है। साथ ही मण्डी में व्यवस्था बनाए रखना एवं अधिक-से-अधिक व्यापारियों को शामिल करना प्रतिस्पर्धा बढ़ाता है, जिससे किसानों को बेहतर भाव मिलता है।
ऐसे में सरकारी खरीदी एवं मण्डियों में व्यापारियों द्वारा निजी बाज़ार के लिए खरीदी, एक दूसरे के पूरक बनते हैं। सरकार को दोनों जगह काम करना है – एक, सरकारी खरीदी केन्द्रों का नियोजन और दूसरा, मण्डी व्यवस्था का नियोजन। इस प्रकार दोनों व्यवस्थाएं मजबूत बन सकती हैं। सरकार का लक्ष्य होना चाहिए कि वह 25 से 40 प्रतिशत की खरीदी करके बाज़ार भाव को ‘एमएसपी’ के समकक्ष रखे।
गेहूँ के उक्त उदाहरण से साफ होता है कि हमें मण्डी व्यवस्था मज़बूत करनी है एवं एक सीमा तक सरकारी खरीदी भी करनी होगी। यही प्रक्रिया अब हमें अन्य फसलों के लिए करनी होगी, खासकर ज्वार, बाजरा, चना, तुअर, मूँग, तिल, मूँगफली आदि। अभी इन फसलों के लिए अधिकांश निजी बाज़ार ही है। मण्डी का भाव फसल कटाई के बाद ‘एमएसपी’ के नीचे ही रहता है। इस भाव को ऊपर उठाने के लिए सोसायटी या संग्रह केन्द्र के जरिये सरकारी खरीदी की जानी चाहिए। यहाँ क्षेत्र अनुसार लक्ष्य बनाया जाए और छोटे किसानों को मौका मिले।
उड़ीसा ने मोटे अनाज या सबसे पौष्टिक अनाज के लिए कारगर व्यवस्था बनाई है। वहाँ के आदिवासी एवं छोटे किसान इन केन्द्रों तक कोदों-कुटकी जैसे अनाज सरकारी भाव पर बेचने आ रहे हैं। इससे एक और बड़ा फायदा उभरता हुआ दिख रहा है। पारंपरिक खानपान में जो अनाज पहले उपयोग किया जाता था, उसका प्रचलन लोगों के बीच बढ़ रहा है। यह लोगों के जीवन का हिस्सा था जो वे आज भी चाहते हैं, किन्तु बाज़ार में उपलब्ध नहीं है। उदाहरण के लिए हमारे यहाँ आज से तीन दशक पहले मुख्य अनाज ज्वार था, न कि गेहूं। लोगों के बीच माँग बढ़ने से इन पौष्टिक अनाजों के लिए निजी व्यापार के बढ़ने की संभावना बनती है। अत: सरकारी खरीदी और निजी व्यापार, एक-दूसरे के पूरक बन सकते हैं।
सरकार इन अनाजों का क्या करेॽ उनका वितरण सरकारी योजनाओं में भरपूर होना चाहिए, जैसे कि उचित मूल्य की दुकान, स्कूलों एवं आंगनवाड़ी केन्द्रों में मध्यान्ह भोजन एवं पोषण आहार हेतु इसका उपयोग किया जा सकता है।
‘एमएसपी’ कानून बनाने के लिए क्या किया जा सकता हैॽ
यह समझना होगा कि यह कानून सामाजिक बदलाव के लिए रास्ता बनाएगा। वह केवल दंड के ज़ोर पर नहीं चल सकता है। कानून और नीति का मिला-जुला स्वरूप जरूरी है। केवल नीति से बात नहीं बनेगी, क्योंकि उसे लागू करने के लिए कोई दबाव चाहिए। पचास वर्षों का अनुभव यही बताता है कि ‘एमएसपी’ की घोषणा अधिकांश फसलों के लिए कागज़ी रही है। दूसरी ओर, केवल कानून के ज़ोर पर बाज़ार चलाने के लिए मज़बूर करें, तो व्यापारी ‘पतली गलियाँ’ ढूंढ लेंगे। इन दोनों का मेल चाहिए। इसके लिए कुछ विशेष बिन्दु इस प्रकार हो सकते हैं :
1. सरकारी खरीदी, एक सीमा तक, ‘एमएसपी’ फसलों के लिए अनिवार्य हो और गाँव के आसपास ही खरीदी केन्द्र बनाए जाएँ।
2. सरकारी खरीदी का लक्ष्य राज्य सरकार के साथ मिलकर, क्षेत्र अनुसार तय किया जाए। व्यवस्था बनाने में निवेश केंद्र सरकार करे और खरीदी एवं वितरण राज्य सरकार की जिम्मेदारी हो। राज्य सरकार का लक्ष हो कि अपने क्षेत्र अनुसार खाध्य-सुरक्षा की व्यवस्था बनाए और धीरे-धीरे ‘भारतीय खाद्य निगम’ (एफ़सीआई) पर कम निर्भर हों।
3. मण्डियों में अगले तीन वर्षों तक, कोई भी बोली ‘एमएसपी’ के 15 प्रतिशत के नीचे नहीं हो। कुछ समय के लिए यह छूट दी जाए, जब तक निजी बाज़ार का फैलाव हो और भाव को ‘एमएसपी’ के समकक्ष आने का मौका मिले। यदि किसी कारणवश इस सीमा का उल्लंघन होता है तो व्यापारी को कुछ दंड के साथ इसकी भरपाई मंडी में करनी होगी।
4. मण्डियों का विस्तार किया जाए और वहाँ ग्रेडिंग एवं तोल व्यवस्था को आधुनिक बनाया जाए।
5. मण्डियों में खाद-बीज के लिए सरकारी विक्रय केन्द्र बनें।
किसान आंदोलन से उम्मीद की जाए कि कृषि क्षेत्र की बुनियादी समस्याओं को मुद्दा बनाएं, जैसे हम कैसे गेहूँ-धान के दुष्चक्र से निकल सकते हैं? छोटे किसान एवं मज़दूर की आजीविका कैसे टिकाऊ बन सकती है? हम अपने मिट्टी, पानी और जंगल का संरक्षण कैसे कर सकते हैं? ‘एमएसपी’ का कानून एक कदम हो सकता है, पर यह बुनियादी समस्याओं के लिए रामबाण नहीं है। (सप्रेस)
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