भारत डोगरा

जीएम यानि ‘जेनेटिकली मोडीफाइड’ फसल अब फिर से चर्चा में है। यहां तक कि इसे ‘भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण’ (फूड सेफ्टी एंड स्टैण्डडर्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया, फसाई) अनुमति देने पर विचार कर रहा है। दूसरी तरफ, देश-विदेश की वैज्ञानिक बिरादरी, सामाजिक कार्यकर्ता और खाद्य संस्थान जीएम के विरोध में अलख जगा रहे हैं। विरोध करने वालों में मौजूदा सत्तारूढ भाजपा के मातृ-संगठन आरएसएस से जुडा ‘स्वदेशी जागरण मंच’ भी है। सवाल है कि क्या हम बिना वैज्ञानिक जांच-पडताल किए अपने भोजन में बदलाव करना चाहेंगे?

‘फसाई’ के समर्थन और ‘स्वदेशी जागरण मंच’ के विरोध के कारण आजकल ‘जेनेटिकली मोडीफाईड’ (जीएम) या ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग’ (जीई) फसलों पर फिर विवाद खडा हुआ है। जीएम खाद्यों के बारे में भारत सरकार महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने के दौर में है, और दूसरी तरफ, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ (आरएसएस) से जुडे ‘स्वदेशी जागरण मंच’ ने ‘भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण’ (फूड सेफ्टी एंड स्टैण्डडर्स अथोरिटी ऑफ इंडिया, एफएसएसएआई) को इस विषय में सावधान किया है कि हमारे देश के स्वास्थ्य की क्षति करने वाला कोई निर्णय न लिया जाए।

‘जीएम’ या ‘जीई’ फसलों में किसी भी पौधे या जन्तु के जीन या आनुवांशिक गुण का प्रवेश किसी अन्य पौधे या जीव में करवाया जाता है, जैसे – आलू के जीन का प्रवेश टमाटर में करवाना, सुअर के जीन का प्रवेश टमाटर में करवाना, मछली के जीन का प्रवेश सोयाबीन में करवाना, मनुष्य के जीन का प्रवेश सुअर में करवाना आदि। यह कार्य ‘जीन बंदूक’ से पौधे की कोशिका पर बाहरी जीन दागकर किया जाता है। सवाल है कि जीएम फसलें, जीएम खाद्य व जीएम उत्पाद (जीएमओ) हमारे देश और विश्व में इतने विवादग्रस्त क्यों बने हुए हैं?

जीएम फसलों के विरोध का एक मुख्य आधार रहा है कि ये फसलें स्वास्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं तथा उनका असर जेनेटिक प्रदूषण के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों व पौधों में फैल सकता है। इस विचार को ‘इंडिपेंडेंट साईंस पैनल’ (स्वतंत्र विज्ञान मंच) ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है। इस पैनल में एकत्र हुए विश्व के अनेक देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने जीएम फसलों पर एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज तैयार किया है।

अपने निष्कर्षों में ‘इंडिपेंडेंट साईंस पैनल’ में मौजूद 11 देशों के वैज्ञानिकों ने जीई फसलों के स्वास्थ्य के लिए अनेक संभावित दुष्परिणामों की ओर ध्यान दिलाया है। इन वैज्ञानिकों ने कहा है – “जीएम फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था वे प्राप्त नहीं हुए हैं। उलटे ये फसलें खेतों में समस्याएं पैदा कर रही हैं। अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रान्सजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता है। अतः जीएम फसलों व गैर-जीएम फसलों का सह-अस्तित्व नहीं हो सकता।’’

‘‘सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जीएम फसलों की सुरक्षा या सेफ्टी प्रमाणित नहीं हो सकी है। इसके विपरीत पर्याप्त प्रमाण प्राप्त हो चुके हैं जिनसे इन फसलों की सेफ्टी या सुरक्षा संबंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यदि इनकी उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की क्षति होगी जिसे फिर ठीक नहीं किया जा सकता। जीएम फसलों को अब दृढ़ता से खारिज कर देना चाहिए।’’ ‘यूनियन आफ कन्सर्नड साईंटिस्टस’ नामक वैज्ञानिकों के संगठन ने कुछ समय पहले अमेरिका में कहा था कि जीई उत्पादों पर फिलहाल रोक लगनी चाहिए क्योंकि ये असुरक्षित हैं।

वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जीएम फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं। जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक ‘जेनेटिक रुलेट् : द गेम्बल ऑफ अवर लाइफ’ के 300 से अधिक पृष्ठों में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप उपलब्ध है। इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में पेट, लिवर, आंतों जैसे विभिन्न महत्त्वपूर्ण अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है। जीएम फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने की चर्चा है व जेनेटिक उत्पादों से मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है।

कुछ वर्ष पहले भारत में बीटी बैंगन के संदर्भ में विवाद ने जोर पकड़ा तो विश्व के 17 विख्यात वैज्ञानिकों ने भारत के प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस बारे में नवीनतम जानकारी उपलब्ध करवाई थी। पत्र में कहा गया था कि जीएम प्रक्रिया से गुजरने वाले पौधे का जैव-रसायन बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है जिससे उसमें नए विषैले या एलर्जी उत्पन्न करने वाले तत्त्वों का प्रवेश हो सकता है व उसके पोषण गुण कम या बदल सकते हैं। जीव-जंतुओं को जीएम खाद्य खिलाने पर आधारित अनेक अध्ययनों से जीएम खाद्य के गुर्दे (किडनी), यकृत (लिवर) पेट व निकट के अंगों (गट), रक्त कोशिका, रक्त जैव रसायन व प्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटी सिस्टम) पर नकारात्मक असर सामने आ चुके हैं।

वैज्ञानिकों के इस पत्र में आगे कहा गया है कि जिन जीएम फसलों को स्वीकृति मिल चुकी है उनके अध्ययनों से यह नकारात्मक परिणाम नजर आए हैं जिससे पता चलता है कि कितनी अपूर्ण जानकारी के आधार पर स्वीकृति दे दी जाती है व आज भी दी जा रही है। इन वैज्ञानिकों ने कहा है कि जिन जीव-जंतुओं को बीटी मक्का खिलाया गया उनमें प्रत्यक्ष विषैलेपन का प्रभाव देखा गया। बीटी मक्के पर ‘मानसैंटो’ (बीज कंपनी) ने अपने अनुसंधान का जब पुनर्मूल्यांकन किया तो अल्प-कालीन अध्ययन में ही नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम दिखाई दिए। बीटी के विषैलेपन से एलर्जी के रिएक्शन का खतरा जुड़ा हुआ है।

बीटी कपास या उसके अवशेष खाने के बाद या ऐसे खेत में चरने के बाद अनेक भेड़-बकरियों के मरने व अनेक पशुओं के बीमार होने के समाचार मिले हैं। डा. सागरी रामदास ने इस मामले पर विस्तृत अनुसंधान किया है। उन्होंने बताया है कि ऐसे मामले विशेषकर आंध्रप्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक व महाराष्ट्र में सामने आए हैं। भेड़-बकरी चराने वालों ने स्पष्ट बताया है कि सामान्य कपास के खेतों में चरने पर ऐसी स्वास्थ्य समस्याएं पहले नहीं देखी गई थीं व जीएम फसल के आने के बाद ही यह समस्याएं देखी गईं। हरियाणा में दुधारू पशुओं को बीटी काटन बीज व खली खिलाने के बाद उनमें दूध कम होने व प्रजनन की गंभीर समस्याएं सामने आईं।

लगभग 100 डाक्टरों का एक संगठन है, ‘खाद्य व सुरक्षा के लिए डाक्टर।’ इस संगठन ने भी पर्यावरण मंत्री को जीएम खाद्य व विशेषकर बीटी बैंगन के खतरे के बारे में जानकारी भेजी है। उनके दस्तावेज में बताया गया है कि पारिस्थितिकीय चिकित्सा शास्त्र की अमेरिकी अकादमी ने अपनी संस्तुति में कहा है कि जीएम खाद्य से बहुत खतरे जुड़े हैं व इन पर मनुष्य के स्वास्थ्य की दृष्टि से पर्याप्त परीक्षण नहीं हुए हैं।

‘स्वदेशी जागरण मंच’ के समन्वयक डा. अश्वनी महाजन ने इस संदर्भ में सोशल मीडिया पर डाली याचिका ‘जीएम फुड को हमारे खाने की थाली में शामिल करने वाले एफएसएसएआई के प्रस्तावित नियमों को रोका जाए’ पर अनेक संस्थाओं, वैज्ञानिकों, प्रतिष्ठित व्यक्तियों और जनसाधारण ने हस्ताक्षर कर विरोध दर्ज किया है। इस याचिका के अनुसार स्वास्थ्य और पर्यावरण पर खतरनाक प्रभावों के कारण पूरी दुनिया आनुवांशिक रूप से संशोधित (जीएम) भोजन के खिलाफ खड़ी है। यहां तक कि उन देशों में जहां जीएम खाद्य के व्यवसायिक उत्पादन की अनुमति है, लोग जीएम से दूर हो रहे हैं।

याचिका में याद दिलाया गया है कि अनेक संगठनों के विरोध के फलस्वरूप बीटी बैंगन और आनुवांशिक रूप से संशाोधित सरसों को हमारी खाद्य श्रंखला में प्रवेश करने से रोक दिया गया, क्योंकि जीएम खाद्य फसलों के व्यवसायिक उत्पादन के लिए न केवल कोई अनुमति नहीं दी गई है, बल्कि उस पर स्थगन भी लगाया गया है। लेकिन अब नागरिकों को एक नए खतरे का सामना करना पड़ रहा है, जो स्वयं ‘एफएसएसएआई’ की तरफ से है। उल्लेखनीय है कि ‘एफएसएसएआई’ को खाद्य पदार्थों के लिए विज्ञान आधारित मानक निर्धारित करने और मानव उपभोग के लिए सुरक्षित और पौष्टिक भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए उनके निर्माण, भंडारण, वितरण, बिक्री और आयात को विनियमित करने के लिए बनाया गया था।

याचिका के अनुसार यदि ‘एफएसएसएआई’ विनियमन लागू होता है, तो हम उस स्थिति का सामना करेंगे जहां जीएम खाद्य पदार्थों की अधिकता हमारे उपभोग का हिस्सा बन जाएगी। हमारे पास इसे टालने का कोई विकल्प नहीं होगा, क्योंकि अधिकांश बड़े खाद्य आयातक अपने खाद्य पदार्थों को जीएम सामग्री के साथ आयात करने में सक्षम होंगे। मामले की गंभीरता को देखते हुए याचिका में नागरिकों से आग्रह किया गया है कि वे तत्काल इस पर हस्ताक्षर कर जल्द-से-जल्द ‘एफएसएसएआई’ को पत्र भेजें। यह इस बात से सम्बंधित है कि हम अपने प्रियजनों को क्या खिलाते हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि हमारा भोजन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक जीएमओ से मुक्त रहे।(सप्रेस)

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