खेती किसानी में क्रांतिकारी बदलाव लाने की उम्मीद में दम-खम लगाते करीब 3 दर्जन किसानी संगठन व केन्द्र सरकार दोनो खेती कानूनों को लेकर बुने गए अपने – अपने चक्रव्यूह से किसी तरह बाहर आने के लिए छटपटा रही है। सरकार पर दबाव बनाने की जल्दबाज़ी में देश-बन्द का कदम उठाकर किसान नेताओ ने आर – पार की लडाई का मन बना लिया।
अब बन्द की सफलता या असफलता पर ही आगे की राह तय होती नजर आ रही है। आंदोलन को लगता है कि विपक्षी दलों का समर्थन, संयम व शांति से भारत बन्द होने देगा ? क्या देश के किसान बन्द का समर्थन देते हुए मण्डियों में उपज नहीं लाएंगे ? ऐसा मानने का कोई कारण सतह पर तो नजर नहीं आता। हाँ, सरकारी भरोसे के अकाल में जीने के आदी किसानों में सरकार के लिए अंदरुनी ग़ुस्सा हो तो बात अलग है…। ऐसा होता है तो आंदोलन की ताकत साबित हो सकती है।
आंदोलन व सरकार के लिए बाजार खुलने या बन्द होने से ज्यादा मण्डियों में किसानों की अनुपस्थिति महत्व रखती है। वही, ऐसी स्थिति बनने के ज्यादा आसार शायद तब हो सकते थे, जब किसानों का विरोध तटस्थ रहता। इस समय आंदोलन के प्रति स्वमेव उपजी किसानों की सुहानुभूति को विरोधी दलों की भागीदारी, प्रभावित कर सकती है। जैसा कि निमाड़ के वनवासी इलाके में संघ व भाजपा की जमीन तैयार करने वाले कृषि मंडी के अध्यक्ष रह चुके एक किसान नेता कहते है विरोधी राजनीतिक दलों के कारण किसान समर्थन से परहेज़ करेंगे। अब आंदोलन राजनीति की भेंट चढ़ता नजर आ रहा है। कल तक आम किसान चाहे किसी विचारधारा का हो आंदोलन से सहमत रहा पर अब राजनीति हावी होने से वह उदासीन हो जायेगा।
सरकार चाहती भी यही है । ऐसे आंदोलन हर सत्ता के लिए बड़ा सिरदर्द होते हैं। इसलिए किसान विरोध को तितर – बितर करने के हर दाँव पेंच अजमाए जा रहे है। इस काम में सरकार की नौकरशाही माहिर होती है। आजादी के पहले की तरह, आजाद देश की सरकारें चलाने वाले नौकरशाह हर तरह के जनविरोध को कुचलना जानते है । यह इसी से ज़ाहिर है कि शुरू से हर जमीनी आंदोलन की तरह किसान आंदोलन को भी थकाने की रणनीति पर काम हो रहा है। किसान महिलाओं, बच्चों युवा और बुजुर्गों का 12 दिनों से अथक कड़कड़ाती ठण्ड में धरना देना बेहद कठिन है। इस पर खुले में किसान महिलाओं की दिनचर्या मुश्किल भरी है। ऐसे हालात आंदोलनों को थकाने वाले होते है। जीवट व अहिंसक सत्याग्रहियों के सामने सरकार अक्सर थकाने की रणनीति अपनाती है। किसानों के मामले में भी ऐसा हो रहा है, नतीजे में परेशान आंदोलन ने लगता है भारत बन्द का ऐलान कर आर – पार की लडाई का अस्त्र चला दिया।
इसके साथ ही अचानक धूर्त व चालाक शिकारी की तरह, निशाना साधे विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा आंदोलन व देश बन्द को दिये समर्थन ने सरकार के लिए राह आसान कर दी । इससे पैदा होने वाले हालात, बलप्रयोग और आंदोलन के प्रति जन सहानुभूति को कमजोर करने के सरकार के खेल को आसान कर सकते है। क्योंकि किसानों के आंदोलन को इस मोढ़ पर ला खड़ा करने से आंदोलन के राजनीतिकरण का अंदेशा होने लगा है । कहा जा रहा है किसान नेताओं को आवेश में इतनी जल्द देश बन्द का कदम नहीं उठाना था।
सरकार की पैतरेबाजी का जवाब देते हुए, आंदोलन को नियत समय सीमा तय कर वार्ता को किसी अंजाम तक पहुंचाने की कोशिशें करनी चाहिए थी। सभी विकल्प बन्द होने तक रुकना बेहतर होता । किसान संगठन बन्द व राजनीतिक दलों से अलग हो पहले की तरह सत्याग्रह करते तो जनता के साथ देशभर के किसानों और आरएसएस के किसान संघ के किसानों का भी मौन साथ मिलता रहता। क्योंकि कानून बनने के पहले दिन से संघ नए तीनों किसानी कानूनों के कई प्रावधानों के विरोध में रहा है । वह आंदोलन की प्रमुख मांगों से वास्ता भी रखता रहा । देश बन्द के बहाने विरोधी दलों के आंदोलन समर्थन में आने से ,संघ ने देश बन्द से दूरी बनाने की खुली घोषणा कर दी है।
जाहिर है बीते कुछ समय से पक्ष विपक्ष के जिस तरह के राजनीतिक तेवर है वह चिंताजनक है। उससे बीते शिवराज सरकार – काल में हुए किसान आंदोलन के दौरान मन्दसौर में हुई हिंसा जैसी अराजकता की आशंका संघ के साथ जनता को भी है। क्योंकि सत्ता लोलुपता के खून में रची बसी हर दल की किसी भी कीमत पर सत्ता पाने की अदम्य इच्छा राजनीतिक टकराहट पैदा करती है । इस पके – पकाए आंदोलन के बहाने विरोधी हो अन्य दल, किसानों के मचान को हाइजैक कर सत्ता पाने व बचाने का शिकार कर, हित साधना चाह रहे है । राजनीति व सत्ता के इस पारम्परिक जाल में किसान हमेशा की भांति फंसा नजर आ रहा है। यह अलग बात है भारत बन्द से किसानों का भला हो या ना हो, इससे कोरोना की चेन टूटने की उम्मीद जरूर की जा सकती है। इसी बहाने अपने अन्नदाताओं का कर्ज उतारने के लिए देशवासियों को, घर मे बने रहने का छोटा – सा जतन करने से गुरेज नहीं होना चाहिए। (सप्रेस)
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