किसान आंदोलन प्रधानमंत्री और उनकी सरकार से अधिक अब विपक्षी दलों की संयुक्त ताक़त और जनता के उस वर्ग के लिए चुनौती बन गया है जो कृषि क़ानूनों की समाप्ति को सत्ता के गलियारों में प्रजातांत्रिक मूल्यों की वापसी के रूप में ढूंढ रहे हैं। किसान आंदोलन के ज़रिए जनता की लड़ाई की नयी परिभाषा स्थापित होने जा रही है।
किसान आंदोलन को लेकर अब आगे क्या होने वाला है ? सरकार क्या करने वाली है ? समूचे देश (और दुनिया की भी )नज़रें इस समय दिल्ली की तरफ़ टिक गईं हैं। सरकार के अगले कदम की किसी को कोई जानकारी नहीं है। मतलब, कुछ भी हो सकता है। सब कुछ मुमकिन है। सरकार की ओर से संकेत भी मिलना प्रारम्भ हो गए हैं कि विवादास्पद क़ानूनों को वापस नहीं लिया जाएगा। विपक्ष की आवाज़ को दरकिनार करते हुए जिस तरह की प्रक्रिया विधेयकों को पारित करवाने के लिए संसद में (ख़ासकर राज्य सभा में ) अपनाई गई थी बताने के लिए पर्याप्त है कि सरकार के लिए दांव राजनीतिक रूप से कितना क़ीमती है।
साफ़ है कि सरकार के लिए मामला केवल कृषि क़ानूनों तक ही सीमित नहीं है। उसके लिए नाक का सवाल ‘दबाव की राजनीति’, वह चाहे कितनी भी नैतिक ही क्यों न हो, के सामने झुकने या नहीं झुकने का बन गया है। प्रधानमंत्री के ज्ञात स्वभाव में झुकना शामिल नहीं है। स्पष्ट है कि जन-आंदोलन के दबाव में किसी एक भी मुद्दे पर समझौते का अर्थ यही होगा कि उन तमाम आर्थिक नीतियों की धारा ही बदल दी जाए जिन पर सरकार पिछले छह वर्षों से लगी हुईं थी और जिनके ज़रिए वह ‘फ़ाइव ट्रिलियन इकॉनामी’ की ताक़त दुनिया में क़ायम करना चाहती है। अतः कृषि क़ानूनों को किसी भी परिणाम की जोखिम उठाकर लागू करना उसकी ज़िद का हिस्सा बन गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं। अकाली दल के सरकार से अलग हो जाने से भी कोई नुक़सान नहीं हुआ।
सरकार और किसानों के बीच सम्बंध ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं कि आपसी संवाद की गुंजाइश केवल औपचारिकता निभाने तक सीमित रह गई है। आंदोलन की कमान भी अब किसान संगठनों के हाथों से निकलकर विपक्षी दलों के हाथों में है। मंगलवार के ‘भारत बंद’ को विफल करने की ज़ोरदार कोशिशें प्रारम्भ कर दी गईं हैं। इस दौरान अगर कोई हिंसा होती है तो उसका ठीकरा किसानों के सिर पर फोड़ दिया जाएगा। सवाल अब यह नहीं बचा है कि किसान कितनी लम्बी लड़ाई लड़ने की तैयारी से दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचे हैं,बल्कि यह जानने का बन गया है कि सरकार की तैयारियाँ उसे कितनी दूरी तक ले जाने देने की हैं।
गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी के तेरह वर्षों के कार्यकाल से परिचित लोग जानते हैं कि वे फ़ैसले लेने के बाद पीछे नहीं देखते। अपना ‘राज धर्म’ और उसकी सीमायें वे स्वयं तय करते हैं । देश में कोरोना के मरीज़ों की संख्या एक करोड़ और मरने वालों का आंकड़ा डेढ़ लाख पर पहुंचने को है पर चारों ओर शांति व्याप्त है। प्रधानमंत्री वैक्सीन की तलाश में पुणे, हैदराबाद आदि शहरों की यात्राएं भी कर रहे हैं, वाराणसी में पूजा-पाठ भी कर रहे हैं और किसानों के मोर्चे पर जो कुछ चल रहा है उस पर भी नज़रें रखे हुए हैं। प्रत्यक्ष तौर पर अनुपस्थित होते हुए भी वे हर जगह मौजूद हैं।
मोदी सितम्बर 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे। उसके आठ महीने पहले ही (जनवरी 2001) कच्छ में ज़बरदस्त भूकम्प आया था। उसका असर अहमदाबाद में भी पड़ा था। मुख्यमंत्री बनने के पाँच महीने बाद ही (फ़रवरी 2002) में गोधरा कांड हो गया। मोदी ने दोनों ही स्थितियों के साथ चतुराई से निपट लिया।भूकम्प से प्रभावितों के पुनर्वास के दौरान उनका एक ही नारा था कि यह आपदा को अवसर में पलटने का अवसर है। कहा जाता है कि मोदी आपदाओं में भी अवसरों की तलाश कर लेते हैं। इस समय भी शायद ऐसा ही हो रहा है।
चार साल बाद 2024 में भारत में लोकसभा के चुनावों के साथ ही अमेरिका में भी राष्ट्रपति पद के चुनाव होने वाले हैं। ट्रम्प को अगर बायडन के सामने हार मानते हुए व्हाइट हाउस अंततः ख़ाली करना पड़ता है तो वे ही अगले चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार फिर से बनने वाले हैं।मतलब मोदी और ट्रम्प दोनों एक ही समय चुनावों में होंगे।ध्यान देने वाली बात यहाँ सिर्फ़ यह है कि ट्रम्प ने भी अपने कार्यकाल में फ़ैसले नहीं बदले।अमेरिका में कोरोना संक्रमण के डेढ़ करोड़ मामले और दो लाख 81 हज़ार मौतों के बावजूद ट्रम्प ने विपक्ष, वैज्ञानिकों और जनता के एक बड़े वर्ग की इस मांग को अंत तक स्वीकार नहीं किया कि मास्क लगाना अनिवार्य करके हज़ारों लोगों की जानें बचाई जा सकती थी। ट्रम्प को विपक्ष और वैज्ञानिकों की सही मांग के बजाय अपने समर्थकों की ताक़त पर ज़्यादा भरोसा रहा। मोदी को भी किसानों और विपक्ष के मुक़ाबले ज़्यादा भरोसा अपने करोड़ों समर्थकों पर ही है।
किसान आंदोलन प्रधानमंत्री और उनकी सरकार से अधिक अब विपक्षी दलों की संयुक्त ताक़त और जनता के उस वर्ग के लिए चुनौती बन गया है जो कृषि क़ानूनों की समाप्ति को सत्ता के गलियारों में प्रजातांत्रिक मूल्यों की वापसी के रूप में ढूंढ रहे हैं। किसान आंदोलन के ज़रिए जनता की लड़ाई की नयी परिभाषा स्थापित होने जा रही है। इतिहास में लिखा हुआ है कि भारत में आज़ादी की लड़ाई के केवल मुख्यतः तीन ही केंद्र रहे हैं- पंजाब, बंगाल और महाराष्ट्र। संयोग ही है कि वर्तमान में तीनों ही जगहें अलग-अलग कारणों से चर्चा के केंद्र में हैं। (सप्रेस)
[block rendering halted]