सुभद्रा खापर्डे

गांधी विचार को लेकर बरसों-बरस होशंगाबाद के निटाया गांव में सक्रिय रहे स्व. श्री बनवारीलाल चैधरी के अनेक अनूठे प्रयासों में से एक था-अपने युवा कार्यकर्ताओं की ‘पीठ ठौंकने’ के दर्जे का सम्मान करना। हर साल सामाजिक कार्यों में लगे अपने आसपास के युवाओं को बुलाकर वे उनके कामकाज और अनुभवों पर बातचीत करते थे और फिर तरीफ में उनका आशीर्वाद-स्वरूप सम्मान किया जाता था। इसी परंपरा को बढ़ाते हुए ‘ग्राम सेवा समिति’ ने इस वर्ष इंदौर की सुभद्रा खापर्डे समेत कुछ मित्रों को सम्मानित किया है।

‘ग्राम सेवा समिति,’ निटाया, (होशंगाबाद) में मुझे दिनांक 17 मार्च 2019 को स्वर्गीय ‘श्री बनवारीलालजी चैधरी स्मृति अन्न स्वराज सम्मान’ दिया जाना तय हुआ था। मैं खुशी से भर गई और आश्चर्य भी हुआ की पता नहीं क्यों मेरा सम्मान करना चाहते हैं। वर्षों पुरानी बातें याद करने लगी। श्रद्धेय श्री बनवारीलालजी के रहते हुए मैं दो या तीन बार निटाया गई थी। उस जमाने में कार्यकर्ताओं का बड़ा ही जलवा था। जन-आंदोलनों के दिन थे। वरिष्ठ गांधीवादी इन आंदोलनकारियों का समर्थन करते और उन्हें प्यार से प्रोत्साहित करते थे। उनके आश्रमों में बड़ी-छोटी बैठकें एवं कार्यशालाएं आयोजित किए जाते थे। गांधीवादी हमारे जैसे जमीनी कार्यकर्ताओं  के संग में सुकून महसूस करते थे। पर यह बात अब 25 साल पुरानी हो गई है। सरकार ने देखा कि जन-आंदोलनों के कार्यकर्ता कुछ ज्यादा कूद रहे हैं और इन्हें दबाना जरूरी है तो इसके लिए सभी राजनीतिक दल एक हो गए। कार्यकर्ताओं को जेलों और अदालतों के चक्कर में फंसा दिया गया एवं इस प्रकार अधिकारों की लडाई को दमन के जरिये धीमा कर दिया गया।

ठहराव के इस दौर में मैं सोचने लगी कि मैं क्या कर सकती हूँ। धीरे-धीरे इंदौर शहर की बस्तियों की गरीब औरतों के प्रजनन स्वस्थ्य पर काम करना शुरू किया। इस काम को करते हुये मैंने पाया कि औरतों की सेहत का खराब होना उनके रोजमर्रा के भोजन से भी जुड़ा हुआ है। मैं सोचने लगी कि उनके भोजन में क्या शामिल किया जाए ताकि उनकी पोषण की स्थिति में  सुधार हो। उन्हें मैं दवाई के साथ बाजार में उपलब्ध सब्जी और फल खाने की सलाह देती थी। फिर मैंने देखा कि ये फल, सब्जियां एवं अन्य खाद्य पदार्थ जो बाजार में उपलब्ध हैं, सभी रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों से उत्पादित होकर सेहत के लिए हानिकारक हैं। इन खाद्यों से पोषण के साथ-साथ हमारे शरीर में जहर भी घुल रहा है।

इसी को ध्यान में रखकर मैंने सोचा कि क्यों न भोजन में प्राकृतिक रूप से उत्पादित चीजों को शामिल किया जाए। इतना ही नहीं, इस बात की चेतना लाना भी बड़ी चीज होगी कि सिर्फ दवाई खाने से स्वास्थ्य नहीं सुधर सकता, बल्कि हमें हमारे खान-पान को भी सही करना होगा। पर क्योंकि बाजार में अधिकतर रासायनिक कृषि की उपज ही उपलब्ध है इसलिए मुझे खुद प्राकृतिक कृषि करने के लिए मजबूर होना पड़ा। मैंने ग्राम पांडुतालाब, जिला-देवास में एक एकड़ जमीन खरीदी और उस पर देसी हिसाब से खेती करना प्रारम्भ किया। इस प्रकार की खेती पर लिखी डॉ. महेंद्र ‘मधुप’ की किताब “खेती के वैज्ञानिक” और श्री अरुण डिके द्वारा प्रकाशित “दाना पानी” पत्रिका के अंकों को पढ़ा। मुझे समझ में आया कि अधिकतर लोग सही भोजन नहीं खा पाने की वजह से ही बीमार हैं।

                मैंने ठान लिया कि औरतों को प्राकृतिक खेती के गुणवत्ता-पूर्ण उत्पादों की ओर ले जाऊँगी जिससे कि उनकी सेहत में सुधार लाने में काफी मदद मिलेगी। हमने न केवल प्राकृतिक खेती शुरू की, बल्कि इसमें काम के लिए अधिकतर औरतों को ही बुलाया ताकि वे उनकी पारंपरिक देसी खेती को वापस अपना सकें और खुद की खेती में प्रयोग कर सकें। पिछले तीन साल से यही देसी तरीका अपनाया जा रहा है। बारिश के समय एक एकड़ में 25 किस्म के बीज बोये जाते हैं। प्रत्येक फसल का पकने का समय अलग होता है एवं सभी को उसके अनुसार अवेरना होता है। गेहूं, चना हो या बाजरा, कोदों सभी को हाथ से निकाला जाता है। खाने लायक दाल या चावल भी हाथ से ही बनाया जाता है। यहाँ तक कि हल्दी भी हाथ की घट्टी से पीसी जाती है।

                यह काम काफी मेहनत का है इसलिए महिलाएं अब इसमें अधिक रुचि नहीं दिखातीं, वे देशी तरीकों को छोड़ चुकी हैं। असल में आज ऐसी सोच नहीं रही कि शुद्ध खाना है क्योंकि लोग इसके लिए जरूरी मेहनत करने से डरते हैं। आजकल लोग मशीन की सहूलियत के आदी हो गए हैं जबकि पहले जमाने में मशीनें नहीं थीं तो लोग मजबूरी के कारण मेहनत करते थे और शुद्ध भोजन करते थे। इस शारीरिक मेहनत से स्वास्थ्य भी बना रहता था और खाने की गुणवत्ता भी बनी रहती थी। मशीनी सभ्यता के फलस्वरूप मनुष्य आराम प्रिय हो गए हैं एवं मेहनत प्रधान जिंदगी की ओर लौटना मुश्किल हो गया है। अब उन पुराने तरीकों को वापस स्थापित करने के लिए कुछ लोगों को मेहनत करना ही पड़ेगा।

आज मैं जो खेती कर रही हूं उसका सूत्र मेरे बचपन के दिनों में है। जब मैं 12 साल की थी तब मेरी मां गुजर गई थी और उसके बाद मैं मेरे पिताजी के साथ खेत का काम, घर का काम भी करती थी और स्कूल की पढ़ाई भी करती थी। हम अत्यंत गरीबी में जीते थे। इसलिए उच्च-माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण होने के बाद भी रोजगार के अभाव में मुझे बीड़ी बनाना पड़ता था। आखिरकार मैं पीवी राजगोपाल जी द्वारा संचालित ‘प्रयोग’ संस्था में प्रशिक्षण के लिए इसलिए गई कि मुझे रोजगार चाहिए था न कि मुझे किसी तरह का सामाजिक कार्य करना था। वहाँ जाकर मुझे अच्छा खाना मिला तो मैं तृप्त हो गयी क्योंकि न जाने कितने दिनों से मुझे भरपेट भोजन नहीं मिला था। समय के साथ आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के रूप में काम शुरू कर अंततः मैं जन-आंदोलनों की कार्यकर्ता बन गई। इससे मेरा राजनीतिक, सामाजिक बदलाव का रुझान बना पर शुरुआत में मैं केवल दो वक्त के भोजन की ही सोच रही थी।

मेरी मां गरीबी के कारण बिना इलाज के गुजर गई थीं इसलिए मैंने महिलाओं के स्वास्थ्य का कार्य शुरू किया। महिलाओं को होने वाली प्रजनन स्वास्थ्य की समस्याओं के इलाज के लिए मैं उनकी बस्तियों में स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन करती हूं जिसमें स्त्री-रोग विशेषज्ञ, नर्स, लैब टेकनीशियन आदि ले जाकर जांच के बाद दवाई दी जाती है। इस काम को करने से मुझे समझ आया कि महिलाएं अधिकतर अपनी प्रजनन तंत्र की परेशानियों को बिना किसी इलाज के सहन करती रहती हैं। यहाँ तक कि गर्भाशय बाहर आ जाने के बावजूद भी काम करती रहती हैं। पुरुषों को इस बात की कल्पना तक नहीं है कि महिलाओं को कितनी परेशानी होती है। अगर मालूम भी होता है तो भी नजर-अंदाज कर दिया जाता है क्योंकि वे पैसा खर्च करना नहीं चाहते। गरीब महिलाएं चुपचाप तब तक काम करती रहती हैं जब तक कि वह बिस्तर पर नहीं पड़ जातीं। समाज और सरकार महिलाओं को केवल बच्चा पैदा करने वाली मशीन समझते हैं एवं इसीलिए उनके प्रजनन तंत्र की गंभीर समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता।

जैसे-जैसे मैं महिला स्वास्थ्य का काम करती गई वैसे-वैसे चिकित्सकों की मदद से प्रजनन स्वास्थ्य की समझ बढ़ती गई। एक सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते मैं महिलाओं को इसके लिए तैयार करती थी कि वे अपनी अंदरूनी जांच करवाने के लिए सहमत हो जाएँ ताकि उनका इलाज ठीक से हो पाये। अक्सर महिलाएं कहती थीं कि वे स्वस्थ्य हैं, जबकि जांच के बाद पता चलता था कि उनके प्रजनन तंत्र में कुछ-न-कुछ समस्या है। इस काम के लिए हम समाज से संसाधन जुटाते हैं एवं इसमें बस्तियों की महिलाएं ही सर्वेक्षण से लेकर शिविरों के संचालन तक के काम में अग्रणी रहती हैं। औरतों का यह महत्वपूर्ण गुण है कि वे अपनी जरूरतों, परेशानियों को भुलाकर घर और परिवार को संभालने के लिए काम करती रहती हैं, परंतु इसका यह मतलब नहीं कि समाज और पुरुष इसका फायदा उठाते रहें और औरतों की समस्याओं की अनदेखी करते रहें।

खेती में भी पारंपरिक रूप से औरतों की अहम भूमिका थी। देसी बीजों का संरक्षण पहले औरतें ही करती थीं। सूखी कड़वी लौकी को खोखला कर उसमें बीजों को रखने का काम औरतें ही करती थीं ताकि वह खराब न हो। मेरी माँ, दीवाली के लिए जो छोटे मटके आते थे, उन्हें साफ कर उसी में बीजों को रखकर ऊपर से गोबर और मिट्टी से ढँक देती थी। यहाँ तक कि मेरी माँ सफेद कद्दू की बड़ी को भी इसी प्रकार बचाकर रखती थी। इस प्रकार बीज एवं अन्य खाद्य पदार्थ कभी खराब नहीं होते थे। अब औरतों का यह कार्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपना लिया है और उनकी भूमिका नगण्य हो गयी है, परंतु क्या हम सभी इसके लिए दोषी नहीं है? अगर हम लोग औरतों की संरक्षण एवं उत्पादन की भूमिका को नजर-अंदाज नहीं किए होते तो समाज और कृषि आज की दुर्दशा की स्थिति में नहीं होती। जिस दिन हम औरतों को तवज्जो देने लगेंगे उसी दिन देश का चित्र बादल जाएगा।

मेरे खेत में मैं हल चलाना चाहती हूँ परंतु मेरे साथ काम करने वाला आदिवासी पुरुष साथी कहता है कि औरतें अगर हल चलाएगी तो धरती पलट जाएगी। पर हम से ही तो धरती है तो वह कैसे पलट जाएगी। फिर मैंने सोचा कि गायों से हल चला सकते है क्या? तो कहा गया कि गाय स्त्री-रूपी है इसलिए उसे हल चलाने के काम में नहीं लगाया जा सकता। इस प्रकार समाज के सोच के कारण मेरे सामने हर तरह की रुकावटें आती हैं, परंतु देशी बीज और पोषण को विस्तारित करने के लिए ही मैंने खेती अपनाई है और उसपर कैसे काम करना है यह मेरा निर्णय है। किसी के कुछ कहने से मेरे इरादों पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

                देश को भोजन देने वाला किसान आज रासायनिक खेती के कारण बदहाली में जी रहा है। एक तरफ रासायनिक खाद, बीज और कीटनाशक महंगे होते जा रहे हैं और दूसरी तरफ किसानों को उनके उत्पादों के लिए सही दाम नहीं मिल रहा है। असल में सरकारें रासायनिक खाद, संकरित बीज, कीटनाशक और बड़े बांध बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को अधिक महत्व देती है, न कि किसानों की खुशहाली को। इसलिए आज भी रासायनिक खेती को ही दुनिया भर में विशाल मात्रा में अनुदान देकर फैलाया जा रहा है। यह जहरीली खेती जब तक नहीं बदलेगी तब तक किसानों को कम लागत वाली देशी खेती के गुर अपनाने नहीं दिया जाएगा। जाहिर है, ऐसे में किसान के साथ-साथ आम जनता भी जहर खाकर मरेगी। (सप्रेस)

  सुश्री सुभद्रा खापर्डे इन्दौर की सामाजिक कार्यकर्ता एवं शोधार्थी हैं। 

सप्रेस फीचर्स
सप्रेस का हमेशा प्रयास रहा है कि मीडिया में सामाजिक सरोकारों से संबंधित विषयों पर लिखी सामग्री नियमित रूप से पहुंचे तथा समाज से जुडे मुद्दों को आम जनता के बीच मुखारता से उभारा जाए और वे विमर्श का हिस्सा बन सके। ‘सप्रेस’ ने अब तब अपने पूरे कलेवर में एक तटस्थ संस्थान बनने का प्रयास किया है, जो कि रचनात्‍मक समाज, विकास संबंधी विचारों एवं समाचारों को जनमानस के सम्मुख लाने के लिए समर्पित है।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें