थोडी समझदारी और सहयोग से काम किया जाए तो खेती आज भी रोजगार का बेहतरीन जरिया बन सकती है। उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में सक्रिय स्वयंसेवी संस्था ‘परमार्थ’ ने इसी का प्रयास किया है।
सोना सहरिया एक आदिवासी महिला है जो तालबेहट ब्लाक के बम्होरा गांव में अपने छोटे स्तर की खेती-किसानी से संतोषजनक आजीविका प्राप्त कर रही है। खेत और किचन गार्डन में बहुत सी सब्जियां लगी हैं, नीबू और अमरूद के पेड़ लगे हैं, जैविक खाद तैयार हो रही है, पर यह स्थिति एक दशक पहले नहीं थी। उस समय सोना के पति इंदौर में प्रवासी मजदूर के रूप में ईंट भट्टों पर मजदूरी करते थे। उन दिनों को याद करते हुए वे बताते हैं कि किसी-किसी दिन तो पूरा दिन मेहनत कर पांच रुपए की ही आमदनी होती थी। खूब मेहनत करने के बावजूद न अपने लिए बचत कर पाते थे, न गांव में अपने घर के लिए।
जैसे ही उन्हें खबर मिली कि अब गांव में स्थिति सुधर रही है तो प्रवासी मजदूरी छोड़कर गांव वापस आ गए और नए सिरे से खेती जमाने के हिम्मत भरे प्रयास करने लगे। आज उसके परिणाम सामने आ चुके हैं – हरे खेत लहलहा रहे हैं, नींबू और अमरूद के पेड़ भी खड़े हैं। अपने लिए पर्याप्त खाद्य प्राप्त हो रहा है, कुछ बिक्री भी हो रहा है। आर्थिक स्थिति को वे संतोषजनक मान रहे हैं और भविष्य के लिए उम्मीद भी है।
सोना के खेत में सावां और कोदो जैसे मिलट या मोटे अनाज भी उगाए जा रहे हैं, ताकि इन पौष्टिक गुणों वाले, पर उपेक्षित मोटे अनाजों की वापसी हो सके। सोना ने बड़े बर्तन दिखाए जिनमें मोटे अनाजों के बीज संग्रहित किए जाएंगे व इस ‘बीज बैंक’ के माध्यम से अन्य किसान भी मोटे अनाज उगा सकेंगे।
यह बदलाव एक स्वयंसेवी संस्था ‘परमार्थ’ व प्रशासन के सहयोग से हुए जल-संरक्षण से आया है। सोना स्वयं भी इस संस्था से जुड़ी हैं। इसके साथ सोना ने गांव की सामूहिक भलाई के प्रयास जारी रखे हैं, पर दूसरी ओर पास में तेन्द्रा जैसी बस्तियां आज भी हैं जहां अधिकांश लोग प्रवासी मजदूर के रूप से बाहर गए हुए हैं।
तालबेहट ब्लाक के हनौता गांव में सहरिया आदिवासी व दलित परिवार प्रायः ऐसी स्थिति में वर्षों से रहते आए हैं जब पानी के अभाव में वे खेती नहीं कर पाते थे व प्रवासी मजदूर के रूप में इंदौर, दिल्ली, पंजाब आदि में भटकते रहते थे। ईंट भट्टों पर या जहां भी काम मिले, बहुत कम मजदूरी पर कार्य करने को मजबूर थे, पर अब इस मजबूरी पर रोक लगी है। रबी की फसल तो कई किसानों ने पहली बार ली है। हनौता में यह सार्थक बदलाव इस कारण आ सका, क्योंकि ‘परमार्थ’ संस्था ने यहां से आठ किलोमीटर दूर बेतवा नदी से एक भूमिगत पाईप लाइन द्वारा इस गांव के अनेक परिवारों को सिंचाई उपलब्ध करवाई।
शांति सहरिया के खेत में मूली, मटर, टमाटर, बहुत सी सब्जियां लगी हैं, अमरूद व नींबू के पेड़ भी हैं। अब शांति के परिवार को प्रवासी मजदूरी के लिए भटकना नहीं पड़ता। बबलू अहिरवार का केवल एक हाथ है, दूसरा हाथ दुर्घटना में क्षतिग्रस्त हो गया था। उसके लिए तो यह और भी महत्वपूर्ण है कि गांव में उसकी खेती जम गई है व उसे प्रवासी मजदूरी के लिए नहीं जाना पड़ता।
ग्राम बंडा (बबीना प्रखंड, जिला झांसी) के किसान हीरालाल इन दिनों बहुत प्रसन्न हैं। वजह स्पष्ट है कि विविधता भरी बहुत सी फसलें, विशेषकर बागवानी की फसलें उन्होंने प्राप्त की हैं व उत्पादकता भी बढ़ी है। बैंगन, करेला, तुरई, लौकी, कद्दू, मिर्ची, भिंडी, लोभिया, मटर, आलू के बीच उन्होंने कुछ फूल भी उगाए हैं। उनके पड़ौसी किसान अजय भी ऐसे ही प्रसन्न हैं। वे बताते हैं कि अधिक नहीं तो उत्पादन कम-से-कम डेढ़ गुना तो बढ़ ही गया है।
वे व बंडा गांव के सात-आठ अन्य किसान अपनी उपलब्धि के लिए ड्रिप और स्प्रिंकलर खेती को श्रेय देते हैं। हीरालाल बताते हैं कि इससे पानी की बहुत बचत होती है तथा साथ में मिट्टी पर भी अनुकूल असर पड़ता है। मिट्टी व पानी का संरक्षण हो जाए व साथ में उत्पादकता बढ़ जाए तो लगता है कि सब कुछ अनुकूल ही हो रहा है।
यह सही है, पर इसमें एक पेंच भी है। इस खेती के लिए जो यंत्र, पाईप आदि चाहिए उनका खर्च अधिक है व प्रति एकड़ खेत लगभग एक लाख रुपए का निवेश मांग रहा है। हीरालाल व अजय के लिए यह इस कारण संभव हुआ क्योंकि उन्हें केन्द्र व राज्य सरकार से मिली-जुली 90 प्रतिशत तक की सबसिडी प्राप्त हुई। इस सबसिडी के कारण पांच एकड़ पर ड्रिप सिंचाई अपनाने पर हीरालाल को मात्र 25000 रुपए का खर्च ही करना पड़ा।
इन किसानों ने स्पष्ट बताया कि सबसिडी न मिलने पर वे इस तकनीक को नहीं अपना सकते थे। जिस समय उन्होंने यह तकनीक अपनाई थी, उस आरंभिक दौर में यह सबसिडी प्राप्त करना अपेक्षाकृत सरल भी था। तिस पर इस क्षेत्र में कृषि व संबंधित आजीविकाओं में सहायता पहुंचा रही स्वैच्छिक संस्था ‘परमार्थ’ ने भी सबसिडी और विभिन्न फसलों के बीज प्राप्त करने में भरपूर सहायता दी थी। इन दो कारणों से हीरालाल व अजय के लिए यह सफलता प्राप्त करना अपेक्षाकृत आसान था। इस आरंभिक सफलता को देखते हुए जब इस सबसिडी की मांग तेजी से बढ़ने लगी, तो इसके नियम-कायदे अधिक सख्त बना दिए गए। अन्य किसानों के साथ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी बताया कि अब यह सबसिडी प्राप्त करना अधिक कठिन हो गया है। (सप्रेस)
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