राजेन्द्र सिंह

आधुनिक तकनीक और प्रबंधन के संग-साथ से पनप रही आज की खेती जहां एक तरफ, उत्पादन में वे अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रही है, जिनके नाम पर इसे बढाया, फैलाया जाता रहा है और दूसरी तरफ, उसके चलते खेती के पारंपरिक ताने-बाने भी चरमरा रहे हैं। क्या हो रहे हैं, आधुनिक कही जाने वाली कृषि-तकनीकों के असर? कैसे इसे बदला जा सकता है?

खेती में अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण हमारी प्रबंधकीय शिक्षा की प्रमुख देन है। सभी प्रबंधकों को बाकायदा वही पढ़ाया जाता है। उनमें स्वयं के बुद्धि कौशल से प्रकृति और मानवता से संबंधित संसाधनों पर नियंत्रण करने वाली क्षमता विकसित की जाती है। विकसित बुद्धि वही कहलाती है जो मानवीय संसाधन, प्रबंधन और शक्ति को बढ़ाकर उस पर नियंत्रण करती है। प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधक, प्राकृतिक संसाधनों पर अतिक्रमण में कौशल को जोड़कर अतिक्रमण प्रक्रिया बना देते हैं। यही प्रक्रिया हिंसक शक्ति से शुरू होती है। इसलिए खेती में हिंसा और लूट-खसोट साथ-साथ ही रहती है।

नदियों की आजादी और उनके उपयोग के हक की चिंता किसी को नहीं रहती। बस शक्तिशाली लोग ही किसान, मछुआरे आदि सभी का शोषण करते हैं। सदुपयोग व पोषण मिट जाता है, उसकी जगह पर अतिशोषण का भाव आ जाता है। शोषण का यह भाव हमारे अंदर प्रौद्योगिकी एवं अभियांत्रिकी द्वारा निर्मित मशीनें करती हैं। अतः कहा जा सकता है कि गणनाओं द्वारा होने वाली शोध, हमारी सामुदायिक जरूरतों से दूर, भावना-संवेदना रहित स्वार्थ की पूर्ति करती है। स्वार्थ का यह लाभ भी सबका नहीं, एकमात्र कर्त्ता का होता है।

ये गणनाएँ हिंसक शक्ति सृजन का विज्ञान निर्माण करती हैं। इस विज्ञान में प्रकृति और मानवता के साझा हित का विचार नहीं होता। इसलिए आज भौतिक, रसायन एवं सभी तरह का विज्ञान युद्ध अस्त्रों की तरफ जा रहा है। कभी-कभी संचार और व्यापार के लिए रेल, मोबाईल, चिकित्सा आदि सर्व-हित के कुछ काम निकल आते हैं, लेकिन ये भी किसी के लिए केवल लाभ का व्यापार बनकर ही उभरते हैं। धर्मार्थ-काम, मोक्ष, आयुर्वेद, आरोग्य-रक्षणम् अब नहीं है। चिकित्सा भी लोभ-लालच की पूर्ति का व्यापार बन गयी है।

भागीरथी, गंगा की तरह सभी की खेती, जीवन, जीविका और जमीर के साथ आस्था व भक्ति-भाव की मिसाल बनाने का काम आज की प्रौद्योगिकी, अभियांत्रिकी और विज्ञान नहीं कर रहा है। यह काम तो ऊर्जा-सृजन से होता है जो गंगाजल में विलक्षण प्रदूषण-नाशनी ऊर्जा पैदा करके, गंगाजल को ब्रह्म-सत्व बनाती थी। इसी ब्रह्म-सत्व ने गंगाजल को गंगामृत बनाया था। यह गंगाजल का विज्ञान समझने और समझाने वाले ऋषि आज बहुत कम है।

ऋषि संवेदनाओं व आत्मशोधन से सत्य को खोजता था। विज्ञान और वैज्ञानिक प्रक्रिया मनुष्य के अंदर ऋषित्व पैदा करके सत्य खोजती थी। वही आध्यात्मिक विज्ञान कहलाता था। ऐसे वैज्ञानिक अपनी खोज को साकार करने हेतु अपने शरीर का त्याग भी कर देते हैं; जैसे -प्रो. जीडी अग्रवाल जिन्हें हम ‘ऋषि सानंद’ के नाम से जानने लगे हैं। वे अपनी मां गंगा हेतु प्राणों का बलिदान कर चुके हैं।

व्यवहार-संस्कार से जीवन की जरूरत पूरी करने वाला आध्यात्मिक विज्ञान ही अहिंसक विकास के रास्ते पर मानवता और प्रकृति को बराबरी से आगे बढ़ाकर ‘अक्षय’ ‘सनातन विकास’ के रास्ते पर चलाता है। भारतीय इस पुनर्जनन प्रक्रिया को ही विकास कहते थे। इस सत्य को केवल संवेदनशील वैज्ञानिक ही जानते व समझते हैं। वही इस विज्ञान के विषय में बिना डरे बोलते हैं।

खेती में संवेदनशील विज्ञान ही हमें आज भी आगे बढ़ा सकता है। इसी रास्ते से खेती प्रधान भारत के किसान पूरी दुनिया को कुछ नया सिखा सकते हैं। यही आधुनिक दुनिया के प्राकृतिक संकटों का, जलवायु परिवर्तन के संकट के अनुकूलन व उन्मूलन का समाधान करने वाला विज्ञान, अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी साकार सिद्ध हो सकते हैं।सालों-साल खेती को कंपनियों के अतिक्रमण, प्रदूषण व शोषण से बचाने हेतु किसान आंदोलन चला है। उसे भी सरकार ने कम्पनियों का हित साधने हेतु असफल कर दिया है। अब स्वावलंबी ऋषि खेती ही भारत को शोषण, प्रदूषण और अतिक्रमण मुक्त बना सकती है। (सप्रेस)

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