बाजार और उसके लिए विपुल उत्पादन के हल्ले में हमारी खेती धीरे-धीरे अपनी उत्पादकता और गुणवत्ता खोती जा रही है। अब ना तो रासायनिक खाद, दवाओं, कीटनाशकों के दुष्प्रभावों से मुक्त फसलें बची हैं और ना ही उसे पैदा करने वाली मिट्टी। भांति-भांति की असाध्य बीमारियों के रूप में हमें इसके नतीजे भी दिखाई देने शुरु हो गए हैं।
प्रायः सभी देशों की खनिज संपदा को उसकी प्रमुख संपत्ति के रूप में प्रचारित किया जाता है। जिस देश में अधिक सोना, चांदी, हीरे मिलें उसे सबसे समृद्ध मानते हैं। आधुनिक समय में जहां तेल व गैस और ‘रेयर अर्थ’ वाले दुर्लभ खनिज मिलें तो उन्हें सोना माना जाता है। पर यदि किसी देश की सबसे बड़ी वास्तविक संपदा की पहचान करनी है, तो यह उसकी उपजाऊ मिट्टी है। उपजाऊ मिट्टी बनी रहेगी, तो टिकाऊ खाद्य सुरक्षा भी बनी रहेगी।
हाल में वैज्ञानिकों ने बताया है कि मिट्टी की उत्पादकता टिकाऊ बनाए रखने के कृषि के जो तौर-तरीके हैं, वे ही ग्रीनहाऊस गैसों को कम रखने व इस तरह जलवायु बदलाव के संकट को कम करने में भी बेहद सहायक हैं। इस तरह मिट्टी की उत्पादकता बनाए रखने वाली कृषि का महत्व और बढ़ गया है।
चूंकि मिट्टी हमारे चारों ओर प्रचुर मात्रा में बिखरी हुई है अतः हमें इसकी कोई चिन्ता नहीं होती। हम यह भूल जाते हैं कि इसकी गुणवत्ता में जो कमी आ रही है, वह नजर नहीं आती पर उससे हमारी अर्थव्यवस्था, करोड़ों लोगों की आजीविका व खाद्य उपलब्धि सब गंभीर रूप से प्रभावित होते हैं। मिट्टी का अपना जीवन है, उसमें असंख्य सूक्ष्म जीवाणुओं का निवास है, जल-ग्रहण करने और वायु के संचार की व्यवस्था है और अनेक तरह के पोषक तत्वों के जरिए पेड़-पौधों को संतुलित रूप में देने की क्षमता है। जब यह पूरी व्यवस्था टूटती है तो भूमि की उर्वरता नष्ट होती है। बाहर से तो वही मिट्टी नजर आती है पर उसकी जीवनदायिनी क्षमता बहुत कम हो जाती है।
जो चीज बहुमूल्य होती है, उसके संरक्षण और रखरखाव पर ध्यान देने की जरूरत भी उतनी ही ज्यादा होती है। हमारी वर्षा व जलवायु की स्थिति ऐसी है कि मिट्टी के कटाव की संभावना अधिक है। पिछली लगभग दो शताब्दियों में वनों का विनाश व कटान बहुत बड़े पैमाने पर हुआ है। साथ ही औपनिवेशिक शासन द्वारा लाई गई विकृतियों से जलसंग्रह व संरक्षण की परंपरागत व्यवस्थाओं को बहुत धक्का पहुंचा है। इन दोनों वजहों से मिट्टी के उपजाऊपन को बहुत क्षति पहुंची है। पिछले पांच-छः दशकों में एक अन्य बड़ी गलती हमने यह की है कि मिट्टी का उपजाऊपन बनाए रखने के अनुकूल खेती के जो तौर-तरीके बहुत समय से चल रहे थे, उन्हें छोड़कर औद्योगिक रसायनों के भारी उपयोग की ऐसी तकनीकें अपनाई हैं, जो मिट्टी के उपजाऊपन के लिए और हानिकारक सिद्ध हुई।
फसलों को जिन विभिन्न पोषक तत्वों की, कुछ की अधिक और कुछ की सूक्ष्म मात्रा में जरूरत होती है, उन्हें उपलब्ध करवाने के लिए प्रकृति की अपनी व्यवस्था है। हमारे पूर्वज किसान आधुनिक वैज्ञानिक शब्दावली के ये नाम तो नहीं जानते थे कि इतना नाइट्रोजन चाहिए, इतना फासफोरस या इतने सूक्ष्म तत्व, पर अपने कई पीढ़ियों के संचित अनुभव से उन्होंने यह सीख लिया था कि इन पोषक तत्वों को संतुलित मात्रा में उपलब्ध करवाने के लिए कौन से उपाय जरूरी हैं। मसलन-दलहनी फसलों में वायुमंडल से नाइट्रोजन निशुल्क प्राप्त करने की अद्भुत क्षमता है तो किसान फसल-चक्र या मिश्रित खेती में इन फसलों पर समुचित ध्यान देते रहे हैं। अलग-अलग गहराई की जड़ें मिट्टी की विभिन्न तहों से पोषण प्राप्त करती हैं, ताकि एक ही तरह का अधिक दोहन न हो। मिश्रित खेती की फसल चुनने या फसल चक्र को चुनने में इस बात का ध्यान रखा जाता था। इससे फायदा यह हुआ कि एक फसल ने नाइट्रोजन प्राप्त की तो दूसरी ने नाइट्रोजन उपलब्ध करवा दी। इस तरह लगभग चार हजार वर्षों से देश में खेती होती रही व इन फसलों का पोषण करने की मिट्टी की क्षमता भी बनी रही।
दूसरी बात हमारे किसानों ने यह सीख ली थी कि पशुओं के गोबर, फसलों के अवशेष, पत्तियों आदि का भरपूर उपयोग मिट्टी की उत्पादकता को बनाए रखने के लिए किया जाए। यहाँ तक कि अपने पशुओं का गोबर कम पड़ता था तो अनेक स्थानों पर घुमंतु पशुपालकों को बड़े मान-सम्मान के साथ निमंत्रण दिया जाता था कि वे फसल कटने के बाद खाली पड़े खेतों पर पशुओं को रहने दें ताकि उनके मल-मूत्र से भूमि को अनेक पोषक तत्व मिल सकें। इन गुत्थियों को वैज्ञानिक आज तक सुलझा रहे हैं कि विभिन्न तरह के इन अपशिष्ट पदार्थों के मिट्टी में मिल जाने से किन प्रक्रियाओं से ऐसे विभिन्न पोषक तत्व बनते हैं जो पौधों के लिए जरूरी है? हमारे किसानों ने इनके महत्व को अपने अनुभव के आधार पर बखूबी समझ लिया था और इनका उचित उपयोग किया था। इससे एक ओर तो प्रदूषण व गंदगी की समस्या से हमारे गांवों को राहत मिली व दूसरी ओर मिट्टी की उत्पादकता बनी रही।
पिछले पांच-छः दशकों में जिस रसायन आधारित खेती की तकनीक का बहुत जोर-शोर से प्रचार किया गया, वह प्रकृति की पोषक तत्वों को उपलब्ध करवाने वाली व्यवस्था को बहुत अस्त-व्यस्त करती है। उदाहरण के लिए मिट्टी की जल-धारण क्षमता बढ़ाने, वायु संचार के लिए इसे भुरभुरा बनाने व उसे अनेक पोषक तत्व उपलब्ध करवाने का बहुमूल्य कार्य केंचुए करते हैं, वे इन रसायनों के असर से बड़े पैमाने पर मर जाते हैं। इसी तरह अनेक अन्य उपयोगी जीवाणु व वनस्पतियां जो अनेक जटिल प्रक्रियाओं से मिट्टी का उपजाऊपन बनाए रखने में बहुत सहायता करते हैं, नष्ट हो जाते हैं। इनमें नाइट्रोजन की व्यवस्था करने वाले जीवाणु भी हैं। किसान के मित्र अनेक कीटों व जीवों, जैसे-मधुमक्खी, तितली व मेंढक आदि पर इन रसायनों का प्रतिकूल असर पड़ा है। रसायनों के अधिक उपयोग से आसपास के जलस्रोतों व भूजल प्रदूषण की गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई है व मिट्टी के कटाव की समस्या, जो पहले ही गंभीर है, और बढ़ी है। रासायनिक खाद के उपयोग से मिट्टी की अम्लीयता भी बढ़ती है।
ऐसी बदहाल परिस्थिति को सुधारने के लिए कृषि अनुसंधान के प्रति हमारा एक अलग नजरिया होना चाहिए। यानि हम प्रकृति की प्रक्रियाओं को ही बहुत अच्छी तरह से जानने-समझने का प्रयास करें ताकि पता चले कि किस तरह प्रकृति मिट्टी की उत्पादकता बनाती-बढाती है और पौधों को विभिन्न पोषण तत्व उपलब्ध करवाती है। इस प्रक्रिया की अपनी समझ बनाने के बाद हम अपनी खेती को प्रकृति की इस प्रक्रिया से जोड़कर ही चलें और उसमें व्यवधान डालने वाला कोई कार्य न करें। वास्तविक वैज्ञानिक प्रक्रिया तो यही है जो किसानों की दृष्टि से सबसे सस्ती व टिकाऊ सिद्ध होगी। इस विधि में विभिन्न जीवाणु, केंचुए, वनस्पतियाँ, मधुमक्खियां, मेंढ़क आदि जीव-जन्तु अपने आप मिट्टी के उपजाऊपन को बढ़ाने और कीड़ों से रक्षा करने का कार्य करेंगे।
रसायनों से की जाने वाली खेती में एक समस्या ठीक की जाती है तो कोई दूसरी समस्या उत्पन्न हो जाती है। कभी एक पोषक तत्व की कमी होती है तो कभी उसी की अधिकता हो जाती है और कभी विभिन्न पोषक तत्वों में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। कभी किसी सूक्ष्म पोषक तत्व की कमी हो जाती है तो कभी दूसरे की। अलग-अलग सूक्ष्म तत्वों के लिए अलग-अलग कृत्रिम खाद डालने के लिए किसान को कहा जाता है। सब जानते हैं कि मिट्टी में अनेक सूक्ष्म पोषक तत्व हैं और बारी-बारी से उन्हें कृत्रिम रसायनों की मार्फत देना आखिर किसान पर कितना आर्थिक बोझ डालते हैं? इसे सहने की किसान की सीमित क्षमता है।
सबसे उचित यही रहेगा कि प्रकृति द्वारा संतुलित पोषक तत्व उपलब्ध करवाने की जो व्यवस्था है, उसी को अच्छी तरह समझा जाए व उसके अनुकूल कृषि कार्य किए जाएं। यदि कृषि अनुसंधान को इस रूप में विकसित किया जाए, तो हमारे देश का हर किसान इसमें भागीदार बन सकेगा और उत्पादक मिट्टी भी बची रहेगी।(सप्रेस)