मौजूदा देश-व्यापी किसान आंदोलन में ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य‘ उर्फ ‘एमएसपी’ को कानूनी बनाने की खास मांग की जा रही है। कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले किसान आयोग ने भी लागत के डेढ-गुने ‘एमएसपी’ की अनुशंसा की है, लेकिन सवाल है कि क्या इससे किसानों और उनकी फसल पर जिन्दा रहने वाले उपभोक्ताओं के संकट मिट जाएंगे? खासकर तब, जब खेती से ही जुडी ‘शांताकुमार समिति’ की रपट में कुल जमा छह प्रतिशत किसानों को मंडी में बेचने यानि ‘एमएसपी’ का लाभार्थी बताया गया है?
इन दिनों देशभर के किसान संगठनों में खलबली मची है। नए कृषि कानूनों में कहीं नहीं लिखा है कि ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ यानी ‘एमएसपी’ को हटाया जा रहा है। सरकार भी बार-बार कह रही है कि ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) लागू रहेगा, पर विरोध नहीं थम रहा, बल्कि और अधिक तीखा हो रहा है। किसानों का कहना है कि सरकार अपने वायदे से मुकर रही है। ‘भारतीय खाद्य निगम’ (एफसीआई) ही ‘एमएसपी’ के भाव देता है। ऐसे में किसानों के मन में वाजिब डर है कि नए कानून से ‘एमएसपी’ को बदलने की तैयारी चल रही है।
‘एमएसपी’ को बदलने की बात कई वर्षों से जारी है। सन् 2015 में हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे शान्ता कुमार की अध्यक्षता में एक समिति की रपट आई थी। सरकार ने इसे स्वीकार भी किया था, लेकिन उस पर अपनी राय का खुलासा कभी नहीं किया। इस रपट में कहा गया है कि एक तो राज्य सरकारें अपनी ज़रूरत के अनुसार किसानों से अनाज खरीदें और दूसरे, ‘एफसीआई’ किसानों से केवल अतिरिक्त अनाज ही खरीदे।
‘एमएसपी’ के प्रादर्श में कल्पना की गई थी कि देश के सभी किसान, सभी जगह, चाहे सरकारी या पारम्परिक मण्डियों में, अपनी फसल के लिए ‘एमएसपी’ प्राप्त करेंगे। इन मण्डियों में बोली ‘एमएसपी’ के नीचे नहीं होगी। पचास वर्ष बाद हमारे देश की स्थिति इसके बिलकुल विपरीत है। ‘एमएसपी’ केवल वहीं प्राप्त किया जाता है जहाँ सरकारी व्यवस्था, ‘एफसीआई’ खरीदने के लिए मण्डियों में आती है। इसके अलावा शक्कर के लिए एक घोषित सरकारी भाव है जिसके अनुसार कारखानों को खरीदना होता है और कपास, जहां ‘भारतीय कपास निगम लिमिटेड’ खरीदती है वहाँ सरकारी भाव प्राप्त होता है।
‘एमएसपी’ सरकारी खरीदी के साथ चलती है, अन्यथा आमतौर पर यह किसानों को नहीं मिलती। ‘एमएसपी’ की घोषणा वर्तमान में 23 फसलों के लिए की जाती है, परंतु मुख्यरूप से यह गेहूँ और धान के लिए ही मिलती है। इस बात से भी अंदाज़ लगा सकते हैं कि ‘एफसीआई’ के पास स्टॉक लगभग 95 प्रतिशत गेहूँ और चावल का है। हाल ही में दलहन और तिलहन के लिए प्रयास किए गए हैं, पर यह बहुत कम है। दूसरी बात कि ‘एमएसपी’ का फायदा केवल ऐसे कुछ राज्यों को ही प्राप्त होता है, जहाँ मण्डियाँ मज़बूत हैं और जहां ‘एफसीआई’ ने खरीदने की व्यवस्था बनायी है। अर्थात दो-चार फसलों और कुछ राज्यों के किसानों के लिए ‘एमएसपी’ का लाभ बहुत सीमित रूप से मिलता है।
अखबार की खबर के मुताबिक जब पंजाब में किसानों को धान के लिए ‘एमएसपी’ 1868 रुपए प्रति क्विंटल प्राप्त हो रहा था, तो उसी समय बिहार के गाँव में धान का भाव 1100 रुपये था। यानी 768 रुपयों का फर्क था। बिहार में सरकारी मण्डियाँ 2006 में बंद कर दी गयीं थीं। वहां अनाज का व्यापार पूरी तरह निजी हाथों में है। पंजाब में भी जब सरकारी खरीदी नहीं हो रही हो तो निजी व्यापार के चलते मण्डियों में भाव 1600 से 1700 तक रहता है। बिहार की तुलना में पंजाब में निजी व्यापार मज़बूत है। भाव ‘एमएसपी’ से कम हैं, पर उस हद तक नहीं।
तो क्या इस ‘एमएसपी’ की व्यवस्था और उसके साथ सरकारी खरीदी को समाप्त कर दें या फिर सभी फसलों और इलाकों को इसका लाभ पहुँचाया जाएॽ ‘शान्ता कुमार समिति’ की रपट के अनुसार ‘एफसीआई’ का कारोबार इतना बोझिल हो गया है कि वह कभी-न-कभी बैठ जाएगा। कई वर्षों से ‘एफसीआई’ का बफर स्टॉक, जो कि 300 से 400 लाख टन होना चाहिए, 800 से 900 लाख टन रहता है। यानी 2 से 3 गुना ज़्यादा। सरकार अपने वायदे के अनुसार ‘एमएसपी’ के भाव पर खरीदने के लिए प्रतिबद्ध है। इस रपट में कहा गया है कि वर्ष 2013-14 में ‘एफसीआई’ पर कुल सब्सिडी 93,445 करोड़ रूपए थी। उससे बड़ी परेशानी यह है कि गोदामों में भरा हुआ खाद्यान्न अतिरिक्त स्टॉक है, पर लोगों तक नहीं पहुँच रहा है। घाटा कम करने और नए स्टॉक की जगह बनाने के लिए केन्द्र सरकार मौका ढूँढकर अनाज़ निर्यात करने का सोचती है।
एक सवाल जो पूछा जा रहा है कि हमारे पास इतना अनाज होते हुए भी देश में इस हद तक कुपोषण क्यों है? अनाज है, पर लोग भूखे हैं। यह विडम्बना ही नहीं, शर्म की बात है। ‘नेशनल हेल्थ फॅमिली सर्वे – 2015-16’ के अनुसार देश में 23 प्रतिशत महिलाओं का ‘बॉडी-मॉस इन्डेक्स’ (बीएमआई, यानि लंबाई और वजन का अनुपात) 18.5 से कम है। उसी प्रकार 15 से 49 वर्ष के पुरुषों का ‘बीएमआई’ 20 है।
ये आंकडे क्या दर्शाते हैंॽ हमारे देश में दो प्रकार की भुखमरी है। एक जो स्पष्ट दिखती है, जैसे कई कुपोषित बच्चों में। दूसरी छिपी हुई भूख, जिसमें लोगों को लंबे समय तक कम भोजन प्राप्त होता है। लोग दुबले-पतले दिखते हैं और हम उन्हें सामान्य मान लेते हैं। बहुत से लोग हमारे आसपास ऐसे ही दिखते हैं। पोषण के सर्वे से हमें इस परिस्थिति का असली चेहरा पता चलता है। लगभग हर पांचवें व्यक्ति को जीने लायक भोजन नहीं मिल रहा है। ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ के अनुसार भारत 102 देशों में 94 पाएदान पर है – नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान के पीछे। यदि हम डाक्टरों के अनुभवों पर जाएँ तो वे भी बताते हैं कि लोगों का बार-बार बीमार पड़ना, थकान महसूस करना और नवजात शिशुओं का कम वज़न आदि इसके लक्षण हैं।
क्या पर्याप्त अनाज और छिपी हुई भूख के विरोधाभास का हमारे पास कोई निदान हैॽ अनाज को वितरित करने का हमारा साधन ‘उचित मूल्य की दुकानें’ हैं। छत्तीसगढ एक ऐसे राज्य का उदाहरण है जहाँ राशन की दुकानों की खराब स्थिति को सुधारा गया और सभी परिवारों को हर माह 35 किलो चावल उपलब्ध कराया गया। उधर, ‘शान्ता कुमार रपट’ यह कहती है कि राज्यों को वितरित किया गया 46 प्रतिशत अनाज लोगों के पास नहीं पहुँचता। इसमें सुधार लाना ज़रूरी है, पर नामुमकिन नहीं। चूंकि अनाज की यह हेरा-फेरी या अवैध धंधा राजनीतिक संरक्षण के बिना नहीं चल सकता इसलिए इसे राजनीतिक चेतना से ही सुधारा जा सकता है। यदि ऐसा हो और ‘एफसीआई’ का अतिरिक्त स्टॉक लोगों तक पहुँचे तो वह सफेद हाथी न होकर एक नए मील का पत्थर बन सकता है। अन्यथा सरकारी अमला यही सुझाव रख रहा है कि राशन की दुकानें नहीं चलाएं, लोगों को कैश वाउचर दें और वे बाज़ार से अनाज खरीदें।
इसका एक दूरगामी परिदृश्य भी है। दालें, तिलहन और सबसे पौष्टिक माने जाने वाले अनाज ज्वार, बाजरा, रागी आदि सरकार द्वारा खरीदे जाएं। इन्हें राशन की दुकानों द्वारा वितरित किया जाए और मध्यान्ह भोजन के लिए उपयोग किया जाए। इन फसलों की खरीदी बढ़ाकर गेहूँ-धान की खरीदी चरणबद्ध तरीके से कम की जाए। इससे दो महत्वपूर्ण दिशाएँ खुल जाएँगी। किसान फसलों में परिवर्तन करने के लिए प्रेरित होंगे, क्योंकि खरीदी सरकार द्वारा की जाएगी। हमारी मौजूदा एक-फसली पद्धती में सेंध लग सकेगी। मिश्रित खेती से हमारे पानी और मिट्टी का दोहन कम हो पाएगा।
‘एफसीआई’ को ऐसा करने के लिए अलग-अलग राज्यों में प्रवेश करना होगा। यह संभव हो सकता है जब राज्य सरकारें अपने यहां सरकारी मण्डियों का निर्माण करें। यदि ऐसी योजना एक दशक तक चलायी गई तो लोगों के खान-पान और फसलों में परिवर्तन होगा। इस प्रकार का बदलाव निजी व्यापार से कभी नहीं आने वाला। यह सरकार ही कर सकती है। यह समझना ज़रूरी है कि हमारी खेती, मिश्रित स्वरूप को छोड़कर, गेहूँ-धान के आसपास घूम रही है और यही समस्या की मूल जड है।
निदान कई हो सकते हैं। ज़रूरी नहीं कि ‘शांता कुमार समिति’ की रपट के सुझाव ही स्वीकार करें। निदान खोजना अलग आयाम हैं। डर इस बात का है कि किसान संगठनों और राज्य सरकारों से बिना बातचीत और सार्वजनिक बहस किए, निदान के रास्ते थोपे जा रहे हैं। ज़रूरी है कि ‘एमएसपी’ को जारी रखते हुए इसे मोटे अनाज, दलहन और तिलहन की तरफ मोड़ें। सभी राज्यों को लाभ मिले और पोषण के लिए खाद्य सुरक्षा के कदम उठाए जाएँ। (सप्रेस)
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