कैंसर सरीखी बीमारियों के व्यापक फैलाव के चलते, हमारे रोजमर्रा के भोजन में मौजूद जहर अब कोई अनजानी बात नहीं रह गई है। सवाल है, इससे कैसे निपटा जाए? एक तरीका बरसों आजमाई गई पुरानी, पारंपरिक फसलों को पुनर्जीवित करने का भी है। प्रस्तुत है, ज्वार को ‘वापस लाने’ की मार्फत खेती को सुधारने पर यह लेख।
आज से लगभग 40 वर्ष पहले, मालवा में गेहूँ का चलन बहुत कम था। मेहमानों और कोई खास पर्व के लिए गेहूँ को रखा जाता था। पैदावार भी कम होती थी। बारिश के मौसम में बहुत गहरी काली मिट्टी वाले जिन खेतों में बारिश का पानी भरा रहता था, उनमें बारिश के बाद नमी रहती थी, उन्हीं खेतों में गेहूं की फसल उगाई जाती थीं। साथ ही जिनके पास सिचाँई की व्यवस्था थी वे गेहूँ की खेती करते।
पिछले 40—50 वर्षों में खेती के मामले में तीन बड़े परिवर्तन हुए हैं। एक, बिजली की सुविधा गाँव-गाँव फैल गई। दूसरा, नलकूप का प्रचलन बढ़ा, जिसके सहारे दो फसल लेना संभव हुआ। किसानों ने बहुत तेज़ रफ्तार से नलकूप लगाए और ज़मीन से पानी का दोहन किया। सरकार ने बैंक द्वारा और अपनी योजनाओं द्वारा इसे प्रोत्साहन दिया। तीसरा, सरकार द्वारा सोयाबीन योजना लाई गई।
इसके चलते खरीफ की फसलें जैसे कि ज्वार, मक्का, तुअर, मूंग, उड़द आदि में परिवर्तन आया। सभी जगह सोयाबीन की खेती होने लगी। दो दशकों में यह फसल-चक्र बदल गया। खरीफ में सोयाबीन और उसके बाद गेहूँ-चना की उपज होने लगी। अधिकांश ज़मीन में दो फसलें होने लगी हैं। आज जितनी ज़मीन बारिश (खरीफ) में जोती जाती है, उसका 55 प्रतिशत रक़बा रबी में नलकूप से सींचा जाता है।
म.प्र. में सोयाबीन एवं ज्वार की खेती में बदलाव (आंकड़े हजार हैक्टेयर में ) | |||
फसल | वर्ष | ||
1980-81 | 1989-90 | 2016-17 | |
ज्वार का रकबा | 2331 | 1721 | 193 |
सोयाबीन का रकबा | 239 | 1942 | 6035 |
स्रोत:पी.एस.विजयशंकर, मध्य प्रदेश का फसल चक्र (छत्तीसगढ़ के आंकड़ों को अलग करके तुलना की गई है) |
सोयाबीन के दो प्रमुख उपयोग हैं – एक उसका तेल और दूसरा, उसकी खली। सोयाबीन के कारखानों के लिए खली का निर्यात मुनाफे का मुख्य स्रोत है। इसका भाव अंतराष्ट्रीय बाज़ार में इस बात से तय होता है कि अन्य देशों में उत्पादन कैसा हो रहा है? पिछले सात वर्ष से खली का भाव काफी कम रहा है और इसका असर हमारे सोयाबीन के भाव पर भी पड़ा है।
आर्जेन्टीना और ब्राजील में उत्पादन बहुत हो रहा है और आगे के वर्षों में खली का भाव इस पर निर्भर रहने वाला है। इसके साथ वर्षा में परिवर्तन पिछले कुछ समय से सोयाबीन की फसल को बार-बार बर्बाद कर रहा है। यह उचित समय है कि हम ज्वार की वापसी के लिए योजना बनाएँ। ज्वार यहाँ के खान-पान का महत्त्वपूर्ण हिस्सा था और अधिक पौष्टिक भी है। इसे आसानी से अपनाया जा सकता है क्योंकि वह पीढ़ी अभी भी है जिन्होंने अपने बचपन में इसका भरपूर उपयोग किया है।
यदि हम यह लक्ष्य रखते हैं कि किसान 30 प्रतिशत क्षेत्र में सोयाबीन को छोड़कर ज्वार की बोनी शुरू करें, तो उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए सरकार को ठोस कदम उठाने होंगे। पहली बात तो यह कि किसी भी क्षेत्र में दो-चार किसान ज्वार की खेती करें तो यह संभव नहीं है। चिड़ियों का प्रकोप इसे टिकने नहीं देगा। कई गाँवों के बीच किसानों को एक साथ इसे एक मुहीम की तरह लेना होगा। ज्वार के बाद दूसरी फसल लेने की व्यवस्था करने हेतु पौधों के ठूंठ को काटना ज़रूरी है। इसका खाद बनाने में उपयोग हो ताकि जलाने की नौबत न आए।
सबसे ज़रूरी कदम होगा, सरकार ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) पर ज्वार खरीदने के लिए व्यवस्थाएं बनाए और उसे स्थानीय सोसायटी द्वारा खरीदा जाए। इन सोसायटीज् की मार्फत स्कू्ल, राशन दुकान और आँगनवाड़ी के लिए ज्वार उपलब्ध करवाई जाए। ज्वार और सोयाबीन की खेती को आर्थिक रूप से समान रखने के लिए मध्यप्रदेश सरकार को ‘एमएसपी’ के ऊपर कुछ बोनस का विचार करना चाहिए। ज्वार की मांग को बढ़ावा देना ज़रूरी है, ताकि सरकारी खरीद के साथ इसका निजी बाज़ार भी बढे।
इस मुहीम का लक्ष्य होना चाहिए, सुरक्षित ज्वार, यानी-हानिकारक रसायन एवं कीटनाशक रहित ज्वा। इसे प्राकृतिकया जैविक कृषि पद्धति से पैदा किया जाए। किसान अपने खान-पान और बाजार के लिए न केवल पौष्टिक आहार दे पाएँ, बल्कि वह सुरक्षित भी हो। ऐसा करने के लिए सरकार द्वारा नए स्वरूप के ‘कृषि सहायता केन्द्रों’ को स्थापित करना होगा। बीज की उपलब्धता के लिए किसानों द्वारा फैलाव व संरक्षण की अग्रिम तैयारी करनी होगी। इसी प्रकार देशी खाद की उपलब्धता और उसके उपयोग करने के तरीकों पर प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी।
ये सब किसानों के अग्रिम समूहों को बनाकर किया जा सकता है। यहाँ विज्ञान के एग्रो-इकॉलॉजी और किसानों के पारम्परिक ज्ञान का मेल होगा। इस तैयारी के साथ कदम रखने की ज़रूरत है क्योंकि यह केवल ज्वार की बात नहीं है ,बल्कि हमारी कृषि और आहार को नया मोड़ देने की बात है। यह अपने आहार को सुधारने के लिए है, न कि जैविक ज्वार को बाजार में बेचने की मुहीम के लिए।
हम उम्मीद की तरफ कदम रख रहे हैं और यह आधुनिक खेती के दुष्चक्र से निकलने का प्रयास है। वर्तमान खेती ने हमें रासायनिक खाद और कीटनाशक पर निर्भर बना दिया है और यह हमारी ज़मीन व आहार के लिए हानिकारक है, परंतु किसान अपनी आय के कारण मज़बूर है। इससे निकलने का प्रयास सामूहिक ही हो सकता है। इसलिए, सरकार को ही आगे आने की ज़रूरत है।
मध्यप्रदेश सरकार को योजना बनाने की आवश्यकता होगी कि इस मुहीम द्वारा खरीदी गई ज्वार किस तरह वितरित करें। सरकारी खरीदी के लिए हर किसान परिवार को मौका मिले। इसका टार्गेट परिवार-अनुसार तय किया जाए, ना कि रकबा के हिसाब से। इस तरह यह छोटे किसानों पर केन्द्रित होगा। ज्वार की माँग व पूर्ति का संतुलन बन पाए, ताकि इसको अधिक मात्रा में भंडार करने की ज़रूरत न हो। मध्यप्रदेश सरकार उड़ीसा एवं आंध्रप्रदेश के अभियान से सीख ले सकती है। अपने यहाँ के किसानों को सामने रखते हुए पुख्ता तैयारी कर सकती है।
पंजाब के इतिहास से हमें चेत जाना चाहिए। वहाँ तीन दशकों से कुछ कृषि वैज्ञानिक कह रहे हैं कि मिट्टी, पानी और आहार खराब हो रहा है, परंतु किसान समझते हुए भी इस पद्धति में फँसते चले गए। आप सोचें की दलदल में फँसा व्यक्ति जब हाथ-पैर मारता है तो वह और धंसता जाता है। बाहर निकलने के लिए रस्सी का सहारा चाहिए। हमारे लिए वह रस्सी सामूहिक प्रयास है, जिसकी जबाबदारी और योजना किसान संगठन एवं सरकार को लेनी होगी। निजी प्रयासों से ज़रूरी मार्गदर्शन मिलता है, रास्ते खुलते हैं, पर किसानों का पूरा समूह बाहर नहीं निकल सकता। सरकार द्वारा केवल गेहूं-धान की खरीदी ने सभी को दुष्चक्र में फंसाया हुआ है।
यह मुहीम, केवल ज्वार की वापसी के लिए नहीं है, परंतु पुन: मिश्रित खेती के नए तरीकों की तरफ लौटने के लिए है। आज के समय किसी एक फसल पर निर्भर होना और उसकी पैदावार को बढ़ाने के लिए अधिक रासायनिक खाद और कीटनाशकों का उपयोग करना कर्ज़ के मुँह में धकेलना है। आखिर हम तीन लाख किसान आत्महत्याओं के बाद भी यह बात क्यों नहीं समझ पा रहे हैंॽ मिश्रित खेती में जैविक पद्धति एवं पारंपरिक ज्ञान से रास्ते निकालने की यह मुहीम है। हम अपने आहार के लिए ज़हर के स्रोत पैदा न करें। पौष्टिक व सुरक्षित अन्न सभी के लिए होना चाहिए। यह मानसिकता दुष्चक्र से निकाल सकती है। (सप्रेस)
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