जहां देशी बीज और परम्परागत खेती जिन्दा है, वहां परम्परागत खेती और किसान भी जिन्दा है। स्थानीय मिटटी, पानी के अनुकूल देशी बीजों की परम्परागत विविधता की संस्कृति को सामने लाये जाने और ऐसी परंपरागत खेती की पद्धतियों प्रचलित है, जो बिना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाये अपनाई जा रही है। ओडिशा के एक वैज्ञानिक ने गांव की ओर लौट कर ऐसी खेती आरंभ की है जो किसानों को आत्म निर्भरता, स्वास्थ्य की रक्षा व खर्च कम करने की ओर ले जाती है तथा अच्छी गुणवत्ता का पर्याप्त उत्पादन देने में सक्षम है। अपनी संकट में पड़ रही खेती के विकल्प का तलाश करने वाले किसान इस प्रयोग की ओर बहुत उम्मीद से देख रहे हैं।
ओड़ीशा का तटीय क्षेत्र कृषि विकास की दिशा में एक अनुकूल क्षेत्र माना जाता है, पर हाल के वर्षों में यहां एक गंभीर विसंगति यह हुई है कि रासायनिक खाद व कीटनाशकों की मात्रा में बहुत तेज वृद्धि हुई है। इसके कारण अनेक गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो रही थी। कृषि का खर्च बहुत बढ़ रहा है और उत्पादन बढ़ने के बावजूद अनेक किसान संकट में फंस रहे हैं।
इस स्थिति में एक वैज्ञानिक ने गांव की ओर लौट कर ऐसी खेती आरंभ की है जो किसानों को आत्म निर्भरता, स्वास्थ्य की रक्षा व खर्च कम करने की ओर ले जाती है तथा अच्छी गुणवत्ता का पर्याप्त उत्पादन देने में सक्षम है। अपनी संकट में पड़ रही खेती के विकल्प का तलाश करने वाले किसान इस प्रयोग की ओर बहुत उम्मीद से देख रहे हैं।
यह प्रयास डॉ. नतबर राउत ने कटक जिले के गुंडिचापुर गांव में आरंभ किया है। यहां उन्होंने ‘विजियन इको-फार्म’ की स्थापना की है। वे स्वयं जगतसिंहपुर जिले के एक निर्धन गांव के रहने वाले हैं। यहां से निकलकर उन्होंने अपनी योग्यता के बल पर उच्च शिक्षा प्राप्त की व जलीय भू-विज्ञान में विशेषज्ञता प्राप्त की है।
उन्होंने गांवों के प्राकृतिक संसाधनों की मैपिंग (मानचित्र-करण) व जल प्रबंधन पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया। कालाहांडी- बोलनगीर-कोरापुट क्षेत्र में परंपरागत जल-स्रोतों पर कार्य करते हुए उनके अनुसंधान से यह सामने आया कि परंपरागत जल स्रोतों की तो ऐतिहासिक समय से उपयोगी भूमि रही है, पर आधुनिक समय में सरकारी विभागों ने प्राकृतिक निकासी मार्गों की अवहेलना करते हुए असरदार लोगों की मांग पर अपने खेतों के पास ही जल संग्रहण केंद्रित किया तो उससे सारी व्यवस्था गड़बड़ा गई व गैर-निकासी क्षेत्रों की ओर जल बहने लगा।
उड़ीसा के समुद्री तूफान के समय में वे सहायता व पुनर्वास प्रयासों से बहुत मेहनत व निष्ठा से जुड़े। इसी दौर में उन्होंने किसानों की समस्याओं को और नजदीकी से समझा। उनके द्वारा आरंभ किया मशरूम फार्म आर्थिक दृष्टि से बहुत सफल रहा और उन्होंने महत्त्वपूर्ण तकनीकी सुधार भी किया जिसका लाभ अधिक व्यापक स्तर पर मशरूम किसानों को मिला, पर अंत में उन्होंने अपना प्रयास प्रकृति की रक्षा वाली खेती पर तथा इसे अन्य किसानों तक पहुंचाने पर केन्द्रित किया। उनके एक मित्र ने उन्हें अपनी बेकार पड़ी जमीन लीज पर दे दी जिससे उन्हें आदर्श फार्म कम समय में ही विकसित करने में मदद मिली।
यहां की झाड़ियों को साफ कर उन्होंने कम समय में ही वहां बहुत सी फसलों को उगाया है, विशेषकर सब्जियों व फलों को, व इसमें केन्द्रीय बागवानी प्रयोग केन्द्र के रूप में मान्यता भी प्राप्त हुई है। जहां उनके किसानों से गहरे संबंध हैं वहां अनेक वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिकों से भी अच्छे संबंध हैं। इस तरह दोनों स्तरों पर सहयोग से इस कार्य को आगे बढ़ाने की अच्छी संभावनाएं यहां मौजूद हैं।
उनके फार्म में एक छोटा -सा सुंदर बगीचा है जिसके केन्द्र में एक गड्ढा है। इसमें रसोईघरों से बहने वाला पानी एकत्र होता है। इसमें गोमूत्र व गोबर मिलाया जाता है। इसके आसपास लगभग 21 सब्जियों के पौधे व बेल इस तरह लगाए गए हैं कि इन तक नमी व पोषण गड्ढे से पहुंचते हैं। पौधों व बेलों का चयन इस तरह किया जाता है कि पनपने में वे एक -दूसरे के पूरक हों, एक दूसरे के लिए रुकावट न बनें व स्पर्धा न करें।
सभी तरह के अवशेषों का अच्छे से अच्छा उपयोग फार्म में ही हो जाएगा इसमें भी यहां बहुत रचनात्मकता पाई जाती है। मरूम की सफल खेती में जो विशेज्ञता डॉ. राउत को प्राप्त है उसकी जानकारी भी वे यहां किसानों व स्वयं सहायता समूहों की महिलाओं को देते रहते हैं।
स्थानीय परंपरागत बीज बचाने की जरूरत को यहां महत्त्व दिया जाता है। विभिन्न गांवों से आ रहे किसानों को डॉ. राउत अपने यहां के बीज देते हैं, व उनसे अपने यहां के बीज लाने के लिए कहते हैं। उन्हें उम्मीद है कि जो क्षेत्र आधुनिक विकास के दायरे में अपनी दूरी के कारण नहीं आए, वहां अधिक स्थानीय परंपरागत बीज मिल सकेंगे। (सप्रेस)