कोरोना के प्रकोप ने हमारे सामने, भले ही परोक्ष रूप से, विकास की वैश्विक अवधारणा का एक बेहद जरूरी सवाल खडा कर दिया है। यानि विकास के नाम पर आज तक हम जो और जैसा करते रहे थे, वह दरअसल मानव जाति के कितने हित में था? भारत अपनी पारंपरिक कृषि, जीवन-पद्धति और सामाजिक व्यवस्था के चलते दुनियाभर को एक नई राह बता सकता है।
कोरोना वायरस ने एक झटके में पूरी दुनिया की बोलती बंद कर दी है। किसी को सूझ नहीं रहा है कि आगे क्या होगा? दरअसल कई सालों से पूरी दुनिया में वैश्विक तापमान, सूखा, अकाल, भुखमरी, आय में असमानता, बड़े पैमाने पर विस्थापन-पलायन और उससे उपजे आतंकवाद ने हमें ऐसे मोड पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ आगे अंधेरा-ही-अंधेरा है। किसी भी देश का उदय, प्रगति और समृद्धि स्थानीय मौसम तय करता है और इसके मूल में शुरू से ही खेती रही है। इस चक्र को समाप्त करने का प्रारंभ अठारहवीं शताब्दी के अंत में हुआ था, जब अमेरिका के हल व्हिटने ने सन् 1793 में कपड़ा मिल की नींव डाली थी। यहीं से औद्योगिक क्रान्ति प्रारंभ हुई जिसने धीरे-धीरे अपने पैर पसारने शुरू किये। बढ़ते उद्योगों ने बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा किये और शहरों की बसाहट को जन्म दिया। शहरों की वित्तीय-व्यवस्था के लिए बैंक और जीवन-बीमा निगम जगह-जगह प्रारंभ हुए।
द्वितीय विश्व-युद्ध के पश्चात् अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रेडरिक ट्रूमन ने 20 जनवरी 1949 को दिए अपने भाषण में दुनिया को ‘विकसित’ और ‘अविकसित’ देशों में विभाजित किया था। उन्होंने अधिक उत्पादन को विकास का पैमाना मानकर उसे समृद्धि और शांति लाने वाला बताया था। पिछली करीब आधी सदी में अमेरिका के बढ़ते उद्योगों और प्रौद्योगिकी ने भी यही सिद्ध किया है। ‘उत्तरी’ और ‘दक्षिणी’ गोलार्धों में व्याप्त विषमता में इसे हम साफ देख सकते हैं। यानी पिछड़े हुए ‘दक्षिण’ में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का अपनी समृद्धि के लिए पहले दोहन और फिर शोषण करना और वह भी वहाँ की स्थानीय जनता और समाज की चिंता किये बगैर। अमेरिका की समृद्धि और विकास के इस मॉडल को पूरे विश्व का रोल मॉडल बनाकर स्थापित किया गया।
मगर सन् 1960 में ही इस समृद्ध इमारत में दरारें पड़नी शुरु हो गईं थीं, क्योंकि इसकी नींव पक्की नहीं थी और यह रेत पर खड़ी की गई थी। नतीजे में बेरोजगारी की शुरूआत हुई और गरीबी बढ़ी। ‘विश्व बैंक’ के तत्कालीन अध्यक्ष रॉबर्ट मॅकनमारा को सन् 1973 में कहना पड़ा कि ऊपरी तबके की 25 प्रतिशत आबादी शेष बची हुई आबादी की 75 प्रतिशत दौलत लूट रही है। मतलब विकास एक बेडोल शक्ल का प्राणी बन गया।
उसी साल यानी 1973 में ही इस असंतुलित विकास से पैदा हुए प्राणी को सही परिप्रेक्ष्य में नाप-तौल कर पेश करने वाले अर्थशास्त्री ईएफ शूमाकर की विश्वविख्यात किताब ‘स्मॉल इज ब्यूटीफुल’ (लघु ही उत्तम) सामने आई। शूमाकर ने अपनी किताब के मुख-पृष्ठ पर चरखा चलाते हुए गांधीजी का चित्र दिया। शूमाकर का कहना था कि प्राकृतिक संसाधन आपका मूलधन हैं और जो व्यापारी उसे बढ़ाने के बजाए खाना शुरू कर देता है, उसका दिवालिया होना निश्चित है। जर्मनी में पैदा हुए और ब्रिटेन में पढ़े-बढे सांख्यिकीविद् और अर्थशास्त्री ईएफ शूमाकर उन दिनों बर्मा (म्यांमार) की बौद्ध सरकार के आर्थिक सलाहकार थे और उन्होंने अपने आर्थिक विश्लेषणों में बुद्ध के ‘मज्झिम निकाय’ यानि ‘मध्य-मार्ग’ का विशेष उपयोग किया है।
आज विकसित और ठीक अविकसित राष्ट्र भी दिवालियेपन की कगार पर हैं और चिरायु (सस्टेनेबल) जीवन यापन के लिए लालायित हैं। दूसरी ओर अविकसित राष्ट्रों के गरीब, वास्तव में गरीब नहीं हैं क्योंकि जीवन-यापन के लिए आवश्यक भूमि, जंगल और जल उनके पास हैं जो मुद्रा से ज्यादा महत्व रखते हैं।
मई 1498 में भूखा-नंगा पोर्तुगाली नाविक वास्को-द-गामा दक्षिण भारत के कालीकट में उतरा और जहाज भर के हमारे मसालों को अपने देश ले जाकर उसने पोर्तुगाल को समृद्ध बनाया। उसके बाद तो स्पेन, फ्रांस, हालेंड और इंग्लैंड ने भी भारत की खेती को जमकर लूटा। लेकिन इससे टस-से-मस न होते हुए चुपचाप खेती करने वाले किसानों के बारे में 1590 में भारत आए पोर्तुगाली पर्यटक डोमिंगो पेज ने लिखा था कि यहाँ के किसान मिट्टी की विभिन्न किस्मों और उनके गुणों को अच्छी तरह जानते हैं। इन किसानों के गेहूँ के खेत यूरोप के 99.9 प्रतिशत खेतों को लजा देंगे। 17वीं शताब्दी के फ्रांस के हीरे-जवाहरात के व्यापारी और पर्यटक जीन बापटिल्ट रेवरनियर ने कहा था कि यहाँ के छोटे-से-छोटे गाँव में चावल, आटा, दूध, मक्खन, सब्जियाँ और मिठाईयाँ भरपूर मात्रा में आपको मिल जाती हैं।
विदेशी पर्यटकों की ऐसी टिप्पणियों से तत्कालीन भारत की सम्पन्नता और समझ की झलक मिलती है। मसलन-सन् 1820 में भारत आए इंग्लेंड के खोजी वैज्ञानिक कर्नल एलैक्झेंडर वॉकर ने गुजरात के खेतों की बारीक-से-बारीक साफ-सफाई और फसलों को दुनिया में अनूठा बताया था। उन्होंने बंबई के मलाबार क्षेत्र के किसानों की खेती के बारे में जानकारी प्राप्त करके लिखने जैसा बेहद रोचक बताया था। इंग्लेंड के ‘बोर्ड ऑफ एग्रीकल्चर’ को 1796 में भारत के गुंटूर (आंध्रप्रदेश) के किसानों द्वारा बनाए गए तीन हल भेजने वाले व्यापारी कैप्टन थॉमस हैल्कॉट के अनुसार – ‘यहाँ के हल जिस बारीकी और खूबी से उचित गहरी जमीन में बीज डालते हैं, इंग्लैंड के महंगे-से-महंगे हल ये नहीं कर सकते।‘ बम्बई की गवर्नर कौंसिल के सदस्य जीएल प्रैडरगास्ट (1821) ने लिखा है कि ‘यहाँ के छोटे-से-छोटे गाँव में एक-न-एक पाठशाला जरूर मिल जाएगी। यहाँ का छोटे-से-छोटा किसान और विक्रेता अपना लेखा-जोखा अचूक रखता है।
गांधीजी के विचारों से प्रभावित होकर 1939 में भारत आए और यहीं विवाह करके बस गए नृतत्वशास्त्री फॉदर वेरियर एल्विन ने बैगा आदिवासियों की ‘झूम खेती’ (शिफ्टिंग एग्रीकल्चर) देखकर कहा था कि उन्हें यह कमाल की पद्धति दिखी जिसमें जमीन की उर्वरता बरकरार रहती है। ‘रॉयल बॉटनिकल गार्डन’ कलकता के अधीक्षक (1832) डॉ. नैथानियल वैलिच ने ब्रिटिश संसद में भाषण देते हुए बताया था कि बंगाल के चावल के खेत देखकर लगता है कि अगले एक हजार साल तक हम भूखे नहीं मरेंगे। भारत के गवर्नर जनरल (1835-36) चार्ल्स मेटकॉफ का कहना था कि ‘यहाँ के गांवों का प्रजातन्त्र बताता है कि यहाँ बगैर बाहरी आदान के सब कुछ पैदा होता है। राजे-रजवाड़े आएंगे और जाएंगे लेकिन यहाँ के गांवों का बाल-बांका नहीं हो सकेगा। एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में कृषि और ग्रामीण अर्थशास्त्र के प्राध्यापक रॉबर्ट वॉलेस (1883) के मुताबिक भारत के ग्रामीणों का हर बात पर निरीक्षण देखने लायक है। साधारण किसान भी अपने खेत की हर वनस्पति को बखूबी जानता है।
इंग्लैंड से भारतीय किसानों को रासायनिक खेती सिखाने आए वैज्ञानिक अलबर्ट हॉवर्ड (1905-1924) भारत के किसानों को अपना गुरू मानते थे। भारत भेजे गए रसायन शास्त्री (1889-91) डॉ. जॉन अगस्टस व्हेकर कहते थे कि अंग्रेज किसानों को खेत में सुधार बताना आसान है, लेकिन भारत में नहीं। यहाँ के किसान इंग्लैंड के किसानों से बेहतर हैं। अमेरिका के लेखक और पत्रकार) डॅन मॉर्गेन का कहना था कि उत्तरी अमेरिका की समृद्धी में भारत के किसानों का बड़ा योगदान रहा है। सन् 1904 में कलकत्ता के हार्ड रेड गेहूँ ने यहाँ धूम मचा दी थी।
इनके अलावा सैकड़ों विदेशी जानकारों ने भारत की खेती को नजदीक से देखा और सराहा था। आश्चर्य इस बात का है कि 600 सालों की गुलामी में फली-फूली हमारी खेती और समृद्ध होते स्वावलंबी गांवों की अनदेखी स्वतन्त्र भारत में प्रारंभ हुई और दिन-ब-दिन बदतर होती गई। ये समय है जब हम ज्यादा उत्पादन के झमेले में न पड़कर चिरायु खेती की ओर मुड़ें। जंगलों की सुरक्षा कर खेती आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत करें। इससे न केवल भारत को, बल्कि औद्योगिक खेती करने वाले देशों को भी फायदा होगा। (सप्रेस)