आजकल कैंसर और उस जैसी अनेक गंभीर बीमारियों के विस्फोट ने हमारे खान-पान पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। इसी दौर में पता चल रहा है कि पूंजी की अपनी हवस में पागल हो रही बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ‘जीनेटिकली मॉडीफाइड’ खाद्य को बढ़ावा देना शुरु किया है। मुनाफा बटोरने की बेशर्म कवायद ने कृषि और बीज के धंधे में लगी इन कंपनियों को किसी भी वैज्ञानिक को अनसुना करने के लिए उकसाया है। क्या-कैसे हैं, इन कंपनियों के कारनामे?
यदि कोई अवैध कार्यवाही हो रही हो तो सरकार का कर्तव्य है कि इस पर तुरंत रोक लगाए। पर हाल में कुछ लोगों ने कहा है कि सरकार कानून ही इस तरह बदल दे कि जो अवैध है वह वैध नजर आने लगे। यह अजीब स्थिति ‘जीएम’ (जेनेटिकली मोडीफाईड या जीन-संवर्धित) फसलों के संदर्भ में देखने में आई है। अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी दे चुके हैं कि स्वास्थ्य, पर्यावरण, जैव-विविधता, कृषि व खाद्य-व्यवस्था के लिए ‘जीएम’ फसलें बहुत खतरनाक हैं। इसके बावजूद ‘जीएम’ बीजों व इनसे जुड़ी रासायनिक दवाओं को बढ़ाने वाली कंपनियां अपने उत्पादों की बिक्री को तेजी से बढ़ाने के लिए इनका प्रचार-प्रसार करती रही हैं व अपनी अपार धन-दौलत के बल पर उन्होंने अपने अनेक समर्थक उत्पन्न कर लिए हैं। हाल में इन लोगों ने सरकार को विचित्र सलाह देते हुए कहा है कि कुछ ‘जीएम’ फसलों को अवैध रूप से भारत के खेतों में फैलाया जा रहा है जिसे रोकने के लिए सरकार को चाहिए कि वह इन ‘जीएम’ फसलों को वैधता दे दे।
यह अजीब तर्क है कि किसी अवैधता को रोकने के लिए उस अवैधता को वैध कर दो, पर ‘जीएम’ फसलों का सारा ताना-बाना ही इस तरह के मिथ्या व भ्रामक प्रचार के बल पर खडा हुआ है।
‘जीएम’ फसलों के विरोध का एक मुख्य आधार यह रहा है कि ये फसलें स्वास्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं तथा उनका यह असर ‘जेनेटिक प्रदूषण’ के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों व पौधों में फैल सकता है। इस विचार को ‘इंडिपेंडेंट साईंस पैनल’ (स्वतंत्र विज्ञान मंच) ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है। इस पैनल में एकत्रित हुए अनेक देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने ‘जीएम’ फसलों पर एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज तैयार किया है। इसके निष्कर्ष में उन्होंने कहा है “जीएम’ फसलों के बारे में जिन लाभों का वायदा किया गया था, वे प्राप्त नहीं हुए हैं व ये फसलें खेतों में बढ़ती समस्याएं उपस्थित कर रही हैं। अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ‘ट्रान्सजेनिक प्रदूषण’ से बचा नहीं जा सकता। अतः ‘जीएम’ फसलों व ‘गैर-जीएम’ फसलों का सह-अस्तित्व नहीं हो सकता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि ‘जीएम’ फसलों की सुरक्षा प्रमाणित नहीं हो सकी है। इसके विपरीत ऐसे पर्याप्त प्रमाण मिल चुके हैं जिनसे इन फसलों की सुरक्षा संबंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यदि इनकी उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की क्षति होगी जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती। ‘जीएम’ फसलों को अब दृढ़ता से खारिज कर देना चाहिए।”
इन फसलों से जुड़े खतरे का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष कई वैज्ञानिकों ने यह बताया है कि जो खतरे पर्यावरण में फैलेंगे उन पर हमारा नियंत्रण नहीं रह जाएगा व गंभीर दुष्परिणाम सामने आने पर भी हम इनकी क्षति-पूर्ति नहीं कर पाएंगे। जेनेटिक प्रदूषण का मूल चरित्र ही ऐसा है। वायु-प्रदूषण व जल-प्रदूषण की गंभीरता पता चलने पर उन्हें नियंत्रित किया जा सकता है, पर जेनेटिक-प्रदूषण एक बार पर्यावरण में चले जाने पर हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों को केवल इस कारण परेशान किया गया है या उनका अनुसंधान बाधित किया गया है, क्योंकि उनके अनुसंधान से ‘जीएम’ फसलों के खतरे पता चलने लगे थे। इन कुप्रयासों के बावजूद निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से ‘जीएम’ फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं। जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक ‘जेनेटिक रुलेट् (जुआ)’ के 300 से अधिक पृष्ठों में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप या परिचय उपलब्ध है। इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में पेट, लिवर, आंतों जैसे विभिन्न महत्वपूर्ण अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है। ‘जीएम’ फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने की चर्चा है व जेनेटिक उत्पादों से मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है।
हाल ही में देश के जीनेटिक साइंस के महान वैज्ञानिक प्रोफेसर पुष्प भार्गव का निधन हुआ है। वे ‘सेण्टर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बॉयोलाजी, हैदराबाद’ के संस्थापक निदेशक व ‘नेशनल नॉलेज कमीशन’ के उपाध्यक्ष रहे थे। उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियां बहुचर्चित रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने प्रो. पुष्प भार्गव को ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी’ (जीईएसी) के कार्य पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया था। प्रो. पुष्प भार्गव ने बहुत प्रखरता से ‘जीएम’ फसलों का बहुत स्पष्ट और तथ्य आधारित विरोध किया था। अंग्रेजी दैनिक ‘हिंदुस्तान टाईम्स’ के अपने लेख में प्रो. भार्गव ने लिखा था कि लगभग 500 अनुसंधान प्रकाशनों ने ‘जीएम’ फसलों के मनुष्यों, अन्य जीव-जंतुओं व पौधों के स्वास्थ्य पर हानिकारक असर को स्थापित किया है। ये सभी प्रकाशन ऐसे वैज्ञानिकों के हैं जिनकी ईमानदारी के बारे में कभी, कोई सवाल नहीं उठा है। प्रो. भार्गव ने आगे लिखा कि दूसरी ओर ‘जीएम’ फसलों का समर्थन करने वाले लगभग सभी पेपर या प्रकाशन उन वैज्ञानिकों के हैं जिन्होंने ‘कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’ स्वीकार किया है या जिनकी विश्वसनीयता व ईमानदारी के बारे में सवाल उठ सकते हैं। ‘जीएम’ फसलों के समर्थक प्रायः कहते हैं कि इनको वैज्ञानिकों का समर्थन मिला है, पर प्रो. भार्गव ने इस विषय पर समस्त अनुसंधानों का आंकलन कर स्पष्ट बता दिया था कि अधिकतम निष्पक्ष वैज्ञानिकों ने ‘जीएम’ फसलों का विरोध ही किया है। साथ में उन्होंने यह भी बताया था कि जिन वैज्ञानिकों ने ‘जीएम’ को समर्थन दिया है उनमें से अनेक किसी-न-किसी स्तर पर ‘जीएम’ बीज बेचने वाली कंपनियों या इस तरह के निहित स्वार्थों से किसी-न-किसी रूप में जुड़े या प्रभावित रहे हैं।
कुछ ‘जीएम’ फसलों के साथ खतरनाक खरपतवार-नाशकों को जोड़ दिया गया है। ऐसा ‘ग्लाईफोसेट’ नामक एक खरपतवार-नाशक स्वास्थ्य के लिए बहुत खतरनाक पाया गया है। हाल ही में कैलिफोर्निया (अमरीका) की एक अदालत ने अपने महत्वपूर्ण निर्णय में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को जानसन नामक व्यक्ति को बहुत अधिक क्षतिपूर्ति राशि देने को कहा है। यह कंपनी ‘ग्लाईफोसेट’ नामक खतरनाक रसायन बनाती है। जानसन का कार्य स्कूलों के मैदानों की देख-रेख था। उसने इन खरपतवार-नाशकों का छिड़काव वर्षों तक किया जिससे उसे रक्त-कोशिका का एक ऐसा गंभीर कैंसर हो गया था जिसे ‘नॉन-हाजकिन लिंफोमा’ कहा जाता है। इस मुकदमे के दौरान यह भी देखा गया कि इस खरपतवार-नाशक को किसी-न-किसी तरह सुरक्षित सिद्ध कर पाने के लिए कंपनी ने स्वयं तथ्य गढ़े और फिर किसी विशेषज्ञ का नाम उससे जोड़ दिया। यह इसके बावजूद किया गया कि ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (डब्ल्यूएचओ) की कैंसर से जुडी अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान एजेंसी (आईएआरसी) ने वर्ष 2015 में ही इस खरपतवार-नाशक से होने वाले कैंसर की संभावना के बारे में बता दिया था। भारत में भी इसका उपयोग होता है। ‘ग्लाईफोसेट’ का उपयोग ‘जीएम’ फसलों के साथ नजदीकी से जुड़ा रहा है और इसके गंभीर खतरों के सामने आने से ‘जीएम’ फसलों से जुड़े खतरों की पुष्टि होती है।
विशालकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियां, जैसे-‘मानसेंटो’ व ‘बेयर’ (जो बहुत बड़े सौदे के बाद एक हो गई हैं) बीज और कृषि रसायनों के व्यवसाय को साथ-साथ कर रही हैं व कई फसलों (विशेषकर ‘जीएम’ फसलों) के बीजों के साथ ही उनके लिए उपयुक्त खरपतवार-नाशकों, कीटनाशकों आदि को भी बेचा जाता है। इससे कंपनियों की कमाई बहुत तेजी से बढ़ती है और किसानों का खर्च और कर्ज उससे भी तेजी से बढ़ते हैं। वकीलों जिस टीम ने जानसन की ओर से मुकदमा लड़ा था उनमें एडवर्ड केनेडी भी थे जिनके इसी नाम के विख्यात सीनेटर पिता थे। एडवर्ड केनेडी ने मुकदमे में जीत के बाद कहा कि इस तरह के उत्पादों की बिक्री के कारण न केवल बहुत से लोग गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से त्रस्त हो रहे हैं, अपितु अनेक अधिकारियों को भ्रष्ट बनाया जा रहा है, प्रदूषण से बचाने वाली एजेंसियों पर नियंत्रण किया जा रहा है व विज्ञान को झुठलाया जा रहा है।
‘अमेरिका की माताएं’ (मॉम्स एक्रॉस अमेरिका) की संस्थापक जेन हनीकट ने अदालत के इस निर्णय का स्वागत करते हुए मानवता के लिए व धरती पर पनप रहे सभी तरह के जीवन के लिए इसे एक जीत बताया। फ्रांस के पर्यावरण मंत्री ब्रूने पायरसन ने इस ‘ऐतिहासिक निर्णय’ का स्वागत किया। भारत सहित सभी देशों को ‘जीएम’ फसलों, रासायनिक खरपतवार-नाशकों, जंतुनाशकों व कीटनाशकों के स्वास्थ्य व पर्यावरण पर दुष्परिणामों के बारे में व्यापक जन-चेतना का अभियान चलाना चाहिए, जिससे इनके बारे में सही व प्रामाणिक जानकारी किसानों व आम लोगों तक पंहुच सके। कृषि व खाद्य क्षेत्र में ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग’ की टैक्नॉलॉजी मात्र चंद बहुराष्ट्रीय कंपनियों (व उनकी सहयोगी या उप-कंपनियों) के हाथ में केंद्रित है। इनका उद्देश्य ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग’ के माध्यम से दुनियाभर की कृषि व खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है जैसा विश्व इतिहास में आज तक संभव नहीं हुआ। इन तथ्यों व जानकारियों को ध्यान में रखते हुए सभी ‘जीएम’ फसलों का विरोध जरूरी है। इसके साथ अवैध ढंग से हमारे देश में जिन ‘जीएम’ खाद्य उत्पादों का आयात होता रहा है, उस पर रोक लगाना भी जरूरी है। http://www.spsmedia.in (सप्रेस)