विकास की जिस अवधारण को लेकर हम अपनी कथित प्रगति करने में लगे हैं, उसमें सभी तरह के प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी साफ दिखाई देती है। उत्तराखंड इससे अछूता नहीं है जहां थोडे समय में करीब सवा लाख हैक्टेयर कृषि भूमि उद्योगों को हस्तांतरित हो चुकी है।
उत्तराखण्ड राज्य को बने 20 वर्ष हो गये, लेकिन अभी तक यहां के निवासियों का जमीन पर कोई हक नहीं है। अब तो यहां आने वाले किसी भी राज्य के जमीन खरीददारों को मनचाही जमीन खरीदने की खुली छूट मिली हुई है जिसका आजकल प्रबल विरोध चल रहा है। वर्ष 2018 में यहां की विधानसभा ने बकायदा भू-कानून में संशोधन करके बाहर से आने वाले लोगों के लिये जमीन खरीद की सीमा को खत्म कर दिया था, जबकि इससे पहले सन् 2002 में मुख्यमंत्री रहे नारायण दत्त तिवारी की सरकार ने इसकी सीमा 500 वर्ग मीटर रखी थी।
उनके इस निर्णय का भी विरोध हुआ था क्योंकि लोग चाहते थे कि भूमिहीनों को पहले भूमि दी जाय। इस बात को लेकर सन् 2000 में उत्तराखण्ड विकास की सही दिशा के परिप्रेक्ष में एक दस्तावेज भी अन्तरिम सरकार को सौंपा गया था। इसके बाद सन् 2007 में भुवनचन्द्र खण्डूरी मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने दूसरे राज्यों के लोगों को जमीन खरीदने के कानून में संसोधन किया और पहले की निर्धारित सीमा को घटाकर 250 वर्ग मीटर तक कर दिया।
उत्तराखण्ड एक पहाड़ी राज्य है जिसका क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किमी है। इसमें से 92.57 प्रतिशत भाग पर्वतीय और 7.43 प्रतिशत मैदानी भाग है। कुल भूमि का 65 प्रतिशत भाग वन विभाग के पास है, जिसे वनभूमि कहा जाता है। सांख्यकीय आंकड़ों के आधार पर वर्ष 2008-09 तक 13 प्रतिशत क्षेत्र यानि 7.7 लाख हैक्टेयर पर कृषि होती थी। अब यह घटकर सन् 2020 में 6.48 लाख हैक्टेयर तक सिमट गयी है। यानि अब तक राज्य में 1.22 लाख हैक्टेयर कृषि भूमि लोगों के हाथ से निकल गई है।
यह सिलसिला जारी रहेगा, क्योंकि जमीन खरीददारों की फाइलें सरकारी निर्णय का इन्तजार कर रही हैं। उत्तराखण्ड में गरीब, विधवा, दलित वर्ग के किसानों के पास पर्याप्त कृषि भूमि न होने से वे अपने घर का खाना-खर्च चलाने के लिये बाहर नौकरी करने चले जाते हैं। जबकि कृषि करने वाले लोगों को पर्याप्त जमीन दी जा सकती है, लेकिन इसके लिये सरकार ने ऐसा कोई भूमि बन्दोबस्त का ढांचा तैयार नहीं किया, जहां से इन्हें कृषि भूमि दी जा सके।
हॉल के दिनों में उत्तराखण्ड के लोगों में सोशल मीडिया के माध्यम से एक बड़ा आक्रोश सामने आया है। लोग जमीन पर स्थानीय समाज के हक की मांग कर रहे हैं। यह मांग इसलिये जायज है कि यहां के पर्वतीय क्षेत्र जैसे- धारचूला, मुनस्यारी, जोशीमठ, उखीमठ, भटवाड़ी, मोरी तहसीलें जो कि एक प्रकार से आदिवासी और भोटांतिक क्षेत्र हैं, में कृषि भूमि का प्रतिशत मात्र तीन है। पूरे हिन्दुकुश हिमालय क्षेत्र को देखें तो यहां मात्र 5 प्रतिशत कृषि योग्य जमीन है।
उत्तराखण्ड में उपलब्ध कृषि भूमि में से 49.85 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में ही सिंचाई की सुविधा है। यह आंकड़ा सिंचाई नहरों के निर्माण की संख्या के आधार पर बताया गया है। सच्चाई यह है कि इसमें 30-40 प्रतिशत नहरों से समय पर पानी की आपूर्ति नहीं हो पाती है। शेष कृषि-भूमि की सिंचाई नदी घाटी के आस-पास होने से हो पाती है। उत्तराखण्ड की कुल आबादी की आजीविका कृषि, पशुपालन, वनोत्पादन एवं फल उत्पादन आदि से चलती है।
उत्तराखण्ड में भूमि का अंतिम बंदोबस्त 1960-64 में हुआ था। सन् 2004 में नया बंदोबस्त करने की कोशिश हुई थी, परन्तु ऐसा नहीं हो सका। इसके कारण राज्य में नये आधिकारिक आंकड़े प्राप्त नहीं हो पाते हैं। हालांकि कृषि यहां का परम्परागत व्यवसाय है, किन्तु राज्य में कृषि जोतों का आकार बहुत छोटा है और यहां पर 6 लाख से अधिक सीमान्त कृषक और लगभग 2 लाख छोटे किसान हैं, जिनके पास केवल 1-2 हैक्टेयर वाली कृषि भूमि है।
यहां पर केवल 100 से अधिक बड़े जोत वाले कृषक हैं, जिनके पास 10 हैक्टेयर से अधिक कृषि जोतें हैं। इस प्रकार बताया जाता है कि मध्यम श्रेणी के कृषकों के पास 3,44,000 हैक्टेयर कृषि भूमि, सीमान्त कृषकों के पास 2,42,000 हैक्टेयर कृषि भूमि और छोटे कृषकों के पास 2,21,000 हैक्टेयर कृषि भूमि है। अतः उत्तराखण्ड के किसानों के लिये कृषि जोतों को बढ़ाने की आवश्यकता है जिसके लिये बड़े पैमाने पर भूमि सुधार करना पड़ेगा। यहां सबसे बड़ी संख्या में सीमान्त कृषक हैं, जो अत्यधिक छोटी कृषि भूमि के स्वामी हैं।
यहां की कुल जमीन में से 1.33 प्रतिशत परती भूमि है, जो 82,979 हैक्टेयर के बराबर है। इसके अलावा कृषि योग्य भूमि 1,66,768 हैक्टेयर भी खाली पड़ी हुई है। इसको मिलाकर कुल 2,49,747 हैक्टेयर को कृषि कार्यों में लगाया जा सकता है।
उत्तराखण्ड में भूमि का सबसे बड़ा स्वामी वन विभाग है, जिसके पास 65 प्रतिशत भूमि है। इसके अन्तर्गत भी वन केवल 40 प्रतिशत क्षेत्र में ही हैं। सरकार हिम्मत दिखाये तो खाली पड़ी वन-भूमि को उन हजारों गांव की आजीविका सुधार के रूप में सौंप सकती है, जो परम्परागत रूप से आरक्षित वनों के पास रहकर इसकी रक्षा करते आ रहे हैं। जिस पर वन विभाग की मुहर लगी हुई है।
इस प्रकार भूमि उपयोग की दृष्टि से एक सशक्त भू-कानून बनाने की दिशा में उत्तराखण्ड के लोग मांग कर रहे हैं जिससे कृषि नीति और जल नीति में भी सुधार आयेगा। उत्तराखण्ड की जमीनों पर जिस तरह से बडे़-बडे़ भू-माफिया विकास के नाम पर कब्जा कर रहे हैं, उसे रोकने के लिये हिमाचल, सिक्किम, मेघालय राज्यों की तर्ज पर ऐसा भू-कानून बनाना चाहिये जो पहले स्थानीय लोगों की जरूरतों की पूर्ति करे। उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी भी इससे हामी भर रहे हैं, लेकिन यह तभी सार्थक होगा जब वे अपनी सरकार द्वारा किये गये संशोधन को बदलकर जन-आकांक्षाओं के अनुरूप भू-कानून बना दें। (सप्रेस)
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