अपनी समझ और संसाधनों की उपलब्धता के चलते किसान कई बार खेती की ऐसी पद्धति वापरते हैं जिससे एक तरफ तो पर्यावरण का संरक्षण होता है और दूसरी तरफ, जीवन जीने लायक उपज मिल जाती है। हिमालय के सुदूर ग्रामीण इलाकों में पलायन के बाद बची महिलाएं ऐसा ही कर रही हैं।
“जब पहाड़ के गांव-के-गांव खाली हो रहे थे, युवा और पुरुष रोजगार की तलाश में शहरों की ओर भाग रहे थे, अधिकांश गांवों में महिलाएं और बुजुर्ग ही बचे थे, खेती-किसानी उजड़ रही थी, तब हम महिला किसानों ने परिवार की जिम्मेदारी संभाली। पारंपरिक खेती को पुनर्जीवित किया। इस खेती से न केवल परिवार का भरण-पोषण किया, बल्कि उसके उत्पाद को बेचकर आर्थिक स्थिति भी मजबूत की। इस पूरी पहल में ‘श्रमयोग संस्था’ ने हमारी मदद की।” ये निर्मला देवी थीं, जो उत्तराखंड के गांव की महिला किसान और ‘रचनात्मक महिला मंच’ की अध्यक्ष हैं।
यहां की अधिकांश खेती पहाड़ी है। सीढ़ीदार खेत हैं, कुछ तराई वाले समतल खेत भी हैं। बारिश पर निर्भर यहां की खेती अधिकांश जैविक ही है। इसमें दलहन, तिलहन, अनाज, मसाले, रेशा, हरी सब्जियां और विविध तरह के फल-फूल शामिल हैं। इससे मनुष्यों को पौष्टिक अनाज, मवेशियों को फसलों के ठंडल और भूसे से चारा मिलता है। धरती को जैविक खाद से पोषक तत्व प्राप्त हो जाते हैं। इससे मिट्टी बचाने का भी जतन होता है। मिश्रित फसलों की पारंपरिक पद्धति को ‘बारहनाजा’ कहा जाता है।
इस सबके बीच यहां के कुछ युवाओं ने ‘श्रमयोग संस्था’ का गठन किया है जिसके माध्यम से ग्रामीणों के साथ मिलकर पर्यावरण और जैव-विविधता को सहेजने की कोशिश की है। महिलाओं के साथ मिलकर पारंपरिक खेती को फिर से बहाल किया है। रोजगार और आमदनी बढ़ाने का काम किया है। संस्था के अजय कुमार बताते हैं कि वे और शंकरदत्त, ‘लोक विज्ञान संस्थान, देहरादून’ में काम करते थे। वर्ष 2011 में हमने ‘श्रमयोग संस्था’ की शुरूआत की और अल्मोड़ा जिले के सल्ट विकासखंड के गांवों में काम करने का तय किया। गांव-गांव में बैठकें कीं और पाया कि बड़ी संख्या में पलायन से गांव खाली हो गए हैं। रोजगार की तलाश में लोग दिल्ली, लुधियाना और मुंबई चले गए हैं। अधिकांश गांवों में महिलाएं ही रहती हैं। हमने उनके साथ मिलकर खेती को फिर से खड़ा करने का फैसला किया। संस्था का मुख्य कार्यालय सल्ट विकासखंड के हिनौला में है।
वे बताते हैं कि वर्ष 2013 में 15 गांवों में अध्ययन यात्रा की गई। यह यात्रा पंचायत राज व्यवस्था के अध्ययन के लिए की गई थी। हमने इस दौरान पाया कि पंचायत राज व्यवस्था की स्थिति बहुत खराब है। इसलिए हमने गांवों के लोगों के साथ मिलकर तय किया है कि हम ‘श्रम, जन स्वराज अभियान’ चलाएंगे जिसके तहत् पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत करेंगे। इसकी खामियों को सरकार तक पहुंचाएंगे। गांवों में संगठन बनाएंगे। आपसी समझ बनाने के लिए विचारों का आदान-प्रदान करेंगे। इस यात्रा में समझ आया कि प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा मिलकर ही की जा सकती है।
सल्ट क्षेत्र हल्दी और पीली मिर्ची के लिए मशहूर रहा है, लेकिन अन्य फसलें घाटे की रही हैं। इसलिए सबसे पहले हल्दी, पीली मिर्च और अदरक की खेती पर जोर दिया गया। इसके अलावा, दालें, मसूर, उड़द, गहथ, भंगजीर, जख्या, काला भट्ठ, धनजीरा की खेती भी की गई। सब्जियों में ओगल, मूली, राई, धनिया, पालक, बैंगन, भिंडी, छिमी, कद्दू, चिचिंडा, बिन इत्यादि उगाए गए। ‘श्रमयोग संस्था’ ने महिला किसानों के उत्पाद को उचित दाम मिलें, यह सुनिश्चित किया। हल्दी के अलावा, मंडुवा, दालें, जख्या इत्यादि को वैकल्पिक बाजार से जोड़ा है। स्थानीय बाजार के अलावा दिल्ली, मुम्बई, बेंगलुरू, देहरादून जैसे महानगरों में यहां के श्रम उत्पाद बेचे जाते हैं। प्रतिवर्ष लगभग 10 लाख रुपयों की खरीद-बिक्री होती है।
अजय कुमार बताते हैं कि पैदावार को एकत्र करने के लिए 8 संकुल बनाए गए हैं, जो गिंगड़े, चॉच, घटकोट, जसपुर, रतखाल, थला, जमरिया और नैनीडांडा में हैं। इन संकुलों में महिलाएं अपना उत्पाद देती हैं, जहां उसकी तुलाई होती है। उन्हें एक पर्ची दी जाती है, जिसमें किसान, गांव, समूह का नाम, उत्पाद की मात्रा का विवरण होता है। बाद में इस पर्ची के मुताबिक मासिक बैठकों में भुगतान किया जाता है।
वे बताते हैं कि पहले वर्ष 2015 में हल्दी का भाव प्रति किलोग्राम 40 रू. था, क्योंकि पहले बिचौलिए होते थे, जो सस्ते दामों में हल्दी खरीदते थे और महंगे में बेचते थे। जबसे संस्था ने इसमें हस्तक्षेप किया है महिलाओं को उनके उत्पाद का उचित दाम मिलने लगा है। अब प्रति किलोग्राम 300 रूपए दाम है, जिसमें से 110 रूपए प्रति किलोग्राम तक के दाम के हिसाब से महिलाओं को मिले हैं, शेष राशि ढुलाई और अन्य खर्च हो जाती है। जब भाव बढ़ा तो उत्पादन भी बढ़ा और परिवारों की स्थिति बेहतर भी हुई।
कोट जसपुर गांव की निर्मला देवी बताती हैं कि हल्दी की खेती से आमदनी बढ़ी है, जिससे हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा की व्यवस्था कर पा रहे हैं। इसके साथ ही जो महिलाएं घरों की चारदीवारी में कैद थीं, वे सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हो रही हैं। शासकीय विभागों से संपर्क करती हैं, बैंक खातों का रख-रखाव करती हैं, अपने हक और अधिकार के लिए आवाज उठाती हैं। यह सब संगठन के कारण ही संभव हुआ है।
चॉच गांव की सुनीता देवी कहती हैं कि उनकी खेती जो पूरी तरह से घाटे में चल रही थी, अब उससे आमदनी बढ़ गई है। हल्दी के अच्छे दाम मिल रहे हैं। खेती के साथ रकबा भी बढ़ा है, पशुओं की देखभाल भी अच्छी हो रही है। जो प्रवासी मजदूर शहरों में गए थे, उनमें से कुछ खेती के काम से वापस जुड़ गए हैं। अगर खेती अच्छी होगी, गांवों में अच्छी शिक्षा मिलेगी तो पलायन भी नहीं होगा और गांव भी खुशहाल होंगे।
गिगड़े गांव की देवकी बताती हैं कि हम सब्जियों की खेती भी कर रहे हैं। पहले बीजों की समस्या थी, लेकिन अब हमने बीज-कोष बनाया है, जिससे सभी को बीज उपलब्ध हो जाते हैं। औलेथ गांव की उषा देवी बताती हैं कि हमने अब सामूहिक खेती शुरू की है। हल्दी, अदरक और मिर्च की खेती करते हैं। इसी प्रकार, सतखोलू गांव में ‘रामी बोराणी समूह’ की महिलाएं सामूहिक खेती कर रही हैं। वे यहां अदरक की खेती करती हैं।
इसके अलावा, ‘प्राकृतिक धरोहर बचाओ अभियान’ का गठन भी किया गया है, जो जल, जंगल, जमीन का संरक्षण व संवर्धन करता है। इसके तहत चॉच गांव में ‘धारा विकास कार्यक्रम’ चल रहा है, जिसमें प्राकृतिक नौले और धारे को पुनर्जीवित किया जा रहा है। यहां श्रमदान से पेड़ लगाए जा रहे हैं। बारिश आने से पूर्व खंतियां खोदी जा रही हैं, जिससे उनमें पानी एकत्र हो सके। ‘बाल मंच’ के माध्यम से भी ‘अपना जंगल पहचानो’ कार्यक्रम चलाया जाता है, जिसमें बच्चों में जैव-विविधता व पर्यावरण के प्रति जागरूकता आए।
कुल मिलाकर, ‘श्रमयोग संस्था’ और ‘रचनात्मक महिला मंच’ की पहल से उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों में खेती फिर से बहाल हुई है, महिला किसानों ने खेती से आमदनी बढ़ाई है, सामाजिक और पर्यावरणीय मुद्दों पर भी जागरूकता आई है। महिलाओं ने गांव से लेकर मुख्यमंत्री के सामने तक अपनी आवाज उठाई, तालाबंदी में भी प्रवासी मजदूरों की मदद की। महिलाओं की एकता व संगठन ने उन्हें नई पहचान दी। उन्होंने अपने दुख-सुख आपस में बांटे और एक दूसरे को हिम्मत दी। नई पीढ़ी को भी पर्यावरण से जोड़ा। इस तरह की पहल से हिमालय में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं से भी कुछ हद बचा जा सकता है। (सप्रेस)
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