प्रेरणा

इन दिनों देशभर के किसान संसद द्वारा पारित तीन कानूनों को लेकर बेचैन हैं। इन कानूनों के विरोध में जगह-जगह धरना, प्रदर्शन जारी हैं और इनकी मार्फत सरकार से कहा जा रहा है कि वह इन कानूनों को वापस ले ले। क्‍या हैं, ये कानून? और किसानों पर किस तरह इनका असर होगा? क्‍या गांधी के ‘ताबीज’ से भी इन कानूनों का कुछ लेना-देना है?

बात नवंबर 2019 की है। पिछले सात सालों से 16 देशों के बीच आार्थिक भागीदारी की संभावनाएं टटोलने के लिए वार्ता चल रही थी। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस पर पर्दा गिराते हुए कहा कि यह संधि न उनकी अंतरात्मा को कबूल है और न महात्मा गांधी का ‘ताबीज’ उन्हें इसकी इजाजत देता है। बस, हंगामा मच गया ! हंगामा यह नहीं था कि नरेंद्र मोदी ने संधि से भारत को अलग क्यों कर लिया, ऐसा तो अब पूरी दुनिया में हो रहा है। हंगामा यह हुआ कि इस महात्मा गांधी का दुनिया के आर्थिक जगत से क्या लेना-देना और उनका ‘ताबीज’ आखिर क्या है? गांधी और उनका ‘ताबीज’ कुछ समय के लिए चर्चा में आ गया !

दुनिया के बाजार में गांधी का सिक्का भले न चलता हो, भारत में यह आज भी खोटा सिक्का तो नहीं ही बना है। यह सरकार देश-दुनिया के सामने गांधी का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करती है, लेकिन इस सिक्के के साथ एक बड़ी दिक्कत है। इसका जब भी इस्तेमाल करते हैं, लोग पूछने लगते हैं कि गांधी का यह सिक्का चलाने की योग्यता कितनी है? यही सवाल नरेंद्र मोदी को भी और उनके भारत को भी परेशान कर रहा है।   

गांधी का ‘ताबीज’ कहता है कि यदि अपने किसी कदम के औचित्य के बारे में तुम्हें कोई संदेह हो तो जो सबसे गरीब और कमज़ोर आदमी तुमने देखा हो, उसे याद करो और फिर अपने आप से पूछो कि जो कदम तुम उठाने जा रहे हो वह उस गरीब व कमजोर आदमी के हित में है क्या?

गांधी का यह ‘ताबीज’ यूं तो सभी सरकारी नीतियों पर लागू होता है, पर अब किसान और किसानी का बचे रहना इसी ‘ताबीज’ पर निर्भर करता है। अर्थशास्त्री कहते हैं कि 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था में जिस स्तर के परिवर्तन हुए थे, उसी स्तर के परिवर्तन कृषि क्षेत्र में 2020 में हुए हैं। दोनों परिवर्तनों में एक समानता यह है कि ये दोनों निर्णय संसद द्वारा नहीं लिए गए हैं।

आज भी भारत की लगभग तीन चौथाई जनता पूरी या आंशिक रूप से कृषि पर निर्भर है। कृषि-क्षेत्र में आप कोई भी कदम उठाएंगे तो उसका सीधा असर इस आखिरी आदमी पर पड़ेगा ही, जो अपने या भाड़े के आधे एकड़ की खेती के आधार पर जीता या मरता है। तब यह जांचना जरूरी हो जाता है कि जो बदलाव किए गए हैं, क्या उनसे वह आखिरी आदमी अपने जीवन और भाग्य पर काबू कर पाएगा? क्या उस जैसे करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है?

पहले होता यह था कि किसान अपनी उपज बेचने के लिए ‘कृषि उत्पाद बाजार समिति’ (एपीएमसी) या मंडी में जाता था। सरकार भी यहीं न्यूनतम दर पर उसके उत्पाद ख़रीदती थी। अब इन मंडियों को ख़त्म किया जा रहा है तथा किसान को छूट दे दी गई है कि देश में कहीं भी अपना उत्पाद बेचे। मंडी अब किताबों में तो रहेगी, लेकिन वहां लगनेवाले टैक्स की वजह से। वहां अब से कोई व्यापार नहीं होगा।  

इसका क्या असर होगा, यह जानने के लिए जरूरी है, किसान अपनी फ़सल बेचता कैसे है-की जानकारी हो। गांवों में दलाल छोटे-मंझोले किसानों से फसल खरीद कर, अपना मुनाफा जोड़कर मंडी में बेचते हैं। बड़े किसान ही सीधे मंडी में पहुंचते हैं। जब तक आपके पास बहुत सारा अनाज न हो, तब तक उसे यहां-से-वहां ले जाने में जो नुकसान होता है, इसे उदाहरण से समझाती हूं। कोई आपसे एक किलो आलू खरीदे तो आप बीस रुपए किलो बेचेंगे, कोई थोक में 500 टन खरीदे तो आप उसे 10 रुपए किलो दे देंगे।

बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां दुनिया भर में हज़ारों टन का व्यापार इसी नियम से करतीं हैं। “एक देश – एक बाज़ार” भी ऐसे ही व्यापारियों के लिए बना है। ‘एपीएमसी’ ख़त्म होने का दूसरा असर यह होगा कि खेती-किसानी राज्यों के हाथ में नहीं रह जाएगी। कहीं का भी व्यापारी जब किसान से सीधे अनाज खरीदने लगेगा, तो न्यूनतम मूल्य के बोझे से भी सरकार पल्ला झाड़ लेगी।   

कांट्रैक्ट खेती की चर्चा लंबे समय से हवा में है। सरकार ने इसे भी क़ानूनी शक्ल दे दी है। अब ख़रीदने और बेचने वाले के बीच पहले ही अनुबंध हो जाएगा कि कैसी फसल की, किसान को क्या कीमत मिलेगी। सुनने में यह बहुत ही न्यायप्रद बात लगती है, लेकिन एक किसान और एक बड़ी व्यापारिक कंपनी या सेठ के बीच कोई समतापूर्ण अनुबंध हो सकेगा? बहुत कम किसान इस व्‍यवस्‍था का लाभ ले सकेंगे। यह खेती विशेष प्रकार के टमाटर या आलू या फिर धान की ही होगी और उसे भी वे ही किसान उगा पायेंगे जिनके पास बड़ी ज़मीन होगी और सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था होगी। इनका अनुबंध व्यापारी के हित के खिलाफ न जाए, इसकी सावधानी वे अनुबंध में पहले से कर रखेंगे। किसान यहां भी हार जाएगा। सारी बातें किसान के लिहाज से इतनी जटिल हैं कि उसकी गर्दन फंस कर रह जाएगी।

सरकार ने ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम-1955’ को भी ढीला कर दिया है। इस अधिनियम से अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य-तेल, प्याज़, आलू जैसे आवश्यक उत्पादों के संग्रह पर सरकार को रोक लगाने का अधिकार था। संशोधित कानून में सरकार सूखा या बाढ़ जैसी आपात अवस्था में ही इसका उपयोग कर सकेगी।

बहस के लिए मान भी लें कि कानून को ढीला करने से कृषि क्षेत्र को फ़ायदा होगा, तो यह सवाल बचा ही रहता है कि फायदा किसे और कैसे होगा? उत्पादन-संग्रह की आजादी किसे होगी और उस आजादी का फायदा उठा सकने की क्षमता किसके पास होगी? खेती-किसानी का किस्सा तो यही है न कि फसल बहुत अच्छी होती है, तो दाम गिर जाते हैं – इतना गिर जाते हैं कि किसान अपना खर्च भी नहीं निकाल पाता। उसी गिरावट में व्यापारी मनचाहा संग्रह कर लेता है। फिर दाम ऊपर जाता है तो वह अपना स्टॉक बेच कर मनमाना कमा लेता है। इस नये कानून से किसान का संरक्षण कैसे होगा? ‘किसान उत्‍पादक संगठन’ (एफपीओ) के माध्यम से संग्रह करने पर किसान को फायदा होगा? जरूर होगा, लेकिन उसमें इस कानून का योगदान तो नहीं है। तब यह कानून किसके लिए बदला गया? निश्चित ही उनके लिए जो जमाखोर हैं।

क्या फिर हम यह मानें कि ये सारे बदलाव बेकार हैं? ऐसा कभी होता है क्या? हर बदलाव के कुछ फायदे होते हैं। देखना यह होता है कि उस बदलाव की कीमत कौन चुकाता है और उसका फायदा किसे मिलता है? मुझे कोई शंका नहीं है कि यह बदलाव छोटे और मंझोले किसानों के हाथ से खेती को निकालने के लिए बनाया गया है। अगला कदम जमीन की मालिकी के कानून में बदलाव का होगा ! फिर उद्योग और किसानी के बीच की रेखा भी समाप्त हो जाएगी और हमारी कृषि-संस्कृति भी ! (सप्रेस)

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