सचिन श्रीवास्तव

लंबे समय से जिस कानून को लेकर सड़क से लेकर संसद तक घमासान मचा हुआ था, आखिरकार उन तीन कृषि कानूनों के अंत का ऐलान हो ही गया। दिल्ली की सीमाओं पर जारी किसान आंदोलन के बीच प्रधानमंत्री ने तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने का ऐलान किया। किसानों का संघर्ष ने रंग दिखाया, जो गर्मी, बरसात और ठंड में पिछले 1 साल से अधिक समय तक डटे रहे और अपनी मांगों पर अडिग रहे। ऐसा भी माना जा रहा है कि किसान आंदोलन से प्रभावित राज्यों में खासतौर पर उत्तर प्रदेश और पंजाब में चुनाव है।

बीते एक साल से दिल्ली की सीमाओं पर डटे देश के किसानों के लिए 19 नवंबर की तारीख यादगार बन गई है। ऐतिहासिक किसान आंदोलन की केंद्रीय मांग को मानते हुए भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी है। देर आयद, दुरुस्त आयद की ईबारती लकीर पर की गई यह घोषणा खुद प्रधानमंत्री ने गुरुनानक देव की जयंती पर अपने विशेष संबोधन में की है। इससे हालात की गंभीरता और सरकार की मंशा को पढ़ा, समझा और महसूस किया जा सकता है। इसी महीने संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हो रहा है, लेकिन सरकार ने कानून वापसी को भुनाने के लिए 10 दिन का इंतजार भी ठीक नहीं समझा। इसके लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बात करना तो महज वक्त की बर्बादी ही है, क्योंकि राज्यसभा में नियमों को ताक पर रखकर कानूनों को पारित कराते उपसभापति की झुकी हुई गर्दन पूरे देश ने देखी है।

कानून वापसी को देश की ताकतवर सरकार और किसानों के बीच एक साल से जारी निर्णायक लड़ाई का पटाक्षेप मानना एक बड़ी गलती होगा। क्योंकि कारपोरेट हितों को साधने की सरकार की मंशा बेहद साफ है और उसके लिए वह किसी भी कोण से अपने तीर चलाने में नहीं हिचकेगी। ऐसे में किसानों को एक मोर्चे पर कामयाबी तो मिली है, लेकिन लड़ाई के दूसरे कई मोर्चे खुलना बाकी है। संसद के शीतकालीन सत्र में आने वाले कानूनों, चीन की पूर्वोतर में घुसपैठ, उत्तर प्रदेश में विकास कार्यों के उद्घाटन, बिगड़ते सांप्रदायिक हालात और पंजाब की राजनीतिक उठापटक में आसन्न खतरों को भांपा जा सकता है।

राजनीतिक विश्लेषकों ने सरकार के इस कदम को उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों के चुनाव के पहले बिगड़े वोट समीकरण का गणित साधने की कवायद करार दिया है। वहीं सामाजिक अध्ययन के पैरोकारों ने इसे देश की बदलती हवा के तौर पर रेखांकित किया है। हालांकि ये दोनों ही वजहें बेहद कमजोर हैं। क्योंकि चुनावी गणित खासकर उत्तर प्रदेश को साधने के लिए सरकार के पास इससे कहीं ज्यादा बेहतर विकल्प मौजूद हैं, ​और जिनमें भाजपा के नेता और उसके जमीनी कार्यकर्ता पारंगत भी हैं। सरकार के इस कदम को सामाजिक रूप से बदलती जनता की नजर का प्रमाण मानना भी एक जल्दबाजी है, क्योंकि गांवों—देहात तक इन कानूनों के लाभ पहुंचाने में भाजपा नाकाम रही है, तो विपक्ष और किसान आंदोलन भी इन कानूनों के खतरों को तीन राज्यों के बाहर तक व्यापक जनमानस तक पहुंचाने में नाकामयाब ही रहा है।

हालांकि किसान आंदोलन के रणनीतिकारों और बड़े चेहरों ने यह साफ कर दिया है कि अभी आंदोलन वापस नहीं होगा। किसान नेता उस दिन के इंतजार तक दिल्ली की सीमाओं पर डटे रहने की हुंकार भर रहे हैं, जब तक कि कृषि कानूनों को संसद में रद्द नहीं किया जाता है। साथ ही उनकी मांग सरकार से एमएसपी समेत अन्य मुद्दों पर बातचीत की भी है। यानी कृषि कानूनों की वापसी इस आंदोलन का एक अध्याय भर है, जिसमें फौरी तौर पर किसानों को आधी जीत हासिल हो गई है।

खुद प्रधानमंत्री ने भी वापसी के पहले किसानों के लिए किए गए सरकार के कई कामों का लेखा—जोखा सामने रखा और जोर देकर यह भी कहा कि हम किसानों को समझा नहीं पाए। हमारी नीयत साफ थी, पवित्र थी लेकिन हमारी तपस्या में कमी रह गई। जाहिर है कि प्रधानमंत्री समेत भाजपा और केंद्र सरकार यह मानने को तैयार नहीं है कि कृषि कानूनों में कोई खामी थी। इसलिए मौटे तौर पर यह दो कदम आगे बढ़ाने के लिए एक ​कदम पीछे खींचने का मामला भर है। आगामी चुनावी नतीजे और राजनीतिक परिस्थितियां यह तय करेंगी सरकार अब किस तरह अपने कारपोरेट साथियों के लिए लाम​बंदी करेगी। उस वक्त यह कृषि कानून नए और ज्यादा तीखे रूप से सामने आएंगे और तब तक इनके विरोध के औजारों पर भी सरकार अपनी नजर साफ कर चुकी होगी।

कृषि कानूनों की वापसी का ऐलान यह भी साबित करता है कि बीते एक साल से जो गतिरोध बना हुआ था, उसे तोड़ने की हैसियत सिर्फ प्रधानमंत्री की ही थी। आंदोलन की शुरुआत में की गई सरकार के प्रतिनिधियों और किसानों की बातचीत महज एक रस्मअदायगी थी। इस दौरान सरकार किसानों की जीवटता और आंदोलन में आगे जाने की क्षमता को तौल रही थी। आखिरकार जब सरकार को लगा कि आगे और ज्यादा नुकसान की आशंका है, तब उसे अपने कदम पीछे खींचने पड़े। हालांकि इस देरी के कारण जितना नुकसान होना था, वह हो चुका है और उसकी भरपाई के लिए सिर्फ कानूनों की वापसी कारगर साबित नहीं होगी। संकेत यह भी हैं कि चुनावों के पहले सरकार किसानों के लिए अन्य राहतों, लाभों और लुभावनों वादों का जाल भी फेंकने वाली है।

इन कानूनों की वापसी का साफ निहितार्थ है कि संसद में प्रक्रिया के तहत कानूनों की वापसी महज औपचारिकता है, बड़ी बात यह है कि प्रधानमंत्री ने घोषणा की ही जो अपने आप में मायने रखती है। ठीक वैसे ही जैसे इन कानूनों में एमएसपी के लागू रहने के बारे में कहीं कुछ नहीं लिखा गया था, लेकिन प्रधानमंत्री ने कहा था कि एमएसपी खत्म नहीं होगी। जाहिर है कि प्रधानमंत्री का बयान ही अपने आप में किसी कानून, किसी संसद, किसी गजैटियर से बड़ा है।

इस कानून वापसी के निहितार्थों को समझने के लिए 15 महीने पहले की नाटकीय परिस्थितियों को याद करना मौजूं होगा। बीते साल कोरोना की पहली लहर के धीमा पड़ने के तुरंत बाद ही केंद्र सरकार ने इन कानूनों को लोकसभा के बाद नियमों को ताक पर रखकर आननफानन में राज्यसभा से पास कराया था। फिर 27 सितंबर 2020 को राष्ट्रपति ने इन पर मोहर लगा दी थी। इस दौरान पूरे पंजाब और हरियाणा के कुछ इलाकों में विरोध प्रदर्शन का सिलसिला शुरू हो गया था। आखिर 25 नवंबर 2020 की वह ऐतिहासिक तारीख आई, जिसमें सरकार और किसान आमने सामने थे। सरकार ने किसानों को दिल्ली में न घुसने देने के लिए जिस ताकत का इस्तेमाल किया था, वह अभूतपूर्व थी और इसने एक ऐसे सतत आंदोलन को जन्म दिया, जो असल में महज एक दिनी प्रदर्शन तक सीमित हो सकता था। आखिरकार जनवरी में सुप्रीम कोर्ट ने इन कानूनों के क्रियान्वयन पर यूं भी रोक लगा दी थी।

कुल मिलाकर सरकार नहीं चाहती कि संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान विपक्ष किसान आंदोलन के मुद्दे पर गतिरोध कायम रखे। साथ ही प्रकाश पर्व पर इस घोषणा का निहितार्थ साफ है कि सरकार के लिए यह आंदोलन सिख किसानों का आंदोलन है और पंजाब चुनाव में इस कानून वापसी को अमरिंदर सिंह के जरिये भुनाने की पूरी कोशिश की जाएगी। पंजाब उत्तर भारत के उन गिने चुने सूबों में से है, जहां भाजपा का संगठन अन्य राज्यों की अपेक्षा बेहद कमजोर है। ऐसे में करतारपुर कॉरिडोर खोलने के तुरंत बाद कानून वापसी भाजपा के लिए पंजाब में वोटर्स की नाराजगी कम करनी की एक कवायद है। लेकिन साथ ही सरकार ने अपनी गलती न मानते हुए यह भी साफ किया है कि वह कृषि कानूनों को हमेशा के लिए भुला नहीं रही है।

ऐसे में इंतजार किया जाना चाहिए कि शीतकालीन सत्र के बाद जब पांच राज्यों के चुनावों की घोषणा होगी, तब केंद्र सरकार, भाजपा और उसके अनुषंगी संगठन किस रणनीति के साथ सामने आते हैं।(सप्रेस)

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