दिनेश चौधरी

दीगर चीजों के अलावा कोलकाता मुझे इसलिए भी अपनी ओर खींचता रहा कि यहाँ सत्यजीत रे रहा करते थे। कोलकाता अपने किस्म का अद्भुत शहर है और सत्यजीत रे अपने किस्म के अद्भुत फिल्मकार थे। किस्से- कहानियों की अनूठी दुनिया से अपना पहला परिचय उन्हीं की किताबों से हुआ था और मैं जानना चाहता था कि खुद उनके आसपास का संसार कैसा रहा होगा, जहाँ से वे इतने खुरापाती विचार निकाल कर लाते रहे होंगे।

घूमने-फिरने के लिहाज से कोलकाता मस्त जगह है। थोड़े पैसों में भी गुजारा किया जा सकता है। दूसरे वाहनों के साथ सड़कों पर ट्राम चलते हुए देखना एक अलग किस्म का अनुभव होता है। हावड़ा से बाबूघाट जाना हो तो टैक्सी या बस के बदले लॉन्च की सवारी बड़ी मजेदार होती है। कोलकाता की उमस भरी गर्मी में हुगली की लहरों से खेलकर आती ठंडी हवा बहुत राहत देती है। मजे की बात यह कि लॉन्च में महिलाओं और बच्चों के अलावा शायद मैं ही इकलौता यात्री हुआ करता था, जिसके हाथ में बीड़ी या सिगरेट न हो। लॉन्च के चलते न चलते लोगों के होठों से धुएँ के छल्ले उड़ने लगते और कभी-कभी लगता कि मुझे इसके बगैर सन्देह की नज़रों से देखा जा रहा है।

कोलकाता के लोगों की जान सिर्फ रसगुल्लों और सन्देश की मिठास में ही नहीं बसती, वे उड़ते हुए धुएँ के इस के कसैलेपन को भी उतनी ही सहजता के साथ ग्रहण कर लेते हैं। सत्यजीत रे को भी कोलकाता के निर्मल चन्द्र स्ट्रीट में भीम चन्द्र नाग की मशहूर मिठाई की दुकान का माल बहुत रास आता था। शूटिंग के दौरान लुची-आलू वगैरह वहीं से आते। हालांकि सिगरेट उनके मुँह लगी हुई थी और इसके तल्ख कसैलेपन ने किसी और जायके के लिए गुंजाइश छोड़ने से इनकार कर दिया था। यह तल्खी और कसैलापन उनकी फिल्मों में भी नजर आता है जो बहुत से लोगों को बड़ा नागवार गुजरता है।

पैतृक निवास और मामा के घर के अलावा रे कोलकाता में कुल तीन मकानों में रहे और सभी किराए पर थे। उन्होंने अपनी कोई अचल संपत्ति बनाने की कोशिश नहीं की। कोई मोटर-कार भी नहीं। सबसे भारी अचल संपत्ति तो उनकी वह ख्याति रही जो उन्होंने फिल्म निर्माण और लेखन के जरिए बटोरी। जीवन के आखिरी 22 साल उन्होंने जिस मकान में गुजारे, मैं कई बार इसके आस-पास मंडराता रहा, पर भीतर दाखिल होने का मौका नहीं मिल पाया। वहाँ पाए जाने वाले बंगाली भद्र मानुस अपने जैसे लोगों को ज्यादा भाव नहीं देते थे। बल्कि कई बार मुझे ऐसा लगा कि रे के जीवन की टोह लेने आए लोगों को वे जरा सन्देह की निगाह से देखते थे। कारण वे ही जानें। वे सब ‘सत्यजीत रे फ़िल्म सोसायटी’ के माननीय सदस्य हुआ करते थे। ‘क्लास कैरेक्टर’ ऐसे नाजुक मौकों पर बड़ा काम आता है। मैंने भद्र बंगाली पुरुषों का आसरा छोड़कर एक बिहारी चौकीदार से दोस्ती गाँठी। उसने कहा कि इतना हलाकान होने जरूरत नहीं है। बाबा के नाम एक रुक्का लिखो। बाबा यानी सत्यजीत रे के बेटे संदीप रे। भीतर जाने के अपने पागलपन की कोई मुनासिब वजह बताओ और भरोसा दिलाओ कि कोई छेड़छाड़ नहीं होगी। मैंने वहीं एक कागज पर कुछ पंक्तियाँ घसीटकर अपने ताजा-ताजा शुभचिन्तक के हाथों में थमा दीं। संदीप रे ने अनुमति दे दी, हालांकि मैंने सुन रखा था कि वे जरा अकडू किस्म के हैं। अनुमति सशर्त थी। मुझे उनकी स्टडी में दस मिनट से ज्यादा नहीं रुकना था, किसी चीज के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं करनी थी और अंदर कोई तस्वीर नहीं लेनी थी। साँस लेने की इजाजत अलबत्ता मिली हुई थी, जो अंदर जा सकने के रोमांच में रुकते-रुकते बची।

अंदर किताबों की बहुत बड़ी दुनिया थी जो बाहरी दुनिया से कतई कमतर नहीं थी। दुनिया में जितने किस्म की कलाएँ होती होंगी, हरेक पर कई-कई किताबें। लगता था कि लाइब्रेरी नहीं है, बल्कि एक प्रयोगशाला है, जिसमें कई किस्म के द्रव्य-रसायन मौजूद हों। जैसे कोई वैज्ञानिक भिन्न-भिन्न किस्म के रसायनों का घालमेल कर किसी नए फार्मूले की तलाश में होता है, रे भी यहाँ पर कलाओं को लेकर नए सूत्रों की खोज करते रहे होंगे। यहाँ किताब और किताबों के अलावा सिर्फ किताबें थी। कुछ और भी रहा होगा जो मैं नहीं देख पाया क्योंकि मेरे पास सिर्फ दस मिनट का समय था । किताबें पढ़ने के लिए एक आरामदेह कुर्सी और लिखने-पढ़ने की मेज की अलबत्ता याद रह गई जो काले रंग की थी। दीवार पर एक तरफ पुराने दिनों वाली वाली आर्क वाली बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ थीं, जिसके जालीदार पल्ले अंदर की ओर खुले हुए थे। एक पल को मुझे लगा कि कुर्ता-पाजामा पहने हुए एक चिर-परिचित शख्स खिड़की पर विचारमग्न मुद्रा में खड़ा सामने कोलकाता की सड़कों को निहारता हुआ सिगरेट का धुँआ उगल रहा है। मैंने अपने सिर को झटका और बाहर निकल गया। बाहर आने पर मुझे रवि सर की बेतरह याद आई।

बोरल गाँव का मंदिर

रवि सर, यानी रवींद्र नाथ शाहदेव। वे छोटा नागपुर के नागवंशी राज -परिवार से थे। उनकी रियासत राँची के पास रातु नाम की जगह में हुआ करती थी। तब सुहाने मौसम के कारण राज-परिवारों में राँची को लेकर शिमला जैसा आकर्षण हुआ करता था। थोड़े ‘गरीब’ राजा राँची के आस-पास अपने बसेरे बना लिया करते थे। नाथ शाहदेव परिवार यहीं से आता था। रवि सर का मिजाज राज घराने के लोगों से जरा हटकर था। पढ़ने के इंतिहाई शौकीन थे। लोगों को परखने के लिए एक मोटा-सा चश्मा हर वक्त उनकी आँखों में चढ़ा होता। हॉफ शर्ट की बाँह भी हर वक्त मुड़ी होती, जैसे जमाने को ही चुनौती दे रहे हों कि आओ मुझसे भिड़ जाओ! दुनिया में ऐसी कोई चीज नहीं थी, जिसमें उनका दखल न हो। उन दिनों क्रिकेट मैदान के एक कमरे वाले ड्रेसिंग रूम में उनकी लाइब्रेरी हुआ करती थी। किन्हीं अज्ञात कारणों से मुझ पर खासा स्नेह रखते थे। पहली बार जब उनके इस कमरे में जाना हुआ तो जेहन में यही ख्याल आया कि राज-परिवार के इस इंसान रुचियाँ औरों से कितनी अलग हैं। कमरा छोटा था पर छोटे से कमरे में हजारों किताबें करीने से जमी हुई थीं। संयोग से यहाँ माहौल वही था जो मुझे आगे चलकर सत्यजीत रे की स्टडी में मिला था। रवि सर ने मुझे एक किताब पढ़ने को दी। यह सत्यजीत रे की किताब थी। कथा-कहानियों का एक नया संसार अपने आगे खुलता चला गया। ब्राउन साहेब, फेलूदा, प्रोफेसर शंकु और न जाने क्या-क्या! किरदार मन में स्थायी रूप से घर करने लगे। रे से पहला परिचय बतौर लेखक हुआ और बहुत बाद में मालूम हुआ कि उनकी असल ख्याति तो फिल्मकार के रूप में है। पहली बार उनकी फिल्म ‘सोनार किला’ रवि सर के सौजन्य से ही देख पाया था।

रे की किताबों और फिल्मों का नशा ऐसा चढ़ता गया कि उन्हें ज़रा नजदीक से जानने की इच्छा बलवती होती गई। सत्यजीत को पिता अथवा दादा का सानिध्य लम्बे समय के लिए नहीं मिला, फिर भी उनके कुछ हुनर अपने आप स्थानांतरित हुए। दादा बहुत बढ़िया वॉयलिन बजाते थे। रवींद्रनाथ टैगोर की एक संगीत संध्या में उन्होंने ऐसी गजब की वॉयलिन बजाई कि दोनों परिवार हमेशा के लिए एक-दूसरे के नजदीक आ गए। पिता ‘यू रेन एंड कम्पनी’ के नाम से छापाखाना चलाते थे। उनके असमय निधन के कारण सत्यजीत की माँ को उनकी परवरिश के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ा। उत्तर कोलकाता में बड़े हवेलीनुमा घर को छोड़कर दक्षिण कोलकाता आना पड़ा। उन दिनों कोलकाता के इन इलाकों में एक तरह का सांस्कृतिक विभाजन था। उत्तर कोलकाता सम्पन्न और एलीट लोगों का इलाका माना जाता था, जबकि दक्षिणी इलाके में ज्यादातर प्रवासी बाशिंदे थे। सत्यजीत रे किताबों के लिए ग्राफिक डिजाइनिंग का काम करने लगे थे। उनके दादा ने बच्चों के लिए ‘संदेश’ नामक जो पत्रिका शुरू की थी, वे उसे अंत तक निकालते रहे। बाल-साहित्य के लिए इस पत्रिका का बड़ा नाम था। फेलूदा जैसे चरित्र इसी के लिए गढ़े गए, जो अपन को अब भी आकर्षित करते हैं। किशोरावस्था में जो भी रे का साहित्य पढ़ ले, फिर जीवन भर उनके मोह से उबर नहीं पाता है। दुनियावी झंझटें भले ही इसे भुला देती हों, पर उनके चरित्र अवचेतन में कहीं बसे रह जाते हैं।

बहरहाल, इस बात का जिक्र तो मैंने पहले भी किया है कि अपन को अपनी पसंदीदा फिल्मों के लोकेशन में जाकर उन दृश्यों को अपने दिलो-दिमाग में रिवाइंड करने की ख़ब्त-सी सवार है। ‘सत्यजीत रे फ़िल्म सोसायटी’ के लोग अपने को घास नहीं डाल रहे थे। एक सज्जन से मिला तो उन्होंने तंज में कहा कि “अच्छा! आप लोग (हिंदी भाषी) भी हमारे साहब की फिल्में देखते हैं!” उन्होंने पूछा कि मैंने कौन-कौन सी फिल्में देख रखी हैं। मैंने कुछ नाम बताए। वे थोड़े आश्वस्त हुए। बैठने को कहा। भीतर पूछा कि चाय की गुंजाइश है क्या। चाय पिलाते हुए फिर से तंज किया, “आपके यहाँ तो मारधाड़ वाली फिल्में चलती हैं।” कड़वी काली चाय के घूँट भरते हुए मैंने उनसे मतलब की जानकारी निकालने की कोशिश प्रारम्भ कर दी। पूछा “जलसाघर” वाला महल कहाँ है? मैं उसे देखना चाहता हूँ।” उन्होंने कोई लिहाज किए बगैर बिल्कुल सपाट लहजे में कहा, “भूल जाओ। कुछ और पूछो।” इस जवाब से घबराकर मैं कुछ देर सोचता रहा कि कुछ और पूछूँ या न पूछूँ। फिर कुछ सोचकर पूछ ही बैठा, “पाथेर पांचाली’ वाला गाँव कौन-सा है?” इस बार उनकी ‘किरपा बरसी।’ कहा, “यहाँ से सिर्फ सात किलोमीटर की दूरी पर बोरल गाँव है। ‘पाथेर पांचाली’ का लोकेशन वही है।” 1/1, बिशप लेफ़्रॉय स्ट्रीट से मैं पहली बार मायूस होकर नहीं लौटा था। अब यह सड़क सत्यजीत रे के नाम पर हो गई है।

साहित्य और सिनेमा बिल्कुल जुदा माध्यम हैं। शरतचन्द्र के साहित्य के मर्म को देवदास देखकर नहीं पकड़ा जा सकता। जब साहित्य को सिनेमा की शक्ल में ढालने का इरादा हो तो देखना पड़ता है कि उसमें जरूरी लचीलापन है या नहीं। प्रेमचंद के यहाँ समकालीन समाज की तस्वीर खूब मूर्त होकर दिखाई पड़ती है, पर उनमें से कितना हिस्सा समानांतर सिनेमा के रूप में सामने आ सका? जो दो बड़े नामों वाली फिल्में -‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘सदगति’ -आईं वे भी सत्यजीत रे ने ही बनाईं। विभूतिभूषण बंदोपाध्याय का ‘पाथेर पांचाली’ पढ़ने के बाद ही रे के जेहन में यह बात बहुत पुख्ता तौर पर बैठ गई थी कि इस कथा के प्रभावी रूप में सिनेमा में ढलने की अपार संभावनाएं हैं। विज्ञापन कम्पनी के काम के सिलसिले में समुद्री मार्ग से लन्दन जाते हुए उन्होंने इस कथा के कैरिकेचर तैयार कर लिए थे। यह कैरिकेचर ही उनके फ़िल्म की स्क्रिप्ट थी। पर अभी उनके मन की दुविधा खत्म नहीं हुई थी। उन्हें पक्के तौर पर नहीं पता था कि खुद को अभिव्यक्त करने के लिए माध्यम के रूप में उन्हें सिनेमा को चुनना है या नहीं।

“चाय पर चर्चा” के दौरान कुछ और भी मालूमात हासिल हुई। जब रे अपने जेहन में “पाथेर पांचाली” के टुकड़ों को जोड़-जोड़कर एक कोलाज जैसा बना रहे थे, उसी समय औपनिवेशिक काल की पृष्ठभूमि पर एक फ़िल्म “द रिवर” बनाने के लिए सुप्रसिद्ध फ़्रांसिसी निर्देशक ज्यां रेनुआ कोलकाता आते हैं। रे अभी अपनी विज्ञापन कम्पनी में ही हैं। एक स्थानीय सहायक के रूप में सेवाएँ लेने के लिए रेनुआ को रे बिल्कुल उपयुक्त लगते हैं। रे को भी इस माध्यम को समझने के लिए यह अवसर संयोग से हाथ आया हुआ लगता है। उधर उनकी मुलाकात आर्ट डायरेक्टर बंशी चन्द्र गुप्त से होती है। ये वही बंशी चन्द्र गुप्त हैं, जिन्होंने “उमराव जान” जैसी बेहतरीन फ़िल्म के सेट तैयार किए। तो रे इन्हीं बंशी चन्द्र गुप्त को साथ लेकर “पाथेर पांचाली” के गाँव निश्चिन्दीपुर की तलाश में निकल पड़ते हैं। साउथ चौबीस परगना के बोरल गाँव में जब रे और गुप्त लोकेशन की तलाश में भटक रहे होते हैं तो अचानक जोरों की बारिश शुरू हो जाती है। दोनों को भागकर एक टूटे-फूटे मकान की शरण लेनी पड़ती है। बारिश के थमने के बाद जब वे वहाँ से निकल पड़ते हैं तो अचानक रे के दिमाग की बत्ती जल उठती है। वे सहसा बंशी चन्द्र गुप्त के कंधे पकड़कर उन्हें रोक लेते हैं। कहते हैं, “यही तो वो घर है, जिसकी तलाश अपन कर रहे थे!”

फ़िल्म में अपू और दुर्गा का यह घर दरअसल गोपाल मुखोपाध्याय परिवार का घर है। वे तब वहाँ नहीं रहते थे। रे ने उनसे संपर्क किया और पचास रुपये महीने पर किराए पर ले लिया। मैंने काली चाय का अंतिम घूँट समाप्त करते हुए भद्र पुरुष से पूछा था कि “वह मकान अब किसके कब्जे में है?” उन्हें भीतर से बार-बार बुलावा आ रहा था। “चाय पर चर्चा” को समेटते-समेटते उन्होंने बताया कि घर पर अब उन्ही मुखोपाध्याय परिवार का डेरा है और बोरल गाँव जाना हो तो मेट्रो के काज़ी नजरुल इस्लाम स्टेशन में उतरना ठीक रहेगा। मेरा धन्यवाद प्रस्ताव स्वीकार किए बगैर वे भीतर की ओर लपक लिए। बाहर आकर मैनें निश्चय किया कि सीधे भीम चन्द्र नाग की मिठाई की दुकान की ओर कूच करना चाहिए। मैं बतौर “व्यवहार” उचित और पर्याप्त मात्रा में बंगाली मिठाइयाँ अपने साथ रख लेना चाहता था। पता नहीं मुखोपाध्याय परिवार मुझसे मेरे पागलपन के साथ किस तरह से पेश आए!

दूसरे दिन सुबह-सुबह ही मैं काज़ी नजरुल इस्लाम स्टेशन पर उतरकर बोरल गाँव की ओर कूच करता हूँ। एक “शेयर -ऑटो” का सहारा लेता हूँ क्योंकि जेब तंग हैं और मैं पहले ही मिठाई के मद में काफी पैसे खर्च कर चुका हूँ। गाँव अब वो गाँव नहीं रहा। कुछ पहचानना मुश्किल है। दुर्गा जहाँ एक पैसे की मुड़ी लेती है, वहाँ कोला और चिप्स बिक रहे हैं। स्थानीय बाशिंदों को शूटिंग के बारे में कोई जानकारी नहीं है। ज्यादातर 1971 के बाद बतौर शरणार्थी यहाँ आकर बसे हुए हैं। एक जगह सत्यजीत रे की प्रतिमा लगी हुई है जो बड़ी मुश्किल से पहचान में आती है। स्थानीय लोग रे को इसी प्रतिमा से पहचानते हैं। अलबत्ता एक वृद्ध से सज्जन दत्ता बाबू मिलते हैं, जिन्हें शूटिंग की कुछ जानकारी है। वे मूल रूप से यहीं के रहने वाले हैं और शूटिंग के दौरान छठी कक्षा में पढ़ते थे। गोपाल मुखोपाध्याय के घर का पता उन्होंने ही बताया। “पाथेर पांचाली” के जिक्र पर मुखोपाध्याय परिवार के सदस्य उखड़ गए। वे इस विषय पर कोई बात नहीं करना चाहते थे। उनकी शिकायत शायद यह थी कि फ़िल्म में उन्हें कोई क्रेडिट नहीं मिला है। मैंने उन्हें बताया कि इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है। मैं तो मध्यप्रदेश के एक गाँव से धक्के खाते हुए यहाँ पहुँचा हूँ और आप लोगों के लिए भीम चन्द्र नाग वालों के यहाँ से गुड़ के सन्देश लेकर आया हूँ। वे इस सन्देश से भी ज्यादा प्रभावित नहीं हुए पर मुझ पर जरा रहम खाते हुए घर-आंगन का एक फेरा लगाने की इजाजत दे दी।

अपू और दुर्गा के इस घर की पहचान अब मुश्किल है। बस वह पोखर समझ में आता है जहाँ दुर्गा स्नान करती है और फिर निमोनिया से मर जाती है। आँगन वाला तुलसी का चौरा भी बचा हुआ है। गाँव का मंदिर अलबत्ता वैसा ही है, जैसा फ़िल्म में दिखता है। कोलकाता पलायन से पहले, हरिहर यहीं पर मत्था टेकता है। हरिहर का पलायन अलबत्ता रुका नहीं है। वह तब से लेकर अभी तक जारी है और जो पलायन अब हो रहा है, वह शायद इस सदी का सबसे बड़ा पलायन है।

रे दुविधा में थे कि सिनेमा के हल्के में कूदें या न कूदें। तभी उन्होंने लन्दन के उस दौरे में डी सिका की फ़िल्म “द बाइसिकल थीफ” देखी। फ़िल्म देखकर निकलने के बाद वे तय कर चुके थे कि आगे उन्हें फिल्में ही बनानी है। रे एक फिल्मकार बनकर भारत लौटते हैं। ‘द बाइसिकल थीफ’ भी भारत आता है। 21 वीं सदी की एक शाम को वह राजस्थान के भरतपुर से सायकिल की चोरी करता है, क्योंकि उसे हजार किलोमीटर का सफर तय करना है और उसका बच्चा विकलांग है। माफी माँगते हुए वह साइकिल मालिक के नाम एक खत छोड़ जाता है।

कालजयी फिल्में फ़क़त किसी समय की घटनाओं का प्रतिबिंब नहीं होतीं। वे आने वाले दिनों की घटनाओं को भी पढ़ लेती हैं!

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