World Book Fair 2024 Delhi
विश्व पुस्तक मेला दर्शक संख्या की दृष्टि से दुनिया का सबसे बड़ा मेला है। इस बार मेले का क्षेत्रफल 50,000 वर्ग मीटर क्षेत्र में विस्तृत कर दिया है। इसमें 40 से ज्यादा देशों के 2000 प्रकाशकों ने अपनी दुकानें लगाई हैं। बावजूद हिंदी पुस्तकों को ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक कैसे पहुंचाया जाए, यह प्रश्न अपनी जगह मौजूद रहेगा।
इस साल विश्व पुस्तक मेले में सनातन संस्कृति की बहुभाषी जीवंतधारा बहती दिखाई दे रही है। अयोध्या में राम मंदिर में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद बड़ी संख्या में पुस्तकें भी राममय या सनातन संस्कृति को अभिव्यक्त कर रही हैं। चूंकि मेला राम मंदिर के उद्घाटन के बाद भरना था, इसलिए इसका विषय भी ‘बहुभाषी भारतः एक जीवंत परंपरा‘ रखा गया है। सनातन संस्कृति और भारत के साथ विश्व वैभव के प्रमाण पहली बार संस्कृत में लिखे ऋग्वेद में मिलते हैं। ऋग्वेद ही भारत के सांस्कृतिक-ऐतिहासिक वैभव और सभ्यता का मूल स्रोत है। इसे दुनिया की सबसे प्राचीन पुस्तक होने का दर्जा प्राप्त है। इसकी अगली कड़ियों में वाल्मीकि रामायण, उपनिषद, महाभारत और पुराण आते हैं। पंचतंत्र और जातक कथाएं लोक की प्राचीन प्रस्तुतियां हैं। भारतीय सांस्कृतिक इतिहास, भूगोल कथाओं एवं महाकाव्यों का एक आकर्षक बहुरूप दर्शक है, जिसमें प्रत्येक भारतीय भाषा के लोक-रंग जुड़े हुए है। मेले में बहुभाषी भारत की इसी जीवंत परंपरा का प्रदर्शन पांच मंडपों में किया गया है। जिसमें देश-विदेश के बड़ी संख्या में प्रकाशन संस्थानों ने भागीदारी की हुई है।
राश्ट्रीय पुस्तक न्यास, दिल्ली के प्रगाति मैदान में इस मेले का आयोजन प्रतिवर्ष करता है। 1972 मेले की शुरूआत हुई थी। तब से लेकर अब तक यह मेला दर्शक संख्या की दृष्टि से दुनिया का सबसे बड़ा मेला है। 2023 में यह मेला 40,000 वर्ग मीटर क्षेत्रफल में लगा था, जिसमें 35 से अधिक देशों की 18,000 दुकानें लगी थीं। 12 लाख पुस्तक प्रेमियों ने शिरकत की थी। इस बार मेले का क्षेत्रफल 50,000 वर्ग मीटर क्षेत्र में विस्तृत कर दिया है। इसमें 40 से ज्यादा देशों के 2000 प्रकाशकों ने अपनी दुकानें लगाई हैं। बावजूद हिंदी पुस्तकों को ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक कैसे पहुंचाया जाए, यह प्रश्न अपनी जगह मौजूद रहेगा।
दरअसल बड़ी संख्या में हिंदी भाषी होने के बावजूद अधिकांश में पुस्तक पढ़ने की आदत नहीं है। इस दृष्टि से पुस्तक पाठक तक पहुंचाने और पढ़ने की संस्कृति विकसित करने की जरूरत है। हालांकि बदलते परिवेश में जहां ऑनलाइन माध्यम पुस्तक को पाठक के संज्ञान में लाने में सफल हुए हैं, वहीं ऑनलाइन बिक्री भी बढ़ी है। इसके इतर गीता प्रेस गोरखपुर ने दावा किया है कि उनकी प्रत्येक दिन करीब 1 लाख पुस्तकें बिकती हैं। इससे यह पता चलता है कि हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के खरीददारों की कमी नहीं हैं, बशर्तें पुस्तकें धर्म और अध्यात्म से जुड़ी हों। यही वजह है कि इस समय देश में पौराणिक विषयों पर लिखी पुस्तकों की बिक्री में तेजी आई हुई है। इसीलिए मेले की थीम का विषय बहुभाषी भारतः एक जीवंत परंपरा उचित है। सभी भाषाओं में ऋग्वेद, रामायण और महाभारत के पात्र और कथानकों पर हजारों साल से निरंतर लिखा जा रहा है। सच पूछा जाए तो यही वह कालजयी साहित्य है, जो भारतवासियों के प्राणों में चेतना का संचार करते हुए जीवंत बना हुआ है। भारत में जितने भी नैतिक मूल्य और रिश्तों में भरोसा कायम है, उसका आधार इन्हीं ग्रंथों की मूल भावना है।
पुस्तकों के विस्तार के लिए निरक्षर लोगों को साक्षर करना भी जरूरी है। साक्षरता के तमाम अभियान चलाने के बावजूद बमुश्किल सत्तर प्रतिशत आबादी ही साक्षात हो पाई है। हालांकि आजादी के पहले जब देश की बड़ी आबादी निरक्षर थी, तब पुस्तकों की 25-25 हजार प्रतियां छपती थीं, जबकि अब पहले संस्करण में 250 से एक हजार पुस्तकें ही छपती हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि पाठक संख्या सीमित हो रही है। ऐसा टीवी चैनलों पर धारावाहिकों का सिलसिला 24 घंटे चलने और सोशल मीडिया के हस्तक्षेप से भी हुआ है। मोबाइल ने भी पाठक की पुस्तकों से दूरी बनाई है। इनमें ज्यादातर ऐसी सामग्री है जो समाज को कुंठित और हृदयहीन बना रही है। शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी प्रभाव के चलते भी हिंदी पुस्तकों की बिक्री प्रभावित हो रही है। हिंदी और भारतीय भाषाओं का प्रश्न राष्ट्रीयता से जुड़ा है, इसलिए इसे अकेली सरकार पर नहीं छोड़ा जा सकता। समाज को पुस्तकें पाठक तक पहुंचाने के लिए निजी स्तर पर प्रयत्न करने होंगे। इस लिहाज से जरूरी है कि जन्मदिन, शादी समारोह और अन्य मांगलिक अवसरों पर लोग पुस्तकें भेंट करने का सिलसिला शुरू करें।
हिंदी पुस्तकों की स्थिति प्रकाशकों की उदासीनता के चलते भी निराशाजनक रही है। ज्यादातर प्रकाशक पाठक तक पहुंचने की कोशिश नहीं करते। उनका भरोसा बड़े सरकारी संस्थानों की खरीद पर ही टिका है। इस कारण संसाधनों में सेवारत विद्वान और अधिकारियों की पसंद की पुस्तकें छापने में भी प्रकाशित दिलचस्पी लेते हैं। किंतु ये पुस्तकें रुचिकर नहीं होती हैं। इसके उलट बांग्ला, मराठी और गुजराती भाषाओं की स्थिति आज भी हिंदी से बेहतर है। इन भाषाओं में पहला संस्करण आज भी 5000 की संख्या में छापे जा रहे हैं। हालांकि अंग्रेजी के अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों के हिंदी में आने के बाद स्थिति बदली है। इन प्रकाशकों ने साहित्य की गंभीर पुस्तकों के अलावा लोकप्रिय साहित्य भी छापने का सिलसिला शुरू किया है। साथ ही अंग्रेजी के लोकप्रिय भारतीय साहित्य के हिंदी अनुवादों का भी प्रकाशन किया है।
मिथक माने जाने वाले पौराणिक साहित्यिक कृतियों को ये प्रकाशक खूब छाप रहे है। इनकी बिक्री भी खूब हो रही है। यह वही पुराण और इतिहास से जुड़ा साहित्य है, जो आचार्य चतुरसेन शास्त्री, गुरूदत्त, डॉ. वृंदावन लाल वर्मा, नरेंद्र कोहली, रामकुमार भ्रमर, मदनमोहन शर्मा ‘शाही‘, मनु शर्मा और प्रमोद भार्गव ने लिखा है। इस कालजयी साहित्य को वामपंथियों ने स्वीकारने के बजाय नकारने का काम किया। इस कुटिल मानसिकता के चलते हिंदी के कई नामी प्रकाशक केवल वामपंथ से जुड़ा नीरस और अपठनीय साहित्य छापते रहे। जबकि विदेशी प्रकाशकों ने इन्हीं पौराणिक किरदारों पर देवदत्त पटनायक, अमीश त्रिपाठी, चेतन भगत, आनंद नीलकंठ, प्रमोद भार्गव और अशोक बैंकर की किताबों को छापा और कई-कई संस्करण बेचे। हालांकि इनका अनुकरण करते हुए हिंदी प्रकाशकों को बुद्धि आई और उन्होंने भी तमाम लेखकों की पुस्तकों के पेपरबैक संस्करण निकाले। इन किताबों में मदनमोहन शर्मा ‘ शही‘ की ‘लंकेश्वर‘ महंगी होने के बावजूद खूब बिक रही है।
दरअसल अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक मंजुल, पेंगुइन, हार्पर कॉलिंस, वेस्टलैंड पुस्तक के सुदंर कलेवर के साथ विक्रय की प्रचार संबंधी रणनीतियों के चलते ज्यादा से ज्यादा पाठकों को आकर्षित कर रहे है। लोकप्रिय लेखन और उसे पाठक तक पहुंचाने का फायदा यह है कि बाद में पाठक गंभीर साहित्य पढ़ने में भी रुचि लेने लगते हैं। अस्सी के दशक तक हिंदी में ऐसा ही था। गुलशन नंदा, कुशवाहा कांत, रेणु और भ्रमर की लोकप्रिय पुस्तकों की लत पाठक को लग जाती थी, तो फिर वह प्रेमचंद, फणीश्वर नाथ रेणु, भगवतीचरण वर्मा, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर आदि साहित्यकारों को भी पढ़ने लगते थे।
हाल ही में एक समाचार एजेंसी की सुखद खबर आई है कि हिंदी पुस्तकों की मांग ऑनलाइन भी खूब बढ़ रही है। अभी तक इस संदर्भ में अंग्रेजी पुस्तकों का ही बोलबाला था। यह शायद पहला अवसर है जब हिंदी पुस्तकों की ई-खरीद में बढ़त दर्ज की गई है। पिछले छह माह में यह वृद्धि 60 प्रतिशत दर्ज की गई है। इससे ज्ञात होता है कि अंग्रेजी के वर्चस्व और प्रौद्योगिकी के बीच भी हिंदी खूब फल-फूल रही है। कहना नहीं होगा कि हिंदी के वास्तविक हित चिंतकों के लिए यह खबर सुखद आश्चर्य के साथ गौरवान्वित करने वाली है। ऑनलाइन अमेजन, हिंदी बुक सेंटर और फ्लिप कार्ड के जरिए खूब हिंदी पुस्तकें खरीदी जा रही हैं। अप्रैल 2014 में ऑनलाइन हिंदी बुक स्टोर की स्थापना करने वाले अमेजन का दावा है कि यह मांग आगे भी और बढ़ने वाली है। पुस्तकों की ई-बिक्री से फायदा यह हुआ है कि कस्बा और तहसील व जिला मुख्यालयों के पाठक भी अपनी रुचि की पुस्तक आसानी से मंगाने लगे हैं। ज्ञातव्य है कि शिक्षा से लेकर करियर के हर क्षेत्र में अंग्रेजी के बोलबाले के बीच हिंदी पुस्तकों की यह मांग उसकी प्रासंगिकता और महत्व को रेखांकित करती है।
दरअसल भारतीय संस्कृति इसलिए अनूठी व अद्वितीय है क्योंकि इसमें धर्म और भाषा के साथ खान-पान, रहन-सहन और पर्यावरण संबंधी विविधताएं भी मौजूद हैं। आदिवासी जनजीवन से जुड़ी सांस्कृतिक बाहुलता भी है। इसलिए भारत में आधुनिकता का ढोल चाहे जितना पीटा जाए, उसका अतीत कभी व्यतीत नहीं होता। वैसे भी हमारी संस्कृति में वेद, उपनिषद्, पुराण, रामायण और महाभारत ऐसे ग्रंथ हैं, जो दुनिया की किसी भी साहित्य और संस्कृति में नहीं है। इनके किरदारों की गाथाएं पाठक नए संदर्भों और शब्दावली में पढ़ना चाहते है। नरेंद्र कोहली की रामकथा और मदनमोहन शर्मा ‘शाही‘ का लंकेश्वर इसीलिए लोकप्रिय बने हुए हैं। पुरातन भारतीय साहित्य की एक विलक्षण्ता यह भी है कि उसमें अनेकता के रूप विद्यमान है। ऐसा दुनिया के अन्य किसी देश और भाषा के साहित्य में नहीं है।
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