अरुण कुमार त्रिपाठी

इन दिनों प्रयागराज उर्फ इलाहाबाद में गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर हर बारह साल में भरने वाला महाकुंभ का मेला लगा है। ऐसे विशालकाय जमावड़े आपसी मेल-मिलाप, संवाद और सहजीवन की बुनियाद होना चाहिए, उनसे मैत्री की किरण फूटनी चाहिए, लेकिन क्या यह हो पा रहा है?

अपने मित्र और हिंदी के प्रसिद्ध कवि अष्टभुजा शुक्ल ने ‘अथ कुंभ कथा’ नाम से ऐसा ललित निबंध लिखा जिसे पढ़कर लगा मानो हमने प्रयागराज के संगम पर डुबकी ही लगा ली। वे लिखते हैं, ‘जल तो थोड़ा-बहुत हर जगह है, लेकिन कुंभ के महापर्व में वह अमृत में रूपांतरित हो चुका है। अमृत का चखना ही अनंत पुण्य का फल है। आनंद का मेला है। अमरता की तलाश में ही जीवन मैदान में उतरता है।’

उधर, गांधी विचारक चिन्मय मिश्र कहते हैं कि आठवीं सदी में जब कुंभ की शुरुआत हुई तो देश दमन और पराजय की ढलान पर जाने लगा। बौद्धों और जैनियों का दमन और उन्हें देश के लोकजीवन से निष्कासित करना कमजोर भारत की नींव डालने जैसा ही काम था। यह काम किया था, शंकराचार्य ने। संगम पर प्रतीकात्मक डुबकी लगाने के साथ सांस्कृतिक संगम की सरस्वती को लुप्त कर दिया गया। उसी के बाद देश पर विदेशी आक्रमण हुए और गुलामी की शुरुआत हुई।

महाकुंभ को देखने के ये दो विचार हैं। आप इनमें से जिसके साथ जाना चाहें, जा सकते हैं, लेकिन पाप-पुण्य और पराजय के भाव से अलग एक भाव है मैत्री का। कुंभ जाने वालों से यह पूछना चाहिए कि उनके भीतर कितना मैत्री भाव जगा। उस मैत्री भाव के मूल में है एकत्व का भाव। वह एकत्व चाहिए सूर्य से, पृथ्वी से, जल से, अग्नि से, प्राणि मात्र से। यानी जो पंचमहाभूत हैं – क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर जिनसे मिलकर इस सृष्टि की रचना हुई है, उसकी एकता की अनुभूति। क्या लोग कुंभ के अवसर पर इस भावार्थ को समझ पा रहे हैं?

भारत और उत्तरप्रदेश आज जिस शत्रुता भाव में डूबता जा रहा है, अपने भीतर ही जिस तरह से पराए ढूंढे जा रहे हैं, जिस तरह से अपनी आजादी के लिए हुए बलिदान को व्यर्थ बताकर उस पर वितंडा खड़ा किया जा रहा है, क्या महाकुंभ के इस आयोजन के बाद जनता और बौद्धिक वर्ग के भीतर से वह भाव कुछ मिटेगा? क्या उसके भीतर समता और समन्वय का भाव जगेगा? या श्रेष्ठता और अलगाव का भाव पैदा होगा? अगर उसमें अलगाव और श्रेष्ठता भाव मिटेगा तो समझिए कि उसने कुंभ में अमृत चखा और अगर बढ़ेगा तो समझ लेना चाहिए कि उसने अमृत समझकर विष चखा है।

अगर इस महाकुंभ से हिंदू संस्कृति की श्रेष्ठता का भाव निकलता है और वह दूसरी संस्कृतियों या संप्रदायों को हेय मानने की भावना से ग्रसित होता है तो समझना चाहिए कि लोगों ने कुंभ का सही संदेश नहीं लिया है। वे निजी स्वार्थ, सांगठनिक स्वार्थ, सांप्रदायिक स्वार्थ और सामुदायिक स्वार्थ को साधने की तलाश में कुंभ गए और लौट आए। इससे न तो भारत का कल्याण हो पाएगा और न ही विश्व का।

अगर यह महाकुंभ हिंदू धर्म की सत्य और अहिंसा की संस्कृति को समझाने, प्रकट कराने और उस अमृत को चखाने में सफल होता है तो कहा जा सकता है कि इसकी सार्थकता है। अगर वह झूठ गढ़ने, अंधविश्वास बढ़ाने, राज्य की हिंसक प्रवृत्ति और सांप्रदायिक वैमनस्य की भावना फैलाने का उद्देश्य पूरा करने का साधन बनता है तो उसकी सफलता संदिग्ध है और उसी के साथ संदिग्ध होती है भारत की अमरता और शास्वत होने की धारणा।

हिंदू की पहचान बताते हुए ‘माधव दिग्विजय’ नामक ग्रंथ में उल्लेख है – ‘ओंकार जिसका मूल मंत्र है, पुनर्जन्म में जिसकी दृढ़ आस्था है, भारत ने जिसका प्रवर्तन किया है तथा हिंसा की जो निंदा करता है, वह हिंदू है।’ इसी बात को विनोबा भावे अलग ढंग से कहते हैं। उनका मानना है कि ‘अहिंसा-प्रियता हिंदू होने का मुख्य लक्षण है।’ वास्तव में भारत जिसको दुनिया के लिए अपना विशिष्ट संदेश मानता है, जिसके कारण वह दुनिया की पवित्र भूमि होने का दावा कर सकता है, वह है – ‘वसुधैव कुंटुंबकम’ यानि समस्त संसार एक परिवार है का संदेश। यही संदेश मैत्री का संदेश है, यही संदेश बंधुता, सत्य और अहिंसा का संदेश है।

सत्य और अहिंसा का संदेश अरबों रुपए खर्च करके करोड़ों लोगों के स्नान का दावा करने में नहीं है। वह सत्य की तलाश के नाम पर अल्पसंख्यक बहुल आबादी और शहरों के बीच मस्जिदों को खोदकर मंदिर निकालने में नहीं है। न ही वह पुलिस प्रशासन द्वारा गदा लेकर अल्पसंख्यकों को भयभीत करने में है। वह संदेश है, सभी में मैत्री और समता का भाव देखने में। यह भाव सरकारों के आयोजनवीर होने की बजाय सहज रूप से मेले में लोगों की जुटान से होता है।

गांधी की हत्या के बाद जब मई 1948 में वर्धा में प्रधानमंत्री नेहरू, राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, जेबी कृपलानी, जयप्रकाश नारायण और विनोबा भावे जैसे कई दिग्गज आगे की रणनीति बनाने के लिए बैठे तो विनोबा भावे ने सर्वोदय समाज का संगठन बनाने और उसके लिए किसी सरकारी आयोजन का विरोध किया था। उनका कहना था कि सर्वोदय मेला लगना चाहिए और उसके लिए कोई फिजूलखर्ची नहीं होनी चाहिए। आज स्थिति उल्टी हो चली है। हर कोई यही पूछ रहा है कि सरकार ने क्या इंतजाम किया है। सरकार यह बताने में करोड़ों रुपए खर्च कर रही है कि उसने क्या इंतजाम किया है। दूसरी ओर तमाम लोग यह बताने में अपना श्रम लगाए हुए हैं कि सरकार ने क्या नहीं किया। इस तरह सरकार एक खास समुदाय की तरफदारी में झुकती जा रही है और बाकी समुदायों की उपेक्षा कर रही है।

यजुर्वेद के एक श्लोक का उद्धरण देते हुए विनोबा भावे कहते हैं : ‘मित्र की निगाह से हम दुनिया को देखें और मित्र की निगाह से दुनिया हमें देखे। समाज में सब लोग सखा बनें। परस्पर सहयोग करें, परस्पर खुली चर्चा करें, सामूहिक निर्णय लें और सब मिलकर उस पर अमल करें। इसी का नाम है सख्यभक्ति।’ वे आगे कहते हैं कि ‘विज्ञान युग में दास्यभक्ति का जमाना चला गया है और सख्यभक्ति का आ गया है।’ सवाल उठता है कि क्या हम कुंभ आयोजन के 1200 वर्षों में उस सख्यभाव को निर्मित कर पाए हैं?

यह दौर जातीय और धार्मिक संकीर्णताओं के बढ़ने का और धार्मिक संघर्षों का है। विभिन्न धर्मों की बुनियादी एकता की भावना निरंतर क्षीण हो रही है। भारत की विशेषता रही है कि वहां विभिन्न धर्मों ने मिलकर मानव चित्त की ऐसी खेती की है कि उनका बाह्य मतभेद मिटता रहा है। महाकुंभ के आयोजन में जिस तरह गंगा और यमुना मिलती हैं क्या उसी तरह मिलते हुए जातिगत, लैंगिक, सांप्रदायिक,धार्मिक, भाषाई, वैचारिक मत-मतांतर और राजनीतिक भेदभाव मिट रहे हैं? अगर हां तो निश्चित तौर पर इस कुंभ की सार्थकता है। लेकिन अगर इसमें नए-नए विवादों को खोद निकालने, नए-नए टकराव और कलह के मुद्दे तलाशने और समता और मैत्री के भाव को घटाने का काम हो रहा है तो समझ लीजिए कि महाकुंभ का घट रीता ही रहेगा। (सप्रेस)